Friday, December 31, 2010

नव वर्ष की हार्दिक मंगल कामनाएं

नव वर्ष सुहाना हो
सब खुशियाँ खूब मिलें
खुशियों का खजाना हो ||

चाहत हों सभी पूरी
अपनों से निकटता हो
मिट जाएँ सभी दूरी ||

मैसम भी सुहाने हों
फूलों की गंध लिए
आंगन में बहारें हों ||

सभी मित्रों को आंग्ल नव वर्ष की हार्दिक मंगल कामनाएं प्रदान करता हूँ कृपया स्वीकार कर आभारी करें
आप का
वेद व्यथित
मेल: dr.vedvyathit@gmail.com
blog : http://sahityasrajakvedvyathit.blogspot.com
mob no :09868842688

Friday, December 17, 2010

www.hamarivani.com

Wednesday, December 15, 2010

शीत ऋतू की त्रि पदी

सर्दी अपना रंग दिखा ही रही है मैंने मित्रों के स्नेह से एक नये छंद त्रि पदी की रचना की है जो पहले भी आप ने मेरे ब्लॉग पर व अन्य स्थानों पर पढ़ा है उसी को आगे बढ़ाते हुए फिर कुछ शीत ऋतू की त्रि पदी लिखी हैं इन्हें भी आप का पूर्वत स्नेह व आशीष मिलेगा |


शीत ऋतू की त्रि पदी

जब आग बुझी होगी
तो बाक़ी बचेगा क्या
बस बर्फ जमीं होगी

ये सर्द बनती है
बर्फीली हवाएं हैं
ये खूब सताती हैं

ये बर्फ तो पिघलेगी
बस दिल को गर्म रखना
मजबूर हो पिघलेगी

ये बर्फ जमाये तो
सांसों को गर्म रखना
जब सर्द बनाये तो

ठिठुरन तो होगी ही
ये बर्फ की मन मानी
पर ये भी पिघलेगी

ये सर्द हवाएं हैं
ये प्यार के रिश्तों को
बस बर्फ बनाएं हैं

क्यों चुप्पी छाई है
इन लम्बी रातों में
क्यों बर्फ जमाई है

कुछ बर्फ पिघलने दो
बस दिल को गर्म रखना
बस दिल को धडकने दो

किस किस को बताओगे
जो बर्फ सी यादें हैं
किस किस को सुनाओगे

यादें कैसे भूलूँ
ये बर्फ सी जम जातीं
उन को कैसे भूलूँ

जब बर्फ जमी होगी
दिल की गर्माहट से
कुछ तो पिघली होगी

यादें पथरीली हैं
वे दिल को जमातीं हैं
ऐसी बर्फीली हैं

ये केश हैं अम्मा के
ये बर्फ के जैसे हैं
बीते दिन अम्मा के

विधवा के आंचल सी
ये बर्फ की चादर है
दुःख की बदली जैसी

Thursday, December 9, 2010

ढूढने वे बहाने लगे

ढूँढने वे बहाने लगे
उन को हम याद आने लगे ||
कोयलें कूकने क्या लगीं
आम पर बौर आने लगे ||
बात जब भी सताने लगी
वायदे याद आने लगे ||
कच्चे धागे से बंधन थे जो
वो ही दिल को सताने लगे ||
कौन सुनता हमारी यहाँ
जख्म सब ही दिखने लगे ||
बात जब जब भी उन की हुई
जख्म फिर से सताने लगे ||
मन की दूरी कहाँ कम हुई
हम बनावट बढ़ाने लगे |

Monday, December 6, 2010

नव गीतिका

इस तरह तू हवा की वकालत न कर
देख , दुनिया की ऐसे अदावत न कर
आसमाँ से तेरी दोस्ती क्या हुई
सोच अपनों की ऐसे खिलाफत न कर
चाँद तारों की ऐसे खिलाफत न कर
धूप सूरज की ऐसे खिलाफत न कर
ठीक है तेरी दौलत की गिनती नही
क्या पता है समय का दिखावट न कर
हाथ में तेरे बेशक है ताकत सही
गैब से थोडा डर तू शरारत न कर
प्यार के बोल मीठे हैं अनमोल हैं
और इस के सिवा तू लिखावट न कर
जान ले तेरे प्रीतम की मूरत है क्या
छोड़ दे और चीजें इबादत न कर

Sunday, November 28, 2010

घोटाला महिमा

बेशर्मी की हद हो गई बेईमान सम्मानित हैं
करें देश की बात यदि जो वे होते अपमानित हैं
चुप्पी साधे ढोंग कर रहे हरीश चन्द्र बन जाने का
पोल खुल गई घोटालों की कोर्ट में ये प्रमाणित हैं

चोरी की है तो की ही है बोलो तुम क्या कर लोगे
जो भी लूटा पचा गए वो बोलो तुम क्या कर लोगे
चोरी और सीना जोरी की आदत यह पुरानी है
सत्ता पर काबिज हैं अब वो बोलो तुम क्या कर लोगे

घोटालों का लम्बा सा इतिहास तुम्ही से जुड़ा हुआ
चोर २ मौसेरों का है आपस में सम्बन्ध हुआ
तेल , खेल हो या तू जी हो ऐसे कितने घोटाले
इन सब का है इस शासन से सीधा सा सम्बन्ध हुआ

Monday, November 22, 2010

दिल्ली ....नही ,,,,मुन्नी ...दिल्ली बदनाम हुई

पहले बदनाम दिल्ली बदनाम हुई परन्तु लोगों नेशोर मचा दिया कि दिल्ली को ऐसे बदनाम नही होने देंगे क्योंकि उन्हें दिल्ली की बदनामी मंजूर नही थी |उन्हें यह अच्छा नही लगा कि दिल्ली बदनाम हो |इस लिए दिल्ली को बदनामी से बचाने के लिए बदनाम हो गई मुन्नी |मुन्नी ने दिल्ली की बदनामी अपने सिर पर ले ली |फिर क्या था मुन्नी की बदनामी जो मशहूर हुई बस पूछो मत देश का हर प्रान्त जिला नगर और गली मोहल्ले तक मुन्नी की बदनामी की धूम मच गई |
कहीं भी कोई छोटा मोटा सा कार्यक्रम भी आयोजित हो और भला मुन्नी की बदनामी न हो यह कैसे हो सकता है जैसे मन्त्रों के बिना हवन नही हो सकता ,दीपक के बिना आरती नही हो होती ,सूरज के बिना धूप नही होती चाँद के बिना चांदनी नही होती सर्दी के बिना बर्फ नही पडती पानी बिना झरने नही झरते और गुंडों के बिना झगड़े नही होते महिलाओं के बिना बातें नही होती नेताओं के बिना बदमाशी नही होती ऐसे ही भला मुन्नी की बदनामी को गए या बजाये बिना भला कोई कार्यक्रम कैसे सम्पन्न हो सकता है |
अब लोगों में मुन्नी की बदनामी की चरों ओर फ़ैल रही ख्याति से बड़ी ईर्ष्या या जलन होने लगी पर इस में ईर्ष्या की क्या बात हुई यह तो नसीब अपना अपना लोग धर्म क्रम करते २ बूढ़े हो २ कर मर भी जाते हैं जिन्दगी भर लगे रहते हैं कीर्तन कर २ के पड़ोसियों का जीना हराम कर देते हैं ,रात २ भर जागरण कर २ के सब की नींद उदय रहते हैं या देश सेवा में पूरा जीवन लगा देते हैं आदि २ तो भी उन्हें ऐसी मुन्नी की बदनामी जैसी ख्याति भला कहाँ मिल पाती है जो मुन्नी की बदनामी को मिली मिली क्या पूरे जहाँ में यह बदनामी खूब प्रख्यात व कुख्यात हो गई |
मुन्नी की बदनामी की ख्याति लोगों से देखी नही गई उन्हें उस से जलन होने लगी तो उन्होंने सोचा क्यों न उस की इस बदनामी को भुनाया जाये या इस ख्याति को अपने लिए कैसे इस्तेमाल किया जाये |इस लिए उन्होंने मुन्नी की बदनामी का सहारा ले कर फिर दिल्ली को बदनाम करने का बीड़ा उठाया और और उन्होंने इस के लिए मुन्नी की जगह फिर से दिल्ली शब्द लगा दिता और फिर वही पुराना राग बजाना शुरू कर दिया "दिल्ली बदनाम हुई कोंम्वेल्थ तेरे लिए "और दिल्ली की इस बदनामी को बिजली तरंग चालित त्वरित डाक सेवा यानि ईमेल यत्र तत्र सर्वत्र बड़ी सहजता पूर्वक प्रेषित कर दिया जिस के परिणाम स्वरूप फिर से मुन्नी की जगह दिल्ली बदनाम हो गई
पर इस में लोगों को कोई नई बात नजर नही आई जो मुन्नी की बदनामी में है क्योंकि बेचारी दिल्ली तो यूं ही समय पर बदनाम होती ही रही है उस की यह बदनामी आज से नही है अपितु प्राचीन युगों से है हर युग में हर काल में दिल्ली बदनाम हुई है दिल्ली को बदनाम करने के लिए सश्कों या राजनेताओं ने क्या नही किया चाहे मुसलमान आक्रान्ता हों चाहे विदेशी गोरे अंग्रेज या फिर उन के बाद के काले अंग्रेज किसी ने भी इस में कोई कोर कसर बाक़ी ही छोड़ी
जब विदेशी आक्रान्ता आये तो उन्होंने दिल्ली को खूब लूटा लूटा ही नही कत्ले आम तक खूब किया और यहाँ तक कि दिल्ली को दिल्ली भी नही रहने दिया कहीं और दूर दिल्ली बनाने की बहुत कोशिश की सब कुछ उजड़ गया कहते हैं जो चल नही स्क्लते थे उन्हें हठी के पैर से बंधवा दिया ताकि वे दूसरी जगह बनाई गई दिल्ली में जा कर बस जाएँ परन्तु डाल नही गल सकी क्योंकि दिल्ली तो दिल्ली ही थी भला दूसरी जगह दिल्ली कैसे बन जाती तो फिर उन्हें उलटे पैर वापिस दिल्ली ही लौटना पड़ा और दिल्ली को ही दिल्ली बनाना पड़ा परन्तु सबसे ज्यादा नुकसान उठाया बेचारी दिल्ली ने और भी सश्कों ने दिल्ली की मानवतावादी संस्कृति को नष्ट करने में कोई कसर नही छोड़ी उन्होंने मन्दिर तोड़े बल्कि यहाँ तक कि धर्म गुरूओं तक का शीश तक कटवा दिया सुंदर कन्याओं को मीणा बाजार के बहाने उठवा दिया जाता था यही नही ऐसे कितने ही घिनोने काम उन्होंने किये और उस के बाद मरने पर भी जगह २ जमीन में गढ़ कर जमीन घेर ली |
कुछ समय तक तो इन की खूब चली पर हमेशा सूरज सिर पर नही रहता शाम को डूबता ही है ऐसे ही इन का सूरज भी डूबा और अंग्रेज का सूरज उदय हो गया फिर उन्होंने दिल्ली को खूब बदनाम किया दिल्ली पर पूरा कब्जा कर लिया जसे गाँव का साहूकार कर्ज दे कर कर लेता है फिर उसे अपनी मिल्कीयत बना कर ऐश आराम शुरू कर देता है वैसे ही अंग्रेजों ने किया पर वे भी भूल गये कि भला बदनाम चीज भी आज तक किसी कि हुई है आखिर उन्हें भी जाना पड़ा सत्ता का ह्स्तान्त्र्ण हुआ वे अपने जैसों को दिल्ली सौंप कर यहाँ से आधी रात में ही खिसक गए
उन के बाद उन के उत्तराधिकारियों ने बाक़ी कसर पूरी करनी शुरू की जो अब तक जरी है पिछला इतिहास तो आप को पता ही होगा वैसे पता कोई नही रखता सब भूल जातें हैं आपात काल जैसी घटनाओं को तक को भी जब लोग भूल गए तो फिर इतिहास में तो बहुत पुराने मुर्दे गढ़े हुए हैं उन्हें कौन उखड़ेगा इतनी फुर्सत भला किस को है पर एक बात है कि लोग तजा २ मामलों को तो खूब चाट की तरह चटखारे ले ले कर मजे लेते हैं जैसे कोम्न्वेल्थ या और उस के बाद के नए २ घोटाले जिन पर खूब हो हल्ला हो रहा है अंदर भी बाहर भी क्योंकि ऐसी तजा २ चीजें तो कुछ दिन याद कर रख ही लेते हैं बाक़ी तो दिल्ली वालों को भूलने की पक्की बीमारी है प्याज तक पर तो जोश आया था पर जब सब चीजे ही मंहगी हो गई तो वे प्याज को भला क्यों याद रखते इसी लिए वे फिर दिल्ली कि बदनामी को भूल कर मुन्नी की बदनामी पर आगये जिस का जादू अपने देश में ही नही विदेश तक में सिर चढ़ कर बोल रहा है

Sunday, November 21, 2010

देहली के ब्लोगर सम्मेलन की रपट

देश की राजधानी और राजधानी के दिल कनाट प्लेस में आयोजोत अंतर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स सम्मेलन में बहुत ही सार्थक सम्वाद हुआ विदेशी धरती पर भारतीयत ,भारतीय भाषा व भारतीय सांस्कृतिक चेतना का तकनीकी माध्यमों द्वारा अलख जगा रहे भाई समीर लाल समीर ने अपने बीज व्यक्तव्य में विशेष रूप से उठाया कि ब्लोगर्स को सार्थक सम्वाद के महत्व को समझ कर आगे बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए और यह भी आवश्यक है कि बिना जड़ के उत्पन्न विवादों को ब्लोगर्स इतना महत्व दे देते हैं कि विवाद जिस के विषय में है उसे पता ही नही होता और पूरी दुनिया में धुंआ उठ जाता है जिस से सम्बन्ध है उसे मेल भेजा नही जाता अपितु अन्य लोगों को भेज कर विवाद खड़ा कर दिया जाता है जब सम्बन्धित व्यक्ति को भेज दिया जाये तो विवाद खड़ा ही न हो उस के बाद विवाद खड़ा हो जाता है लोग खेमे बाजी शुरू कर देते हैं उन्होंने कहा ब्लॉग जगत को इस से बचना चाहिए और हमे सार्थक सम्वाद पर जोर देना चाहिए उन का अपना सर्वाधिक देखा जाने वाला ब्लॉग उडन तश्तरी इस का सार्थक उदाहरन है
इस के अतिरिक्त उन का हर नये ब्लोगर को प्रोत्साहन देना उन के ब्लॉग पर टिपन्नी देना देना भी बड़ी बात है
समारोह में प्रख्यात पत्रकार बालेन्दु दधिची ने ब्लॉग तकनीक पर अपना शोध पत्र पड़ा उन्होंने अधिक से अधिक लोग ब्लॉग से कैसे जुड़े इस के विषय में भी विस्तार से बताया तथा अपनी इस से सम्बन्धित सुंदर व सार्थक रचना का पाठ भी किया
समारोह में विभिन्न स्थानों से आये ब्लोगर्स ने अपनी बात रखी एक दूसरे से परिचय हुआ अपने २ अनुभव सांझे किये भाई अविनाश वाचस्पति इस के सूत्रधार रहे वे ब्लोगर्स परिवार को समय २ पर एकत्रित करते ही रहते हैं ,साधुवाद

Wednesday, November 10, 2010

नव गीतिका

झूठ के आवरण सब बिखरते रहे
साँच की आंच से वे पिघलते रहे
खूब ऊँचें बनाये थे चाहे महल
नींव के बिन महल वे बिखरते रहे
हाथ आता कहाँ चंद उन को यहाँ
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे
ओस की बूँद ज्यों २ गिरी फूल पर
फूल खिलते रहे और महकते रहे
देख ली खूब दुनिया की रंगीनियाँ
रात ढलती रही दीप बुझते रहे
हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे
जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
नैन और नक्श उन के निखरते रहे

Thursday, November 4, 2010

दीपोत्सव की शुभकामनायें

प्रकाश पर्व ज्योतित करे हमारा मन हमारा घर हमारा राष्ट्र इस के साथ ही सभी मित्रों को ज्योति पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
आप को शुभकामनाओं के साथ काव्य की अपनी नई विधा त्रि पदी भी भेंट करने का मन है कृपया स्वीकार करें

मन दीप सजाया है
दीवाली आई है
खुशियों का उजाला है

मन दीपक हो जाये
अंधियारे दूर रहें
उजियारा हो जाये

दीपों का उत्सव है
तुम्हें खुशियाँ खूब मिलें
ऐसा मेरा मन है

मन दीपक हो जाये
खुशियों से भरे झोली
सब खुशियाँ मिल जाएँ
डॉ.वेद व्यथित
09868842688
email -dr.vedvyathit@gmail.com
http://sahityasrajakved.blogspot.com

Sunday, October 31, 2010

भीड़ के लोग

जलसा ,जूलूस या भीड़ के
आखरी छोर से नारा लगाने वाले
ढोते रहेंगे इसी तरह नारों को
वे करते रहेंगे जय २ कार इसी भांति
और इसी तरह धकियाते जाते रहेंगे
और खाते रहेंगे झिडकियां
तथा तुड़वाते रहेंगे
अपने हाथ पैर या सिर
औरों के लिए
क्योंकि वे बस भीड़ है या
भीड़ के लिए लाये गये लोग

Monday, October 25, 2010

रपट

हम कलम साहित्यिक संस्था (पंजी)द्वारा गुडगाँव में लघु कथा पर गोष्ठी का आयोजन किया गया जिस कि अध्यक्षता की प्रख्यात साहित्य कार डॉ.शेर जंग गर्ग ने गोष्ठी के प्रथम सत्र में लघु कथा के स्वरूप पर विचार विमर्श किया गया चर्चा प्रारम्भ करते हुए डॉ. नन्दलाल महता ने लघु कथा को संवेदना की तीव्र सम्प्रेश्नीयता बताया कुरुक्षेत्र से आये डॉ. ईश्वर चन्द्र गर्ग ने अपने पत्र में कहा कि लघु कथा ने अपनी साहित्यिक उपादेयता सिद्ध कर दी है इसी लिए लघुकथा को बाक्स में स्थान मिलता है लघु कथ का आधार समाज है और व्यंग उस का हथियार है चर्चा को आगे बढ़ाते हुए डॉ. संतोष गोयल ने लघु कथा को नाविक के तीर बताया व जीवन की सच्चाइयों से सीधा सम्वाद करती हुई रचना कहा भिवाड़ीसे आये डॉ. असीम शुक्ल ने कहा कि जिस तरह एक बाल्टी पानी में एक बूँद तेल डालने से उस में बहुत से रंग उत्पन्न हो जाते है उसी प्रकार लघु कथा एक साथ बहुत सारे रंग पैदा करती है अंग्रेजी साहित्यकार डॉ. केदार नाथ शर्मा ने इसे अंग्रेजी की शोर्ट स्टोरी की हिंदी में आगत विधा कहा डॉ.वेद व्यथित निशा भार्गव ने भी इस पर अपनर विचार रखे
दूसरे सत्र में लेखकों द्वारा लघु कथाओं का वचन किया गया इस में डॉ. वेद व्यथित ने लघु कथा पढ़ी आग और हवा , निशा भार्गव ने बचपन का गूंगा पन डॉ. ईश्वर गर्ग ने बुढ़ापा सुनीता शर्मा ने धूप छँव आभा कुलश्रेष्ठ ने रधिया क्यों डूबी रमेश पाठक ने लक्ष्मी का वाहन लघु कथा का पाठ किया
इस अवसर पर डॉ सुनीति रावत के लघु कथा संग्रह "तीर तरकश के " पुस्तक का लोकार्पण हुआ तथा डॉ. सुनीति रावत ने इस अवसर पर इस संग्रह से कुछ लघु कथाएं भी प्रस्तुत कीं
अंत में डॉ. शेरजंग गर्ग ने कहा कि लघु कथा में वस्तु तो है पर उस का विस्तार नही है वह सीधे प्रहार करती है सब के कहने पर उन्होंने तथा नरेंद्र लहद ने कुछ गजलें भी पढ़ीं

Friday, October 22, 2010

जीवन की बाजी

जीवन की बाजी को
जीतने का हर दाव
पता नही क्यों उलटा पड़ जाता है
और फिर बार २
कोशिश करते हैं
जीतने के लिए दाव फैंकने की
परन्तु पता नही
जिन्दगी कि बिसात में
ऐसा क्या जादू है
जो उल्टा कर देती है हर दाव को
बेशक -
हर दाव चलते हुए
लगता है जीता हुआ सा ही
परन्तु भ्रम होता है यह
और आखिर सब कुछ
हार बैठते हैं हम

Friday, October 15, 2010

प्यास

प्यास बहुत बलवती प्यास ने कितने ही सागर सोखे
प्यास नही बुझ सकी प्यास बुझने के हैं सारे धोखे
प्यास यदि बुझ गई तो समझो आग भी खुद बुझ जाएगी
प्यास को समझो आग ,आग ही रही प्यास को है रोके ||

प्यास बुझी तो सब कुछ अपने आप यहाँ बुझ आयेगा
यहाँ चमकती दुनिया में केवल अँधियारा छाएगा
इसीलिए मैंने अपनी इस प्यास को बुझने से रोका
प्यास बुझी तो दिल भी अपनी धडकन रोक न आयेगा

लगता है प्यासों को पानी पिला पिला कर क्या होगा
पानी पीने से प्यासे की प्यास का तो कुछ न होगा
प्यास कहाँ बुझ पाती है बेशक सारा सागर पी लो
सागर के पानी से प्यासी प्यास का तो कुछ न होगा

कितनी प्यास बुझा लोगे तुम बेशक कितने घट पी लो
कितनी प्यास और उभरेगी बेशक इसे और जी लो
जब तक प्यास को बिन पानी के प्यासा ही न मारोगे
तब तक प्यास कहाँ बुझ सकती बेशक तुम कुछ भी पी लो

Wednesday, October 6, 2010

मुक्तक

जिन्दगी छोटी बहुत लगती रही अक्सर मुझे
यह शिकायत ही हमेशा क्यों रही अक्सर मुझे
जिन्दगी छोटी कहाँ थी एक लम्बा वक्त थी
पर बहुत ही कम लगी ये जिन्दगी अक्सर मुझे

कोई आशा या निराशा ही चलती जिन्दगी
कल्पना का रथ लिए ही दौड़ती है जिन्दगी
चाल कब इस कहाँ पर ठहर जाये एक दम
यह कभी भी कब बताती है यहाँ पर जिन्दगी

जिन्दगी मेरी मुझी से जाने क्यों नाराज थी
मान जाती बात मेरी जो बहुत आसन थी
पर उसे उस के अहं ने सिर झुकाने न दिया
बात तो आसन थी पर जिन्दगी की बात थी

दूर से आवाज दी तो पास वो आई नही
जब गया नजदीक तो वो भाग कर आई नही
क्या पता किस सोच में यूं ही खड़ी है गुमसुम
जिन्दगी की ये नजाकत खुद उसे भाई नहीं

नाम कितने रख लिए तूने बता ओ जिन्दगी
रूप कितने धर लिए तूने बता ओ जिन्दगी
पर अधूरा सा रहा है जिन्दगी का कैनवस
रंग भर कर भी अधूरी क्यों रही है जिन्दगी

दूरियां मिट जाएँगी सब जिन्दगी की डोर से
नजदीकियां बन जाएँगी सब जिन्दगी की डोर से
डोर कच्ची है यदि तो बहुत पक्की जिन्दगी
जिन्दगी बंध जाएगी जब जिन्दगी की डोर से

जमाने की हवा को छूने चली है जिन्दगी
कुछ नये से बहाने गढने लगी है जिन्दगी
कुल मिला कर बस यही है जिन्दगी की दास्ताँ
और क्या इस से अधिक बाक़ी रही है जिन्दगी

जिन्दगी को देख लोगे तुम यदि नजदीक से
तब समझ आएगी तुम को जिन्दगी ये ठीक से
पर इसे तुम फैंसला मत मान लेना आखिरी
दूर रहती जिन्दगी है जिन्दगी की सीख से

जिन्दगी को छू लिया तो एक सिरहन सी हुई
आँख भर देखा तो उस में एक त्द्फं सी हुई
बस इसी के सहारे ये जिन्दगी चलती रही
और एक पल में इसी से जन्दगी पूरी हुई

एक दिल के लिए कितने दूसरे दिल तोडती
एक दिल के लिए अपने सिर से पत्थर तोडती
पर यदि टूटे यही दिल सोच कर देखो जरा
छोडती फिर जिन्दगी क्या सारे नाते तोडती

मुक्तक

जिन्दगी छोटी बहुत लगती रही अक्सर मुझे
यह शिकायत ही हमेशा क्यों रही अक्सर मुझे
जिन्दगी छोटी कहाँ थी एक लम्बा वक्त थी
पर बहुत ही कम लगी ये जिन्दगी अक्सर मुझे

कोई आशा या निराशा ही चलती जिन्दगी
कल्पना का रथ लिए ही दौड़ती है जिन्दगी
चाल कब इस कहाँ पर ठहर जाये एक दम
यह कभी भी कब बताती है यहाँ पर जिन्दगी

जिन्दगी मेरी मुझी से जाने क्यों नाराज थी
मान जाती बात मेरी जो बहुत आसन थी
पर उसे उस के अहं ने सिर झुकाने न दिया
बात तो आसन थी पर जिन्दगी की बात थी

दूर से आवाज दी तो पास वो आई नही
जब गया नजदीक तो वो भाग कर आई नही
क्या पता किस सोच में यूं ही खड़ी है गुमसुम
जिन्दगी की ये नजाकत खुद उसे भाई नहीं

नाम कितने रख लिए तूने बता ओ जिन्दगी
रूप कितने धर लिए तूने बता ओ जिन्दगी
पर अधूरा सा रहा है जिन्दगी का कैनवस
रंग भर कर भी अधूरी क्यों रही है जिन्दगी

दूरियां मिट जाएँगी सब जिन्दगी की डोर से
नजदीकियां बन जाएँगी सब जिन्दगी की डोर से
डोर कच्ची है यदि तो बहुत पक्की जिन्दगी
जिन्दगी बंध जाएगी जब जिन्दगी की डोर से

जमाने की हवा को छूने चली है जिन्दगी
कुछ नये से बहाने गढने लगी है जिन्दगी
कुल मिला कर बस यही है जिन्दगी की दास्ताँ
और क्या इस से अधिक बाक़ी रही है जिन्दगी

जिन्दगी को देख लोगे तुम यदि नजदीक से
तब समझ आएगी तुम को जिन्दगी ये ठीक से
पर इसे तुम फैंसला मत मान लेना आखिरी
दूर रहती जिन्दगी है जिन्दगी की सीख से

जिन्दगी को छू लिया तो एक सिरहन सी हुई
आँख भर देखा तो उस में एक त्द्फं सी हुई
बस इसी के सहारे ये जिन्दगी चलती रही
और एक पल में इसी से जन्दगी पूरी हुई

एक दिल के लिए कितने दूसरे दिल तोडती
एक दिल के लिए अपने सिर से पत्थर तोडती
पर यदि टूटे यही दिल सोच कर देखो जरा
छोडती फिर जिन्दगी क्या सारे नाते तोडती

Saturday, October 2, 2010

बड़ी भूख

बड़ी भूख

बहुत भूखी होती है भूख
भूख से तो बहुत बड़ी भी
और डरावनी भी |
भूख जैसी हो कर भी a
कहाँ तृप्ति होती है उस की
बहुत कुछ निगल कर भी
निरंतर जलने वाली आग की तरह
जो बिना धुएं के
जलती है निरंतर
और जला कर
बनती है राख ही नही बर्फ भी
बर्फ भी ऐसी कठोर कि
पिघलती ही नही है जो
अनेकों ताप और शाप सह कर भी
अपितु बढती जाती है निरंतर
आखिर रोकना तो पड़ेगा ही इसे
बर्फ या राख बनने से पहले

Friday, October 1, 2010

टूटे सपने

टूटे हुए सपनों को
आखिर कब तक कोशिश करोगे
जोड़ने की
मान क्योंन्ही लेते कि
स्वप्न ही तो थे वे
जो टूट गये ,
टूट कर बिखर गये
कांच के टुकड़ों की भांति
जिन्हें समेटने में भी
लहुलुहान हो जायेंगे हाथ
इसी लिए सावधानी रखना
उन्हें फैकने में भी
और भूल जाना बाहर फैंक कर
बेशक याद आये उन की चमक
उन की रंगीनियाँ या उन का आकर्षण
पर टूट कर बिखर ही गया जब सब कुछ
तो जरूरी है उन्हें भूलना
लहुलुहान होने से बचने के लिए
हृदय को आघात से
बचाए रखने के लिए

Sunday, September 26, 2010

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा

कभी कभी बहत मुश्किल हो जाता है
सूरज का निकलना
यानि सुबह का होना
या दिन का निकलना
तब रात लम्बी ही इतनी लगने लगती है
घड़ी की सुइयां
जैसे बढती ही नही है आगे
तब और झुंझलाहट सी होने लगती है
घड़ी पर रात पर और नींद पर
परन्तु वास्तविक झुंझलाहट तो
अपने मन पर होती है
मन में उठ रहे उफानो पर होती है
ओ खत्म ही नही होते हैं
एक के बाद एक
जारी रहता है जिनका क्रम
जिन से उचाट हो जाती है नींद
तब और बढ़ जाता है अँधेरा
सूरज निकलने की प्रतीक्षा में
कि कब निकलेगा सूरज
कब होगा सुप्रभात
कब खिलेंगे कमल

Friday, September 24, 2010

बरसती नदी

बरसती नदी तो
उफन ही गई थी
यौवन की ,रूप की और रस की
चार बूँद भर प् कर
और तुम होती गयीं कुछ
अधिक शर्मीली
अधिक संकोची और अधिक सौम्य भी
अपने यौवन के वसंत से रूप के निखर से
उस की सिंग्धता से
और इन सब के महत्व से
कितना अंतर था
तुम में और
उस ओछी सी
उफनती नदी में

Monday, September 13, 2010

रपट




साहित्यिक रपट
हम कलम साहित्यिक संस्था (पंजी )की पावस ऋतू पर काव्य गोष्ठी गुडगाँव में आयोजित की गई| गोष्ठी में हिंदी साहित्य जगत के सशक्त
हस्ताक्षरों की सहभागिता रही जिन में प्रमुखत: व्यंग्य विधा व हिंदी गजल के स्वनाम धन्य रचनाकार डॉ. शेरजंग गर्ग ,प्रख्यात उपन्यास कार द्रोण वीर कोहली सुप्रसिद्ध लेखिका चन्द्र कांता कथा विदूषी डॉ. संतोष गोयल नव गीतिका रचनाकार व लेखक डॉ. वेद व्यथित कथा लेखिका व कवयित्री डॉ.सुनीति रावत अंगेजी भाषा के प्रसिद्ध साहित्य कार डॉ. केदार नाथ शर्मा व डॉ. सुदर्शन शर्मा डॉ. नलिनी भार्गव डॉ.विद्या शर्मा श्रीमती सुनीता शर्मा एवं श्री मती रूपम आदि ने पावस पर अपनी कविताएँ प्रस्तुत कीं
गोष्ठी का सफल संचालन किया डॉ. संतोष गोयल ने आगामी गोष्ठी सितम्बर के अंत में करना निश्चित हुआ है

Thursday, September 9, 2010

आस्था व विश्वाश

नही वह देवता नही था
उस के ऊपर
एक कृत्रिम आवरण मात्र था
देवत्व का
परन्तु तुम ने मान लिया था
उसे देवता
और पूजती रहीं सब तरह उस को
एक विश्वाश लिए ,आस्था लिए
परन्तु उस का देवत्व
उतरता रहा धीरे धीरे
पर तुम ने नही छोड़ा आस्था व विश्वाश
परन्तु फिर भी मैं
अंतिम परिणति जानने की
हिम्मत नही जुटा सका
तुम से कुछ पूछने की
क्योंकि
तुम्हार विश्वाश और आस्था तो
अटल थी
और मैं
यह भी जनता था कि
देवत्व का आवरण
कितने दिन रहा होगा उस पर
बस मैं भी चुप हो गया
और प्रार्थना मैं लग गया कि
तुम्हारी आस्था व विश्वाश पूर्ण हों |

Tuesday, September 7, 2010

मेरी अनुकूलताएँ

हमेशा अनुकूलताओं के ही लिए ही
आग्रह था मेरा
जैसा मुझे अच्छा लगे
उसे ही उचित समझना
कौन सा न्याय था मेरा
परन्तु फिर भी तुम
हिम खंड सी गलती रहीं
मेरी अनुकूलताओं के लिए
उस के प्रवाह को बनाये रखने के लिए
|तुम कठोर चट्टान क्यों नही हुईं
मेरी इन व्यर्थ अनुकूलताओं को
रोकने के लिए
जो बर्बरता से अधिक
कुछ भी न थीं
शायद तुम्हें पता भी था कि
कहाँ है मुझ में इतना साहस
जो चट्टान से टकराता
या तो वापिस मुड जाता या
झील बन कर वहीं ठहर जाता
जो दोनों ही सम्भवत:
पसंद नही थे तुम्हे
परन्तु कोई तो रास्ता
निकलना चाहिए था
उस हिम खंड को गलाने के बजाय भी
ताकि बचा रहता तुम्हारा
रूपहला अस्तित्व और मेरी अनुकूलताएँ |

Monday, September 6, 2010

मन और वाणी की दूरी

यह कतई जरूरी नही है
कि मेरे विषय में
तुम जो सोच रहे हो
वही मुझ से कह भी रहे हो
या जो कह रहे हो
वैसा ही मेरे विषय में मानते भी हो
या जो मानते हो
वह शायद नही कह पा रहे हो
सम्भवत: अपनी शिष्टता के नाते ,
अपनी सहृदयता के नाते या
अपनी चतुरता के नाते या
पता नही ऐसे ही किसी अन्य कारण से
क्योंकि और भी कई कारण हो सकते हैं
तुम्हारे मन और वाणी के
मध्य की दूरी के
और इन दोनों के मध्य
मैं कहाँ हूँ
यह पता कहाँ लगता है
तुम्हारे इन औपचारिक शब्दों से ||

nivedn

अपने निकटम ब्लोगर मित्रों से मेरा निवेदन है कि वे कृपा कर के
sakhikabira.blogspot.com पर भाई सुभाष राय द्वारा प्रकाशित मेरी नव गीतिकाएं पढ़ कर अनुग्रहित करें व अपने मत से अवगत करवाएं
हार्दिक आभार

नव गीतिका

ओस की बूंदों में भीगे हैं पत्ते कलियाँ फूल सभी
प्यार से छीटें मार गया हो जैसे कोई अभी अभी
अलसाये से नयन अभी भी ख्वाबों में खोये से हैं
बेशक आँख खुली है फिर भी टूटा कब है ख्वाब अभी
दिन कितने अच्छे होते थे रातें खूब सुहानी थीं
जैसे दूर गगन में गुजरी हंसों की सी पांत अभी
कितनी सारी बातें बरगद की छाया में होती थीं
उन में शायद ही होंगी तुम को कोई याद अभी
खेल खेलते खूब रूठना तुम को जल्दी आता था
फिर कैसे मैं तुम्हे मनाता क्या ये भी है याद अभी
कैसे भूलूँ वे सब बातें बहुत बहुत कोशिश की है
पर मुझ को वे कहाँ भूलतीं सब की सब हैं याद अभी

Saturday, September 4, 2010

नव गीतिका

किसी घायल परिंदे को नजर अंदाज मत करना
किसी की जिन्दगी से इस तरह खिलवाड़ मत करना |
कहीं कोई तुम्हें गम जिन्दगी का खुद सुनाये तो
जरा दिल से उसे सुनना ,कभी इंकार मत करना |
तुम्हें चाहे कोई देना कभी दो आँख के आँसू
उन्हें लेना वो स्वाति बूँद हैं इंकार मत करना |
कोई प्यासा कभी दो बूँद पानी मांग ले तुम से
उसे जी भर पला देना कभी इंकार मत करना
जहाँ भी शाम हो जाये यदि दे आसरा कोई
उसे स्वीकार कर लेना कभी इंकार मत करना ||

Sunday, August 29, 2010

खेलों का समय नजदीक आ गया है लोग कह रहे हैं कि नक् जरूर कटेगी अय्यर साहब तो इस के लिए बाकायदा दुआ मांग रहे हैं इस पर मेरे कुछ मुक्तक प्रस्तुत हैं :-

खेलों में जो नाक कटेगी अब वो नाक बची ही कब है
नाक तो रोज रोज कटती है मंहगाई बढ़ जाती जब है
और नाक क्या तब न कटती आतंकी हमला होता जब
फिर भी नाक २ चिल्ला कर क्या यह नाक बचेगी अब है

केंद्र और सी बी आई

अपराधी को हीरो साबित करना कैसी मजबूरी है
उस के ही तो लिए देश की पूरी ख़ुफ़िया एजेंसी है
वैसे न तो ऐसे ही हम तुम से बदला ले ही लेंगे
सत्ता के भूखे स्यारों की ये नीयत कितनी खोटी है

मंहगाई पर

मंहगाई तो यार देश की उन्नति का ही पैमाना है
सरकारी इन अर्थ शास्त्रियों ने इसी बात को तो माना है
भूखे नंगे भीख म्न्गों को सस्ते कार्ड बनाये तो हैं
पर केवल वे ही भूखे हैं जिनको सरकारी माना है

जातिवादी जहर

जातिवाद पर फख्र करो अब ही तो अवसर आया है
संसद से सडकों तक इस का ही तो डंका बजवाया है
इसी लिए जाति गत गणना से अपनी बन आएगी
इस से ही तो सत्ता पाने का अवसर अब आया है

किसान आन्दोलन के पक्ष में

ये धरती का चीर हरन है अधिग्रहण या कुछ कह लो
माँ के सीने में खंजर है चाहे इस को कुछ कह लो
माँ की छाती से ही शिशु को यदि अलग कर दोगे तो
ये तो उस हत्या ही है चाहे इस को कुछ कह लो

उस की रोटी छीन रहे जो सब को रोटी देता है
ये उस की हत्या की सजिश सब को जो जीवन देता
यदि कृषक से उस की भूमि ही हथिया ली जाएगी
तो सुन लो ए देश वासियों जल्द गुलामी आएगी

माँ की कीमत क्या पैसों से कहीं चुकाई जा सकती
धरती तो किसान की माँ है क्या बिकवाई जा सकती
यदि यह नौबत आई तो ये किसान की हत्या है
बेटे की हत्या से माँ क्या खुश रखवाई जा सकती

Thursday, August 26, 2010

स्वार्थी नेताओं के कारनामे

नया शिफूगा छोड़ 2 कर कितनाध्यान हटाओगे
बिना पैर कि झूटी बातें कितनी और चलाओगे
जिस दिन हिन्दू आतंकी हो जायेगा तो ये सुन लो
उस दुश्मन का दुनिया में नाम ढूंढ न पाओगे

सहने की भी हद होती है रेत के महल बनाओ मत
गली तो दे रहे हमें झूठा इल्जाम लगाओ मत
हिन्दू आतंकी होता तो शीश नही कटवा लेता
छोटे छोटे बच्चों को दीवार में न चुनवा लेता

इतनी नर बलियां ले कर भी प्यास तुम्हारी बुझी नही
पूर्वजों को गाली देते कहाँ तुम्हारी शर्म गई
हिन्दू आतंकी कब हैं चींटीका शोक मनाते हैं
इतने पर भी कोष रहे हो कहाँ तुम्हारी शर्म गई

सगे तुम्हारे आतंकी हैं हिन्दू तो दुश्मन ही हैं
क्योंकि सत्ता तुम्हे सौंप कर गाली तो खानी ही है
पर तुम ने तो इसी बात को बहुत बड़ी खूबी समझा
पर होती है जहाँ धूप फिर छाया तो आनी ही है

कब तक यूं ही अपमानों को झेल झेल कर जिओगे
इन कडवे घूंटों को यूं ही ऐसे कब तक पिओगे
आखिर तो मरना है इक दिन उत्तर तो देना होगा
जो बदनाम केगा हम को सबक उसे देना होगा

भारत माता ये कपूत क्या कोख तेरी से जन्मे हैं
लगता है दुश्मन के झूठे टुकड़ों पर ये पनपे हैं
पर इन खरपतवारों को जल्दी नष्ट अभी करना होगा
वरना समय बीत जायेगा और हाथ मलना होगा

आतंकी तो हैं ही दुश्मन तुम भी हम को दो गाली
सत्ता की ऐसी क्या मस्ती जो अपनों को दें गाली
कुर्सी की चर्बी छाई है नही दिखती सच्चाई
करने को बदनाम यहाँ बस हिन्दू कौम एक पाई

जो कट्टर हैं उन को तुम कट्टर भी कब हैं सकते
पर हिन्दू के लिए छूट है उन को गाली दे सकते
क्योंकि आतंकी तो तुम को खुली चुनौती देते हैं
उन का तो तुम एक बाल भी बांका ही न कर सकते

Tuesday, August 24, 2010

देश के वर्तमान हालात

रोज रोज शाजिश होती है यहाँ देश के साथ
लगता है वो मिले हुए हैं गद्दारों के साथ
इसी लिए उन की ही भाषा बोल रहे हैं उल्लू
गठ्बन्धन हो चुका है उन का आतंकी के साथ

देश के टुकड़े करने की ये मांग रहे आजादी
जितनी मिलती छूट और करते दुगनी बर्बादी
फिर भी बिके हुए ये नेता उन के गुण गाते हैं
बेशक हमला करें और वे पत्थर बरसाते हैं

जैसे भी हो दिल्ली की सत्ता पर काबिज रहना
बेशक करना पड़े किसी भी दुश्मन से समझौता
पर कुर्सी पर आंच नही कैसे भी आने पाए
देश लूटे लुट जाये उन्हें क्या इस से लेना देना

यदि देश के लिए कोई भी अच्छा काम करेगा
अमित शाह की तरह जेल में पानी खूब भरेगा
क्योंकि आतंकी को उस ने कहते हैं मरवाया
गद्दारों ने आतंकी हित इतना शोर मचाया

सब को है ये पता किइशरत आतंकी लौंडी थी
सब को पता चली है उस कीकहाँ बंधी डोरी थी
पर उस के मरने पर भी ये हंगामा करते हैं
लगता है इन की भी माँ तो उन के संग सोई थी

आतंकी चाहे कैसा हो ये उस के गुण गएँ
करें देश पर भी हमला वो फिर भी भले कहाएँ
बेशक आतंकी हो या फिर अंदर वर्ल्ड सरगना
कौशिश ये करते हैं उन्हें आंच न कोई आये

नव गीतिका

ओस की बूंदों में भीगे हैं पत्ते कलियाँ फूल सभी
प्यार से छींटे मार गया है जैसे कोई अभी अभी
अलसाये से नयन अभी भी ख्वाबों में खोये से हैं
बेशक आँख खुली है फिर भी टूटा कब है ख्वाब अभी
दिन कितने अच्छे होते थे रातें खूब उजाली थीं
पर लगता है जैसे गुजरी हंसों की सी पांत अभी
कितनी सारी बातें बरगद की छाया में होतीं थीं
उन में शायद ही होंगी तुम को कोई याद अभी
खेल खेलते खूब रूठना तुम को जल्दी आता था
फिर कैसे मैं तुम्हे मनाता क्या ये भी है याद अभी
कैसे भूलूँ वे सब बातें बहुत बहुत कौशिश की है
पर मुझ को वे कहाँ भूलतीं सब की सब हैं याद अभी

Saturday, August 21, 2010

नव गीतिका

सुखद अनुभूतियों के क्षण बहुत थोड़े से होते हैं
बहुत तपती है जब धरती जलद दो चार होते हैं
बहुत कुछ सोचता है मन बहुत ऊँचा सा उड़ता है
परन्तु पांव में छाले व दिल में घाव होते हैं
घनी छाया जिन्हों की है बहुत जो फूलते फलते
उन्ही वृक्षों की शाखों पर कुठारा घात होते हैं
किन्ही भीं झंझटों से दूर रहना चाहते हैं जो
उन्ही की जान को हर दिन नये जंजाल होते हैं
जिन्होंने शीश दे कर भी कभी उफ़ तक नही की है
वही तो देशभक्ति की सही पहचान होते हैं
कभी जिन की बुलंदी आसमाँसे बात करती थी
उन्ही के खंडहर भी तो बहुत वीरान होते हैं
बिना कुछ चाहके कोई यदि अपना सा मिल जाये
कभी मिलते तो हैं ऐसे वह अपवाद होते हैं
इन्होने कर लिया हांसिल मुकुट पहचान उन की है
उन्ही के इस जमाने में बहुत गुण गन होते हैं
ये माना नेक नियत का ही रस्ता ठीक होता है
परन्तु इसी रस्ते पर बहुत नुकसान होते हैं
जिन्हें पैरों के नीचे रौंद कर उपर से जाते हो
हवा मिल जाये जब उन को वही बलवान होते हैं
जिन्होंकी अपनी कोई भी जुबां होती नही ही है
उन्हों के भी बहुत दिल में दबे अरमान होते हैं
जिन्हों की सिसकियों में जोर से आवाज न निकले
तुम्हे बेशक नही सुनती उसी में राम होते हैं
जिन्हें तुम पत्थरों सा जान कर ठोकर लगाते हो
उसी रस्ते के पत्थर में बसे भगवान होते हैं
कई गम हैं यहाँ ऐसे भी जो मुश्किल से ही मिलते हैं
बहुत से ऐसे ही गम तो व्यथित के पास होते हैं

Wednesday, August 18, 2010

जब हुए चर्चे तभी पहचान उन की हो सकी
वरना उन को इस शहर में जनता ही कौन था
चोट खा दुनिया से उन का मन भी हल्का हो गया
वरना मन के बोझ को पहचानता ही कौन था
हाथ सब ने ही उठाये थे समर्थन के लिए
सच जो कहता खड़ा हो शख्श ऐसा कौन था
सब तरफ बस एक ही चर्चा रही इस शहर में
कर दिया बदनाम मुझ को दोस्त ऐसा कौन था
नाम क्यों लेता किसी का जब हुआ बदनाम मैं
थी पता मुझ यह साजिश में शामिल कौन था
बढ़ रही थी भीड़ बिन सोचे उसे जाना कहाँ
रोकता जो भीड़ को वो शख्श ऐसा कौन था
आग को पी कर भी वो जिन्दा रहा दरसाल दर
एक मैं हूँ दूसरा तुम ही बताओ कौन था
बिन बताये नाम मेरा लिख दिया उस बुत पर
पर समझ आया नही वो लिखने वाला कौन था
इस शहर में हादसे का वक्त तुम से क्या कहूं
हादसा जब न हुआ हों वक्त ऐसा कौन था
दोस्त था दुश्मन था इस का फैसला कैसे करूं
दे गया जो फूल मेरे हाथ में वो कौन था
दोस्त था दुश्मन था इस का फैसला कैसे करूं
दे गया जो दाद मेरे शेर पर वो कौन था
याद मुझ को कहाँ थी मेरे जन्म दिन की तिथि
दे गया मुझ को बधाई शख्श ऐसा कौन था

Saturday, August 14, 2010

वन्दे मातरम

साल तरेसठ बीत गये हैं अब भी भ्रम में जीते हैं
कहने को आजाद हुए हैं मन ही मन खुश होते हैं
पर आजादी मिली कहाँ है सत्ता का हस्तान्तर है
बेशक खुश हो कर कहते हम आजादी में जीते हैं

पहले पाकिस्तान बनाया फिर सारी तिब्बत दे दी
दे उन को कश्मीर का हिस्सा सारी ही इज्जत दे दी
फिर समझौता कर शिमला में स्वाभिमान भी दे डाला
लगता है इस कांग्रेस ने फिर से वही आग दे दी

Wednesday, August 11, 2010

नव गीतिका

बेशक तूने दुनिया देखी
पर पहले खुद को तो देख
क्या रखा है उन महलों में
पहले अपने घर को देख
देख इया होगा जग सारा
पर अपनी दुनिया तो देख
क्या बतलाऊँ तुझ को रे मन
सब कुछ अपने अंदर देख
कितनी दूर देख पायेगा
केवल अपनी जद में देख
कितना ऊँचा उड़ पायेगा
पहले इन पंखों को देख
करने को कुछ भी तू कर ले
पर करने से पहले देख
क्या २ मैंने शं कर लिया
मेरे इन जख्मों को देख
ये बातें तो ठीक नही हैं
देख रही है दुनिया देख
क्या कहना है तुम को उन से
पहले अपने दिल में देख
पैर बढ़ाना तब आगे को
पहले अपनी चादर देख
बड़ी बात कहने से पहले
नीला अम्बर सिर पर देख
यों तो कुछ भी खले बेशक
पर उस का मतलब तो देख
व्यथा तो दुनिया देती ही है
व्यथित यहाँ पर ये मत देख

Thursday, August 5, 2010

देश कीवर्तमान व्यवस्था पर कुछ मुक्तक

पत्थर बजी करें सडक पर और पुलिस को पीट रहे
जिस में खाते छेड़ उसी में करें देश को लूट रहे
फिर भी मौन साध कर चुप हो देख रहे हैं नेता
कैसी बेशर्मी क्या ऐसे भाग्य हमारे फूटे

berujgari ka hl क्या ye ptthar बाज़ीhota
kitna paisa मिला केंद्र से उस का क्या २ होता
मांगे कौन हिसाब देश के कैसे दुर्दिन आये
जितना मुंह में भरें रात दिन और भी छोड़ा होता

आखिर कब तक इसी तरह इज्जत लुटवाई जाएगी
बेरहमी से सम्म्पति कब तक जलवाई जाएगी
कोई तो सीमा होगी ये ऐसे कब तक होगा
गद्दी पर बैठे गद्दारों कभी शर्म क्या आएगी

क्यों न करते सख्त एक्शन ऐसी क्या मजबूरी
इज्जत लूट रहे आतंकी उन कि मर्जी चलती
हाथ पे हाथ धरे रहने से क्या वे राजी होंगे
सख्ती से शासन चलता है बात न ऐसे बनती

कश्मीर में कुछ कहते हैं दिल्ली जबां दूसरी
इसी दोहरे पन की आदत इन की कहाँ छूटती
ऐसी २ मक्कारी से बज नही ये आते
कैसी मक्कारी करते है क्यों न हमे दीखती

कुछ न ठेका लिया देश में हिन्दू को मितावाएंगे
बीके मिडिया कर्मी मिल कर कोर्स में ये गायेंगे
रोजी रोटी है इन की ये यही एक चिंता है
अपनी माँभी गली दे खुद ही खुश हो जायेंगे

बाहर आँख दिखा कर ये फिर चरणों में गिर जाते
जा कर मैडम के चरणों में बकरी से मिमियाते
अभी दान के लिए तरीके इन को सारे आते
सत्ता की खतिर ये गुंडे हिजड़े से बन जाते

शायद भारत के कर्मोंका भग्य विधाता रूठ गया
लगता है उन्नति का सूरज यहाँ अचानक डूब गया
गुंडा गर्दी लूट डकैती ये सब की सब आम हुई
कहाँ देश में अब शाशन है गुंडा शासन खूब हुआ

Wednesday, August 4, 2010

नव गीतिका

तुम्हारी याद में मैंने बहुत आंसू लुटाये हैं
वही मोती बने हैं रात भर वो जगमगाते हैं
तुम्ही ने जो कहे दो बोल मीठे प्यार के मुझ से
ये पक्षी चाव से उन को ही हर पल गुनगुनाते हैं
तुम्हे मेरा पता है जानते हो हाल तुम सारा
पपीहा बादलों कोही उसे गा कर सुनते हैं
तुम्हारी गंध चन्दन सी हमेशा पास रहती है
उसे दिल में बसा कर फूल दुनिया में लुटाते हैं
जहाँ से तुम गुजरते हो धूल अनमोल हो जाती
उसे चन्दन समझ कर लोग माथे पर लगाते हैं
तुम्हारे नेह की वरिश यह अमृत की बूँदें हैं
इन्ही बूंदों से अपनी प्यास सब चातक बुझाते हैं
तुम्हे कैसे लगा ये हिम शिखिर इतने निठुर होंगे
यही तो नेह के मीठी बहुत नदियाँ बहाते हैं
बहुत जो दूर से आते भरोसा क्या करें उन का
वे पाखी कुछ समय के बाद वापिस लौट जाते हैं
अँधेरा कब अच्छा उदासी ही वह देता
सुभ सूरज निकलता है कमल सब खिलखिलाते हैं
कभी देखा सुना न आज तक ऐसा किया क्या है
व्यथित की बात क्या ऐसी जिसे सब को बताते हैं

Wednesday, July 28, 2010

खेलों का समय नजदीक आ गया है लोग कह रहे हैं कि नक् जरूर कटेगी अय्यर साहब तो इस के लिए बाकायदा दुआ मांग रहे हैं इस पर मेरे कुछ मुक्तक प्रस्तुत हैं :-
खेलों में जो नाक कटेगी अब वो नाक बची ही कब है
नाक तो रोज रोज कटती है मंहगाई बढ़ जाती जब है
और नाक क्या तब न कटती आतंकी हमला होता जब
फिर भी नाक २ चिल्ला कर क्या यह नाक बचेगी अब है

केंद्र और सी बी आई

अपराधी को हीरो साबित करना कैसी मजबूरी है
उस के ही तो लिए देश की पूरी ख़ुफ़िया एजेंसी है
वैसे न तो ऐसे ही हम तुम से बदला ले ही लेंगे
सत्ता के भूखे स्यारों की ये नीयत कितनी खोटी है

मंहगाई पर

मंहगाई तो यार देश की उन्नति का ही पैमाना है
सरकारी इन अर्थ शास्त्रियों ने इसी बात को तो माना है
भूखे नंगे भीख म्न्गों को सस्ते कार्ड बनाये तो हैं
पर केवल वे ही भूखे हैं जिनको सरकारी माना है

जातिवादी जहर

जातिवाद पर फख्र करो अब ही तो अवसर आया है
संसद से सडकों तक इस का ही तो डंका बजवाया है
इसी लिए जाति गत गणना से अपनी बन आएगी
इस से ही तो सत्ता पाने का अवसर अब आया है
डॉ. वेद व्यथित

Saturday, July 24, 2010

नव गीतिका

बहुत तन्हाईयाँ मुझ को भी तो अच्छी नही लगती
परन्तु क्या करूं मुझ को यही जीना सिखाती हैं
बहुत तन्हाइयों के दिन भुलाये भूलते कब हैं
वह तो खास दिन थे जिन्हों की याद आती है
यही तन्हाईयाँ तो आजकल मेरा सहारा हैं
सफर में जब भी चलता हूँ हई तो साथ जाती हैं
उन्होंने भूल कर के भी कभी आ कर नही पूछा
यह तन्हाईयाँ ही हाल मेरा पूछ जाती हैं
बहुत अच्छी हैं ये तन्हाईयाँ कैसे बुरा कह दूं
इन्ही तन्हाइयों में तुम्हारी याद आती है
यह तन्हाईयाँ मुझ से कभी भी दूर न जाएँ
इन्ही के सहारे मेरी भी किस्ती पार जाती है
इन्ही तन्हाइयों ने मुझ को बेपर्दा किया यूं है
बताता कुछ नही फिर भी पता सब चल ही जाती है
मोहब्बत मांग ली थी कुछ सुकून के वास्ते मैंने
उसी के साथ में तन्हाईयाँ खुद मिल ही जाती हैं
बहुत कीमत है इन तन्हाईयों की खर्च न करना
तिजोरी दिल को तो इन से हमेशा भरी जाती है


हमारे नाम के चर्चे जहाँ पर भी हुए होंगे
वहाँ पर खूब आंधी और तूफान भी हुए होंगे
तुम्हे कैसे कहूँ मैं मोम भी पाषाण होता है
इन्ही बातों से लोगों के जहन भी हिल गये होंगे
खबर है क्या तुम्हे वोप भूख को उपवास कहता है
खबर होती तो सिंघासन तुम्हारे हिल गये होंगे
महज अख़बार की कालिख बने हैं और वे क्या हैं
फखत शब्दों से कैसे पेट जनता के भरे होंगे
तुम्हारे चंद जुमले तैरते फिरते हवा में हैं
उन्हें कुछ पालतू मन्त्रों की भांति रट रहे होंगे
तुम्ही ने नाम करने को ही उस में बद मिलाया है
उसी खातिर ये ऐसे कारनामे खुद किये होंगे
उन्हें मैंने कहा कि आप भी मुख से जरा बोलेन
उसी से छल कपट के भेद सरे खुल रहे होंगे
यदि इन कारनामों को ही तुम सेवा बताते हो
तो निश्चित अर्थ सेवा के तुम्ही से गिर गये होंगे

Friday, June 18, 2010

मित्रों का आभारी हूँ
जिन्होंने मेरी नव गीतिका को स्नेह दिया खास कर उन मित्रों का जिन्होंने अपनी नेहटिप्पणियों से मेरा उत्साह वर्धन किया है इनमे बहन फिरदौस ,वन्दना जी ,म,वर्मा जी बेर अनुज सुलभ व सभी अन्य मित्र
इसी नेह के कारण एक और नव गीतिका आप के सामने रखने कि हिम्मत कर रहा हूँ
"नव गीतिका
तुम्हारे गीत पैने है ये दिल के पार जाते हैं
तुम्हारे आँख के मोती बहुत दिल को दुखाते हैं
सुहाने बादलों कीबात क्यों उन को सुहाएगी
सुरीली तान सुन कर गम बहुत से याद आते हैं
तुम्हारा ही दिया है घाव ये भरता नही है जो
तुम्हारे बोल मीठे हैं वह नश्तर चुभाते हैं
नही भटके हवा मैं मान लूं कैसे यह होगा
बहुत से रास्ते के मोड़ जब उस को सताते हैं
हवा भी चाहती ठहराव तो उस का कहीं पर हो
कहाँ ठहरे समय के जब बढ़े ही पांव जाते हैं
कहीं गया तो होगा गीत जब तुम ने कहीं कोई
उसी के बोल ही आ कर यहाँ मुझ को सताते हैं
पुन:बौरा गये हैं आम तुम ने तन छेड़ी है
पपीहा और कोयल भी उसे ही रोज गाते हैं
तुम्हे कैसे बताऊँ प्रश्न जो मन में मेरे आते
वही क्या प्रश्न शायद रोज तुम को भी सताते हैं
तुम्हीने भूल कर के भी वह बाते नही छोड़ी
किजिन से जिन्दगी के गम हमेशा दूर जाते है
व्यथा कि क्या कहूँ मुझ को यह मीठी बहुत लगती
मुझे मरे सभी अपने तभी तो याद आते हैं
- -
मित्रों का आभारी हूँ
जिन्होंने मेरी नव गीतिका को स्नेह दिया खास कर उन मित्रों का जिन्होंने अपनी नेहटिप्पणियों से मेरा उत्साह वर्धन किया है इनमे बहन फिरदौस ,वन्दना जी ,म .वर्मा जी अनुज सुलभ व सभी अन्य मित्र
इसी नेह के कारण एक और नव गीतिका आप के सामने रखने कि हिम्मत कर रहा हूँ
"नव गीतिका
तुम्हारे गीत पैने है ये दिल के पार जाते हैं
तुम्हारे आँख के मोती बहुत दिल को दुखाते हैं
सुहाने बादलों कीबात क्यों उन को सुहाएगी
सुरीली तान सुन कर गम बहुत से याद आते हैं
तुम्हारा ही दिया है घाव ये भरता नही है जो
तुम्हारे बोल मीठे हैं वह नश्तर चुभाते हैं
नही भटके हवा मैं मान लूं कैसे यह होगा
बहुत से रास्ते के मोड़ जब उस को सताते हैं
हवा भी चाहती ठहराव तो उस का कहीं पर हो
कहाँ ठहरे समय के जब बढ़े ही पांव जाते हैं
कहीं गया तो होगा गीत जब तुम ने कहीं कोई
उसी के बोल ही आ कर यहाँ मुझ को सताते हैं
पुन:बौरा गये हैं आम तुम ने तन छेड़ी है
पपीहा और कोयल भी उसे ही रोज गाते हैं
तुम्हे कैसे बताऊँ प्रश्न जो मन में मेरे आते
वही क्या प्रश्न शायद रोज तुम को भी सताते हैं
तुम्हीने भूल कर के भी वह बाते नही छोड़ी
किजिन से जिन्दगी के गम हमेशा दूर जाते है
व्यथा कि क्या कहूँ मुझ को यह मीठी बहुत लगती
मुझे मरे सभी अपने तभी तो याद आते हैं
डॉ. वेद व्यथित

Saturday, June 12, 2010

मित्रों यह गजल नही है जैसा मैंने पहली पोस्ट में कहा है यह "नव गीतिका "है
पावस ऋतू प्रारम्भ हो रही है इस लिए बदल बूँदें बरसात व फुहार से ही इस का साधारणीकरण होता है ये तत्व ही सहृदयी को पावस का अहसास कराते हैं इसी पर यह नव गीतिका है
ध्यान से निकला करो मौसम सुहाना है
कब बरस जाये यह बादल दीवाना है
चौंक मत जाना कभी बिजली कीगहरी कौंध से
इस तरह ही देखता सब को जमाना है
पींग धीरे से बढ़ाना संग में मल्हार के
देख ये कब से रहा बरगद पुराना है
झिम झीमा झिम पड़ें जब मेहकी बूंदे
सम्भल कर चलना नही दिल टूट जाना है
बैठ लो कुछ देर सुस्ता लें जरा इस छाँव में
हाल अपना आप का सुनना सुनाना है
जब कभी आना तो इत्मिनान से आना
वरना भागम भाग में रहता जमाना है
बीच जुल्फों से कभी नजरें उठा कर देखना
क्या अदा है देख कर पर्दा गिरना है
बात न करना कभी इतर के मुंह को फेरना
क्या बताएं शौक ये उन का पुराना है
ख़्वाब फिर फिर देखना इस बुरा क्या है
सहारे उम्मीद के ही ये जमाना है
हाथ में लकुटी कमरिया और अपने पास क्या
मन किया जब बिछा लई वो ही ठिकाना है
सहन कर लो वेद ये बेदर्द दुनिया है
क्यों किसी को व्यथा का किस्सा सुनना है
डॉ. वेद व्यथित

Friday, June 11, 2010

क्या अब भी नही सोचोगे
देश की वर्तमान व्यवस्था का सब से काला अध्याय देश के सामने उजागर हो चुका है किइकस तरह देश को राज नेता द्वारा बंधक बनाया जा सकता है कानून को किस तरह हाथ में लिया जा सकता है
देश को चलाने वाले आई ए एस अधिकारी किस तरह मंत्रियों के आधीन काम करते है किस तरह एंडरसन को भारत के गणतन्त्र में जनता को धोखा दे कर सुरक्षित बाहर निकला गया तो देश कीसुरक्षा की ही क्या गारंटी है
यह तो एक मामला उजागर हो गया जिस से हो हल्ला मच गया नही तो ऐसे कितने ही मामले रोज होते हैं
क्या इस से प्रश्न नही उठता किदेश कि वर्तमान व्यवस्था बदलनी चाहिए
बुद्धिजीवी होने का दम भरने वाले लोग आखिर क्या कर रहे है
दूसरे नम्बर पर क्या वे लोग भी कसूर वर नही हैं जो इन के पैरोकार बन कर इन के हित चिंतक बनते हैं वोट के समय देश व समाज को भूल कर छुद्र स्वार्थों के लिए ऐसे लोगो को वोट देते हैं
भोपाल जैसे गैस कांड में वे भी भागीदार है
क्या वे इस पाप कि भागीदारी से बच पाएंगे
और सब से बड़े भागीदार तो वे हैं जो इन का बचाव कर रहे हैं
कितने सारे प्रष हम सब के सामने उपस्थित हैं
क्या अब भी हम इन को नजरंदाज कर सकेंगे
दिल पर हाथ रख कर सोचो
शायद कोई निर्णय तो आप ले ही रहे होंगे
डॉ. वेद vyathit

Wednesday, June 9, 2010

मित्रों !
जिसे हिंदी गजल कहा जा रहा है वास्तव में तो वह हिंदी की गीति परम्परा से आई गीतिका है इस का यह नाम भी कुछ दिन चला पर बिना उर्दू की बहर के ज्ञान के गजल लिखने वाले इसे गजल ही कहते रहे
उन से प्रश्न है किजैसेहिंदी में दोहा लिखने के लिए १३-११कि यति अंत में गुरु और लघु मात्रा आवश्यक है यदि ये मात्राएँ पूरी नही हों तो वह रचना दोहा नही होती उसी प्रकार बहर के बिना गजल कैसे हो सकती है जब कि हिंदी में हर दो पंक्ति में लिखी रचना को गजल कहने का प्रचलन शुरू कर दिया है
वास्तव में ऐसी रचनाएँ गजल नही हैं उन्हें "नव गीतिका "नाम दिया गया है इस सन्दर्भ में" समवेत सुमन ग्रन्थ माला"पत्रिका के कुछ अंक दृष्टव्य हैं ऐसी ही एक रचना प्रस्तुत है :-
वर्षा बादल पानी पानी हर पल मुझ को याद रहा
तेरी आँख का आँसू आँसू हर पल मुझ को याद रहा
झूठे जाहिल मक्कारों ने देश का सब कुछ लूट लिया
फाँसी फंदा दिवानो का हर पल मुझ को याद रहा
महल अटारी कोठी बंगला मुझ से दूर बहुत थे वे
टूटी छान टपकता छप्पर हर पल मुझ को याद रहा
कहने को हर पल कोई न कोई कसम उठाते वे
सच्चाई उन में कितनी है हर पल मुझ को याद रहा
चाउमीन पिज्जा केक पेस्ट्री मुझ को याद नही आई
कंगाली में आटा गीला हर पल मुझ को याद रहा
जब जब बिजली गिरी और अम्बर नौ नौ आँसू रोया
धरती का जब फटा कलेजा हर पल मुझ को याद रहा
कभी एक पल शीतलता के झोंके आये थे कितने
पर जब शीतल झोंका आया वो पल मुझ को याद रहा
डॉ. वेद व्यथित

Saturday, June 5, 2010

हम बज क्यों नही आते

आज पर्यावरण दिवस मना रहे हैं :-
पर अपनी एक भी आदत में सुधर को तैयार नही है जैसे
१ क्या हम अपना ए.सी. कितना समय बंद रखेंगे
२क्या हम बाजार अपना थैला या बैग ले कर जाते है
३क्या हम पौलिथिन के लिए दुकानदार को मना करते है
4क्या हम किसी वृक्ष को लगाने के बाद उस की देख भाल करते है
5 क्या हम अपने घर व अन्य स्थान पर पानी बचाने के लिए कृत संकल्प हैं
६ क्या हम कागज का सदुपयोग करते है
७ क्या हम पुराने एक तरफ खाली कागज का उपयोग करते है
८ क्या हम कभी बिजली बचाने का आग्रह अपने घर में करते हैं
9 क्या हम केवल दूसरों को ही उपदेश देते हैं
१० क्या हम पर्यावरण को बचाने के लिए अपने आप से भी कभी प्रश्न करते हैं

यदि नही तो क्या आज इस की शुरुआत करेंगे मैं कर रहा हूँ
आप सहभागी बने पर्यावरण बचाने के नारे में नही अपितु कुछ करने में
प्रार्थी
वेद व्यथित

Thursday, June 3, 2010

वामपंथियों की वास्तविकता
वामपंथियों ने देहली में मुसलमानों के लिए इसराइल के विरुद्ध मोर्चा निकला है
यही है इन की वास्विकता छद्म धर्मनिरपेक्षता क्योकि वेद्शों में हो रहे बरसात की तो इन्हें चिंता है वहाँ दो बूँद क्या गिरे इन के छाते खुलने में देर नही लगते परन्तु देश में हो रहे हिन्दुओं के उपर इतने अत्याचार व हमले इन आँख वाले अंधों को दिखाई नही देते है इस्लामी आतंकवाद के कारण हजारों नही लाखों हिन्दू मारा जा चुका है कश्मीर के लाखों पंडित अपने ही देश में शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर है
वह इस इन को नही दिखाई दिया है बस दिखा है तो इसराइल का मुसलमानों पर हमला दिखाई दिया है
क्या इन्होने आजआतंकवाद के विरुद्ध मोर्चा तो दूर कभी बयान भी नही दिया तसलीमा का तो जो इन तथाकथित ध्र्निर्पेक्ष ताकतों ने हाल किया है वह भी सब को पता ही है
कैसे दोगले चरित्र के लोग है जो भारत की अस्मिता के विरुद्ध अभियान चलाये हुए है जनता को इन की वास्विकता जननी ही चाहिए
डॉ वेद व्यथित

Saturday, May 29, 2010

पत्रकारिता दिवस पर मेरे प्रश्न
मैं अपने पत्रकार बन्धुओं को आज पत्रकारिता दिवस पर हार्दिक बधाई देता हूँ
इस अवसर पर मैं यह भी पूछना चाहत हूँ कि क्या पत्रकारिता आज राष्ट्रिय मुद्दों पर इमंदारना ढंग से पुन लेत सकती है जो बन्धु मानवाधिकारों के नाम पर देशद्रोहियों का पक्ष रखती है क्या वह राष्ट्रिय पत्रकारिता हो सकती है यह सीधा २देश द्रोह नही तो और क्या है
इस के अतिरिक्त हिन्दू समाज कीछोटी से छोटी घटना को भी पूरे हिन्दू समाज पर आरोपित कर के हिन्दू धर्म को बदनाम करने का जो षड्यंत्र आज हो रह है क्या आज उस का प्रतिकार हो सकेगा
अन्य मतों की बुरी से बुरी कुरीति भी मत के नाम पर आज पत्रकारिता में माफ़ की जा रही हैंक्या उस समय पत्रकारिता की धर चुक जातीहै
एक चौनल से पत्रकार बन्धु ने तो इतना सफेद झूठ बोला की हद हो गई उन का कथन है किमनु स्मृति में शूद्र के कान में सीसा डालने का लिखा है जब कि किसी भी मनु स्मृति में ऐसा नही है यह सफेद झूठ पता नही कब से इस देश में वैमनस्य पैदा करने के लिए चलाया जा रहा है जब कि यह एक डीएम सफेद झूठ है
इसी तरह हमारी सेना को बदनाम करने के लिए उस के खिलाफ समाचारों को प्रमुखता देना भी क्या देश द्रोह नही है सेना के किसी जवान से गलती हो सकती है पर उस का यह मतलब तो नही कीसेना इ गलत हो गई
क्या उन्हें यह नही दीखता की सेना किन परिस्थितियों में काम करती है अपना ह्ग्र्बर ऐश आराम छोड़ कर मित के सामने क्या इतनी आसानी से कोई खड़ा हो सकता है
मेरा निवेदन है की कम से कम राष्ट्रीय पर तो महरबानी रखें
इस के साथ २ क्या चैनल अपने विरूद्ध टिप्पणियों को भी दिखने का कोई जरिया बना सकते हैं जब आप दूसरों की आलोचना करते हैं तो अपनीं आचना क्यों शं नही कर सकते यदि नही कर सकते तो आप इसे स्वतंत्र मिडिया कैसे कह सकते हैं
यह तो आप की मनमानी ही रही जो हो भी रही है
मुझे पता है इस का किसी पर कोई असर नही पड़ेगा पर प्रश्न करने का तो मेरा अधिकार है
पुन:बधाई
डॉ.वेद व्यथित

Friday, May 28, 2010

दिल्ली ब्लोगर मीत के निहितार्थ
भाई अवनाश जी सहृदयता न शेष सभी बन्धुओं का प्यार एक अद्भुत अनुभव रहा भाई एम् वर्मा जी व सुलभ जायसवाल पहलीबार मिलने पर भी लगा किवर्षों कि प्रगाढ़ता से हम मिल रहे हैं
सब से बड़ी बात तो यह रही कि कहीं कोई मत भेद मत भेद के लिए नही था
यही इस कि विशेष उपलब्धी रही अभी भी सभी का स्मरण बना हुआ है और बना ही रहेगा
अगले आयोजन कीप्रतीक्षा रहेगी
सभी में यह सहृदयता बनी रहे
इन मिल्न का एक बड़ा उद्देश्य यह भी था और है
डॉ. वेद व्यथित

Tuesday, May 25, 2010

prdhan mntri ji ki press comfrens

माननीय प्रधान मंत्री जी कीप्रेस कम्फ्रेंस में म
हमारे जागरूक प्त्र्कोरों ने देश के व्यवस्था के विषय में बहुत से प्रश्न किये पनतु बड़े खेद का विषय है इन सब प्रश्नों के उपर भरी रहा एक ही प्रश्न की kya राहुल गाँधी प्रधान मंत्री बनेगे
इस एक ही प्रश्न ने सारी प्रेस कांफ्रेंस को दबा दिया यानि हाई जेक कर लिया
मेरा उन बन्धुओं से प्रश्न है की क्या देश के मंहगाई बेरोजगारी गरीबी भ्रष्टाचार जिस की अब चर्चा नही होती ऐसे अन्य कितने ही महत्व पूर्ण मुद्दे हैं देश की आन्तरिक व बहिय सुरक्षा जो भयावह बनी हुई है क्या इन सबी से उपर यही एक मुद्दा भरी है
और इस सब से ज्यदा बड़ी बात तो यह है की मिडिया ने भी बाक़ी मुद्दे छोड़ कर केवल राहुल कथा का ही बखान शुरू कर दिया
क्या यही इस देश का मिडिया है जिसे न तो गरीबी दिखाई देती है व बेरोजगारी और न ही देश की सुरक्षा ही दिख रही है
क्या मिडिया लोक तन्त्र की अर्थी को स्मशान तक ले जा कर ही डीएम लेने की कसम खाए हुए है की देश में लोक तन्त्र तो कोई चीज है ही नही न तो देश की जनता ही कुछ है नही देश में वोटर नाम की चीज है आखिर उन तथाकथित मिडिया वालो को कब श्रम आएगी जो गैर जिमेदाराना प्रश्न पूछ कर देश को गुमराह कर रहे हैं
परन्तु इनाम का लालच हमेशा से प्रभावी रहा है
अब भी है आगे भी रहेगा
धन्य हैं ऐसे महान लोग जो जनता को गम रह कर के अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं
डॉ. वेद व्यथित

Friday, May 14, 2010

ग्रीष्म ऋतू की त्रिपदी

त्रि-पदी हिंदी के लिए नया छंद है मैंने नेट पर पहले सर्दी कि त्रिप्दियाँ प्रकाशित कि थीं जिन का मित्रों ने भरपूर स्वागत किया था व आशीर्वाद दिया था इसी कड़ी में ग्रीष्म ऋतू पर कुछ त्रिपदी प्रस्तुत है

ग्रीष्म ऋतू की त्रिपदी

क्यों इतना जलते हो
थोडा तो जरा ठहरो
क्यों राख बनाते हो

ये आग ही तो मैं हूँ
यदि आग नही होगी
तो राख ही तो मैं हूँ

अपनों ने ही सुलगाया
क्या खूब तमाशा है
नजदीक में जो आया

दिल में क्यों लगाई है
ये और सुलगती है
ऐसी क्यों लगाई है

ज्वाला भड़कती है
आँखों की चिंगारी
दिल खूब जलती है

ये सर्द बना देगी
इस आग को मत छूना
तिल तिल सा जला देगी

क्या क्या न जलाएगी
इस आग को मत छेड़ो
ये मन को बुझाएगी

इस आग को मत छेड़ो
यह दिल में सुलगती है
इस को मत छेड़ो

अंगार तो बुझता है
कितना भी जला लो तुम
वह दिल सा बुझता है

हर आँख में होती है
ये आग तो ऐसी है
ये सब में होती है

जलना ही मिला मुझ को
मैं तो अंगारा हूँ
कब चैन मिला मुझ को

जल २ के बुझा हूँ मैं
बस आग को पिया है
उसे पिता रहा हूँ मैं

मुझे यूं ही सुलगने दो
मत तेज हवा देना
कुछ तो जी लेने दो

सब आग से जलते हैं
कुछ को वो जलती है
कुछ खुद को जलते है

क्यों आग से घबराना
जब जलना ही था तो
क्यों उस को नही जाना

हाँ आग बरसती है
यह जेठ दुपहरी ही
सब आग उगलती है

क्यों दिल को जलते हो
ये इकला नही जलता
क्यों खुद को जलते हो

मरना भी अच्छा है
तब ही तो जलता हैं
जलना भी अच्छा है

धुंआ भी उठने दो
अंगार बनेगा ही
धीरे से सुलगने दो

यह आग न खो जाये
दिल में ही इसे रखना
यह रख न हो जाये

यह आग है खेल नही
दिल जैसी सुलगती है
इसे सहना खेल नही

डॉ. वेद व्यथित

Wednesday, May 5, 2010

साहित्यिक रपोर्ट


साहित्यिक व सांकृतिक संस्था "हम कलम "कि मासिक गोष्ठी गुडगाव में आयोजित हुई गोष्ठी की अध्यक्षता की जाने माने साहित्यकार शेरजंग गर्ग ने गोष्ठी के प्रथम स्तर में कहानी के विकास पर सार गर्भित चर्चा हुई तथा एक कहानी पढ़ी गई तथा कपूरथला से पधारीं आभा कुल्श्रेठने अपनी लघु कथा पढ़ी जिस कि श्रोताओं ने खूब तारीफ की
गोष्ठी के दूसरे सत्रमें काव्य पाठ का आयोजन किया गया जिस में साहित्य विदुषी चन्द्रकान्ता ने अपनी उन दिनों की रचना सुनाईजब उन्हें आतंक के कारण अपना घर छोड़ कर अपने ही देश में बेघर होना पड़ा उन की रचना में उन लाखों कश्मीरियों का दर्द व्यक्त हुआ है जो इस देश के नेताओं के कारण इस तुष्टि करनके कारण उन्हें झेलना पड़ा है कथा कार संतोष गोयल ने अपनी रचना में वर्तमान सच को बखूबी उजागर किया डॉ. वेद व्यथित ने देश की वर्तमान दशा पर मुक्तक पढ़े इन मुक्तकों में दांते वाडा वे शहीद जवानो को श्रद्धांजली दी गई हिंदी भाषा के प्रति समर्पित जापानी लेखिका डॉ.टोमोको किकुची ने अपनी हिंदी के प्रति रूचि से अवगत करवाया तथा अपने महादेवी वर्मा पर किये गये शोध दे परिचित करवाया साहित्य शिल्पी के संयोजक राजीवरंजन प्रसाद ने देश में भड़काई जा रही जातिगत भावनाओं के विरोध में कविता पढ़ी इन के साथ २ श्रीमती सुनीता शर्मा व ,राधा शर्मा ने भी काव्य पाठ किया
डॉ. वेद व्यथित

Friday, April 30, 2010

देश की वर्तमान दुखद स्थिति पर दो मुक्तक

नैतिकता अब कहाँ खो गई देश का कैसा हाल हुआ
देश को गिरवी रख कर के भी उन को नही मलाल हुआ
आखिर लाज सुरक्षित कैसे भारत की रह पाएगी
जिम्मेदार कौन इस का है देश का जो ये हाल हुआ

बाहर गला फाड़ चिल्लाते संसद में शरणागत हैं
सौदेबाजी रोज नई है ये ही उन की आदत है
ऐसे ऐसे देश के नेता माननीय कहलाते हैं
इन लोगों का क्या कर लोगे कैसी आई आफत है

इस लम्बी दाढ़ी में कितने राज छुपाये हो बाबा
बाहर कुछ है अंदर कुछ है वैसे बने हुए बाबा
कितनी हद्द हो गई इस से भी ज्यादा क्या गिरना है
जिस पत्तल में खाते उस में छेड़ कर रहे हो बाबा
डॉ. वेद व्यथित
http://sahityasrjakved.blogspot.com
dr.vedvyathit@gmail.com

Monday, April 19, 2010

जन का तन्त्र पित रहा नित दिन आई पी एल की विकटों पर
अरबों खरबों का किस्सा है आई पी एल की विकटों पर
राजनीति का खेल नया ये भैया खूब निराला है
खूब लुटी जनता बेचारी आई पी एल कि विकटों पर

Saturday, April 10, 2010

दांते वाडामें शहीद हुए जवानो के प्रति

इस के बाद बचा ही क्या है और अधिक कुछ कहने को
बंधुआ हैं जवान बेचारे गोली कहा कर मरने को
क्यों कि तो लौह भवन में चैन की वंशी बजा रहे
क्योंसंकल्प नही करते हो माओ वाद से लड़ने को

सत्ता सोच रही है कितनी और बलि चाहिए उस को
मरवा कर इतने जवान भी कहाँ तसल्ली है उस को
फिर भी सख्ती से लड़ने की हिम्मत नही जुटापाई
इन के बल पर कुर्सी पाई क्यों खोएगी वो उस को

तथा कथित मानवतावादी कहाँ बिलों में सोये हैं
जब भी कांटा चुभा शत्रु को वो आंसू से रोये हैं
पर जवान की विधवा ,बहना बच्चे इन को दिखे नही
कैसे उल्लू के पठ्ठे हैं गहरी निद्रा सोये हैं
डॉ. वेद व्यथित

Friday, April 9, 2010

'ज़िंदा ज़ख्म' की नायिका का मूर्त रूप हैं- फ़िरदौस ख़ान


'ज़िंदा ज़ख्म' की नायिका का मूर्त रूप हैं- फ़िरदौस ख़ान

सच वास्तव में यदि सच हो तो वह इस मायावी जगत में जितना सुनना कड़वा होता है उतना उसे कहना या व्यक्त करना होता है.
सच को कहने के लिए पहाड़ जैसा साहस चाहिए, समुद्र जैसी गंभीरता व गहनता चाहिए, नदियों जैसी रवानगी चाहिए और सूरज जैसी प्रखरता व दिव्यता चाहिए तब जाकर कहीं सच कहा जा सकता है.
इसी पथ कीपथिक हैं निर्भीक पत्रकार, लेखिका, शायरा व विचारक तथा चिंतक फ़िरदौस ख़ान जो सच को उजागर करने के लिए अथक परिश्रमशील हैं वे प्रेम, करुणा व सौहार्द के मुरझाते वृक्ष को अपनी लेखनी से सींच रही हैं
उन्हें इसके लिए कुछ लोग नासमझी में 'तसलीमा नसरीन' कहने की गलती कर बैठते हैं, परन्तु वास्विकता तो यह है की फ़िरदौस तसलीमा नहीं हैं वे 'फ़िरदौस' ही हैं क्योंकि फ़िरदौस की शख्सियत उनकी अपनी शख्सियत है वह कुछ और नहीं हो सकतीं वे फ़िरदौस ही हो सकतीं हैं इसीलिए वे फ़िरदौस हैं
हिंदी के एक महान चिंतक व उपन्यासकार आचार्य निशांत केतु जी का उपन्यास है -'ज़िंदा ज़ख्म' उपन्यास की नायिका महजबी ज़ैदी एक पत्रकार हैं. वह पत्रकारिता के धर्म को निभाते हुए सच कहने व लिखने का साहस करती है, सौहार्द व प्रेम के प्रति समर्पित भाव रखती है, विभिन्न कलाओं के प्रति समर्पित है दूसरे मतों व धर्मों के प्रति हार्दिक आदर व सम्मान रखती है.
इस 'ज़िंदा ज़ख्म' की नायिका महजबी का वर्तमान में साक्षात्कार होता है - फ़िरदौस ख़ान के रूप में महजबी की तमाम ख़ासियत या विशेषताएं इस पत्रकार फ़िरदौस ख़ान में मूर्तिमान होकर जीवंत हो रही हैं.
कैसा संयोग है किसी उपन्यास की नायिका का व्यवहार जगत में प्रतिरूप प्राप्त होना यह महज़ संयोग है या उपन्यासकार की भविष्य को संवारने की भविष्य दृष्टि जो फ़िरदौस ख़ान में स्वत: स्फूर्त प्रकट हो रही है
मुझे समझ नहीं आ रहा कि सौहार्द स्थापना के प्रयासों के लिए उपन्यासकार आचर्य निशान केतु जी को साधुवाद दूं या उपन्यास की नायिका की साक्षात् मूरत फ़िरदौस को साधुवाद दूं कि वह किस प्रकार मुसीबतों और कुरीतीयों से टकराकर सौहार्द स्थापना हेतु कृत संकल्प हैं.
निश्चित ही दोनों साधुवाद के पात्र हैं.

फिरदौस मज़हब से ज़्यादा रूहानियत में यक़ीन करने वाली लड़की हैं. उनका यह ध्यातिमक गीत इस बात की मिसाल है. वह खुद कहती हैं- अगर इंसान अल्लाह या ईश्वर से इश्क़ करे तो... फिर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसी मस्जिद में नमाज़ पढ़कर उसकी इबादत की है... या फिर किसी मन्दिर में पूजा करके उसे याद किया है...

पिछले साल प्रकाशित फ़िरदौस की किताब ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ भी रूहानियत पर आधारित है. इसमें 55 संतों व फकीरों की वाणी एवं जीवन-दर्शन को प्रस्‍तुत किया गया है. इसकी ‘प्रस्‍तावना’ राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री इन्‍द्रेश कुमार जी ने लिखी है. फ़िरदौस का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं- लेखिका चिन्तक है, सुधारवादी है, परिश्रमी है, निर्भय होकर सच्चाई के नेक मार्ग पर चलने की हिम्मत रखती है.
वेद व्यथित

Friday, April 2, 2010

फ़ोन विहीन नेता जी

नेता जी चिंतन कर रहे थे देश कीसमस्याओं में उलझ रहे थे उन में गहराईसे डूब रहे थे इसी गहराई में चिन्तन करते करते देश का बहुत उद्धार कर दिया दुनिया भर का निर्माण कर दिया ऊँची २ इमारतें बना दी बड़े २ बांध बना दिए नदियों पर पुल बना दिए ऐसा ही पता नही क्या २ हवा में बना दिया देश का तो इन चिन्तन के क्षणों में नकशाही बदल दिया
इसी तन्द्रा यानि चिन्तन में एक चमचा प्रकट हो गया नेता जी के कार्यों पर गर्व से उस का सिरनेता जी चरणों पर झुकाया फिर उस ने अपना चमचा धर्म निभाया उस ने नेता जी से इस निर्माण के उदघाटन की प्रार्थना की और कहा आप ने देश पर कितना उपकार किया है देश की जनता का कल्याण किया है अब आप देर मत करें आप के हाथ में जो नारियल है उसे तोड़े जोर से सडक पर पटक कर फोड़ें और इस सरे हवाई निर्माण का उद्घाटन करें बस फिर क्या था नेता जी ने अपना धर्म निभाया उद्घाटन करने को हाथ में पकड़ा नारियल जोर से दे मारा नारियल टुकड़े २ हो गया परन्तु तेज आवाज से नेता जी का चिन्तन भंग हो गया क्यों की न तो वहाँ कोई उद्घाटन था और न ही नारियल था उन के हाथ में तो उन का सेल फोन था जो चिंतन में नारियल हो गया था और जोर से पटकने पर टुकड़े २ हो गया था दूर २ तक बिखर गया था नेता जी का चिन्तन भंग हो गया था
फोन क्या टूटा नेता जी फोन हीन हो गये नेता जी फोन हीन क्या हुए गजब हो गया जैसे युद्ध में योद्धा शस्त्र हीन हो जाये ,फ़ौजी सीमा पर बिना बंदूक के तैनात कर दिया जायेसिपाही से उस का डंडा छीन लिया जाये मजदूर को बिना औजार काम पर लगा दिया जाये पत्रकार को खबर न लिखने दी जाये लेखक से कलम छीन ली जाये ड्राइवर को गाडी न चलाने दी जाये रेल को सिंग्नल न दिया जाये हीरो को विलं की पिटाई न करने दी जाये विलं को गुंडा गर्दी न करने दी जाये प्रेमिका को प्रेमी संग बात न करने दी जाये प्रेमी को प्रेमिका के चक्कर में बिना पीते छोड़ दिया जाये पत्नी को पति आँख न दिखने दी जाये औरतों को चुप रहने के लिए कहा जाये बच्चों को शरारतों से रोका जाये अध्यापकों को टूशन न पढ़ने दी जाये स्टेशन पर चाय वालों को चाय २ का शोर न मचाने दिया जाये या और जो २ भी ऐसा कुछ भी आप के दिमाग में आये वह सब फिर आप अंदाजा लगायें की तब क्या हो सकता है ठीक वही हालत बिना फोन के नेता जी की हो गई जैसे जल बिन मछली की दशा होती है चकोर की चाँद के बिना होती है चातककी बिना स्वाती जल के होती है सूर्य की पूर्ण ग्रहण के समय होती हैचन्द्रमा जैसे बिना चांदनी के होता है नदियाँ बिनाजल के जैसे होती हैं समुद्र बिना जल के जैसे होता बस ऐसी ही हालत नेता जी कीबिना फोन के हो गई भला आज के समय में फोन हीन नेता भी कोई नेता हो सकता है कदापि नही तो
परन्तु अब क्या हो बिना फोन नेता ,नेता नही होता क्यों की फोन हीन नेता तो लोक तन्त्र के लिए बहुत बड़ी हानि हैनेता जी फोन ही तो इस लोकतंत्र की चाबी है जैसे कार बिना ड्राइवर के नही चलती बल्व या तुब जैसे बिना लाइट के नही जलती जुआ खेले बिना जैसे कोई जुआरी नही होता शराब पिए बिना जैसे कोई शराबी नही होता ऐसे ही भला बिना फोन के नेता भी नेता नही होता और बिना नेता के भला लोकतंत्र भी कोई लोकतंत्र रह सकता है कदापि नही
इसी लिए कुछ देर के लिए लोक तन्त्र पर खतरा मडराने लगा वह अपनी सार्थकता यानि लोकतंत्रिकता खोने लगा यानि लोकतंत्र फेल होने लगा वह लोकतंत्र न रह कर कुछ और होने लगा क्यों की लोक तन्त्र के रहने पर शहर में सोने की चैन लुटेरों को चोरों को डैकेतों को पुलिस ने पकड़ लिया और ठाणे में बंद कर दिया उन के हित चिंतक लोग लोकतंत्र में अपना हक मागने नेता जी के पास पहुंचे और बोले अपना वायदा निभाओ हमारे काम आओ तुरंत पुलिस को फोन करो हमारे आदमियों को छुड वाओ पुलिस वालों को धमकाओ थानेदार का तबादला करवाओ उसे लाइन हाजिर करवाओ परन्तु आज नेता जी का हथियार उन पर नही था वह नारियल सा उदघाटित हो गया था अब फोन हें नेता जी क्या करें पुलिस को फोन कैसे करें कैसे उन्हें धमकाएं और अपने समथको को कैसे छुडाएं इसी बीच एक बड़े दान दाता के यहाँ इनकम टेक्स की रेड पद गई अरबों दो नम्बर का रुपया पकड़ा गया इस्पेक्टर अरबों की जगह लाखों दिखाना चाहता था परन्तु यह तो उन की बेइज्जती थी उन्होंने कहा कम से कम करोड़ों तो दिखाओ क्यों की बाद में तो मिल ही जाना है इस बात पर दोनों में तकरार हो गई ददन दाता ने नेता जी को फोन मिलाया परन्तु नेता जी का फोन तो उद्घटित हो चुका था मिलता कहाँ से आज तो नेता जी फोन हीन थे इस लिए उन्होंने अपना आदमी दौड़ाया परन्तु नेता जी बिना फोन के असमर्थ हो गये यानि बिना के लोकतंत्र के प्रहरी निरस्त हो गये
शहर में और भी कई जगह हलचल हुई लुचे लफंगे काम चोर कर्मचारी बेईमान भ्रष्ट अधिकारी सभी की आफत आ गई नेता जी फोन हीन क्या हुए लोकतंत्र पर बड़ा कुठारा घात हो गया आखिर लोकतंत्र के प्रहरी का एक ही तो काम होता है अपने गुलाम अफसरों को फुनवनाउनको डरना धमकाना तबादले करवाने का कह कर डरना इमानदार पुलिस वालों को लाइन हाजिर करवाना अपने मन माफिक काम करने वाले अफसरों को मन पसंद जगह तैनात करवाना आदि आदिलोकतंत्र के सभी काम रुक गए क्यों की ये सरे काम ही तो नेता जी के फोन से होते हैं विभाग के अधिकारी तो मात्र क्ग्जी कार्यवाही कर के हस्ताक्षर भर करते हैं लोक के तन्त्र का असली काम तो नेता जी करतें हैं इस लिए लोक तन्त्र की रक्षा के लिए कृत संकल्प नेता जी के चमचों ने तुरंत फोन का इंतजाम किया तब जा कर कहीं फिर से लोकतंत्र चालू हुआ
इसी लिए आगे से ध्यान रखा गया की सरकार की ओर से लोकतंत्र की रक्षा के लिए नेताओं को फोन के साथ २ कम्प्यूटर लेपटोप आदि सुविधाएँ भी दी गईं बच्चों केवन्य परिवार वालों के लिए नेता जी के साथ २ उन्हें भी सरकारी गाड़ियाँ भी दे दी गईं ताकि लोकतंत्र चलता रहे लोकतंत्र को ठीक से चलाने के लिए नेताओं के इर्द गिर्द सुविधाओं व सहूलियतों का जल बिछता और बढ़ता रहे लोकतंत्र सुरक्षित रहे
जय लोकतंत्र जय नेता जी जय फोन बाबा की
डॉ. वेद व्यथित
email id: dr.vedvyathit@gmail.com
bog: http://sahityasrajakved.blogspot.com
१५७७ सेक्टर ३ फरीदाबाद -१२१००४

Sunday, March 28, 2010

आओ सरकार-सरकार खेलें

एक दिन घोषणायानि मुनादी हो गई कि सभी लोगों को सूचित किया जाता है कि सरकार सरकार खेलने की प्रतियोगिता आयोजित की जायेगी सभी लोग ध्यान से सुन लो क्यों कि जो भी इस में हिस्सा वे हे खेल के बाद फल और फलियों के सिन्नियों व रेवड़ियों को प्राप्त करने के हकदार होंगे जो रह जायेंगे वे बाद में पछतायेंगे वे कई तरह के फल फ्प्प्लों से वंचित हो जायेंगे या फिर खेल में शामिल न होने की बहुत बड़ी कीमत चुकायेंगे तब ही वे खेल में शामिल किये जायेंगे
मुनादी सुनते ही लोगों में खुसर पुसर शुरू हो गई भाग दौड़ हलचल उठा पटक सब शुरू हो गया लोगों ने खेल में शमिल होने की तैयारी शुरू कर दी जिस के पास जो साधन थे सब उन्हें ले कर तैयार हो गए किसी पर झंडे थे ,किसी पर डंडे थे किसी पर टैक्स से बचाए फंडेथे किसी के पास कुछभी नही था वे और कुछ और तो हर तरह से नंगे थे वसे उन में कुछ सब से ज्यादा निकम्मे थे कुछ चोर थे ,और कुछ उच्चके थे इतना ही नही वेमुनादी से सब से ज्यादा प्रभावित थे
चलो जो भी था कुल मिला कर खेल की तैयारी शुरू हो गई जिस पर जो था वो अपना अपना सब कुछ ले आया कोई झ्न्दकोई डंडा कोई टोपियाँ कोई कुरता कोई लंगोट कोई पायजामा ले कर ए गया क्यों कि खेल की असली शान तो यही थे इन्हें ही तो सब से ज्यादा खेलना था बिना बात दूसरों के लिए लाइन में लगना था धूप में सिकना था लड़ना था मरना था चीखना और चिलाना था गला फाड़ हूकना था गाना था क्यों कि इन बात खेल में मजा लेना था
खेल शुरू हो गया झंडे वाले सब पहले आ गये परन्तु डंडे वाले उन से भी आगे निकल ए लोगों ने चुपचाप उन के लिए रास्ता छोड़ दिया परन्तु उन प्रझ्न्दे नही थे बिना झंडे के उन का डंडा बेकार था और जिन पर झंडा था उन झंडा भी बिना डंडे के बेकार था डंडे वाले अपना डंडा क्यों देते और झंडे वाले अपना झंडाडंडे वालों को क्यों देते आखिर झंडे वाले ज्यादा हुशियार थे उन्होंने डण्डे वालों से कोई गुप्त समझौता कर लिया और अपने झंडों को उन के डंडों पर लगा दिया और फिर उन्हें झंडे लगे डंडे थमा दिए डंडों के सहारे झंडे लहराने लगे जो खाली हाथ थे वे उन के गीत गाने लगे
गीत सभी को गाने थे सबको अपने अपने स्वर अच्छे बताने थे इस लिए उन के स्वर ऊँचे से ऊँचे होने लगे फिर क्या था लोग झुंडों में बंटने लगे वे एक दूसरे झुण्ड को निचा दिखने लगे या अपने झुण्ड में दोसरों को मिलाने लगे कुछ अपनी द्प्ले ले कर अलग बजाने लगे खूब शोर शराबा होने लगा बच्चों की पढ़ी बेकार होने लगी बूढ़े और बीमार हो गये पर ज्न्दे कूब लहराए खूब डंडे चले लोगों ने खूब गीत गए
आखिर खेल खत्म होने का समय भी आया और खेल समाप्ति की घोषणा हो गई जिन का झंडाऊँचा था वे विजयीघोषित हुए ऊँचे झंडे वालों ने भरपूर इनाम पाया उन्होंने डंडे वालों को भी इस में शमिल करवाया परन्तु गाने वाले उतावले थे उन्होंने खेल खत्म होने से पहले ही जो हाथ आया हतक खाया परन्तु बाद वाले ज्यादा फायदे में थे उन के हाथ बहुत ज्यादा आया ऐसा नही कि बाद में गाने वालों को कुछ भी नही मिला परन्तु जो मिला वह न के बराबर था असली माल तो झंडे वालों के हाथ आया उन्होंने तो पूरा खजाना पाया और उस खजाने में से कुछ अपने सहयोगी डंडे वालों पर लुटाया उन्हें बी उस में सहभागी बनाया बाक़ी को इनाम में शमिल करने का आश्वाशन दे कर बड़ी चतुराई से टरकाया .
ये लोग बहकाए में आ गये झंडे वाले झंडे ले कर लहरा कर अलग हो गये बाक़ी देखते रह गये अब पछताए हॉट क्या जब खेल खत्म हो गया खेल का इनाम इन से बहुत दूर था झंडे वाले हे बड़े हो गये उन्ही के डंडे वाले भलग गये रह गये गीत गाने वाले अब वे क्या करें झंडे वालों से कैसे मुलाकात करें क्यों कि उन के पास डंडे वाले भी हैं और खेल खत्म हो ही गया है इस लिए अब झंडे और डंडे वालों की ही माया है उन्ही पर छत्र की छाया है बके तो वैसे के वैसे ही धूप में सिकेंगे लाइन में लगेंगे यदि कुछ कहेंगे तो डंडों से पीटेंगे
इस लिए पहले बता रहा हूँ खेल दुबारा भी खेला जायेगा झंडा भी होगा डंडा भी होगा और तुम ही उन के लिए चीखोगे चिल्लाओगे गला फाड़ गाओगे पर यदि ऐसे ही खेले तो फिर पछताओगे और ज्यादा कुछ होगे तो फिर से डंडे खाओगे इस लिए अभी से सावधान हो जाओ पर ये सावधान कहाँ होते हैं जल्दी सो जाते हैं सोने के बाद अगला पिछला सब भूल जाते हैं और फिर बार बार पछताते हैं युधिष्ठिर के बताये उत्तर की तरह क्षणिक ज्ञान प्राप्त करते हैं और क्षण में ही भूल जाते हैं
अब क्या कहूँ कसूर किस का है खेल का या उन्खेलने वालों का ,झंडे वालों का या डंडे वालों का या उन के लिए गाने वालों का आखिर कौन है कसूरवार खेल खिलने वाले तो तमाशबीन हैं खेलने वालों में कुछ धूर्त है कुछ महा मूर्ख हैं कुछ भुल्लकड़ हैं भूलने में महान हैं ये सब धन्य हैं यही इन की पहचान हैं इसे ही तो सही अर्थों में कहते हिंदुस्तान हैं
डॉ. वेद व्यथित
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Tuesday, March 23, 2010

आज श्री राम नवमी के पावन अवसर पर भगवान श्री राम के प्रति श्रधा पूर्वक नमन

भगवान श्री सीता राम जी
किस ने देखा राम हृदय की घनीभूत पीड़ा को
कह भी जो न सके किसी से उस गहरी पीड़ा को
क्या ये सब सेवाके बदले मिला राम के मन को
आदर्शों पर चल कर ही तो पाया इस जीवन को

राम तुम्हारा हृदय लेह धातु से अधिक कठिन है
पिघल सका न किसी अग्नि से ऐसी मणि कठिन है
आई होगी बाढ़ हृदय में आँसू धरके होंगे
शायद आँख रुकी न होगी बेशक हृदय कठिन है

मन करता है राम तुम्हारे दुःख का अंश चुरा लूं
पहले ही क्या कम दुःख झेले कैसे तुम्हे पुकारूँ
फिर भी तुम करुणा निधन ही बने हुए हो अब भी
पर उस करुणा में कैसे में अपने कष्ट मिला दूं

किस से कहते राम व्यथा मन में जो उन के उभरी
जीवन लीला कैसे कैसे आदर्शों में उलझी
इस से ही तो राम राम हैं राम नही कोई दूजा
बाद उन्हों के धर्म आत्मा और नही कोई उतरी

दो सांसों के लिए जिन्दगी क्या क्या झेल गई थी
पर्वत से टकरा सीने पर सब कुछ झेल गई थी
पर जब आंसू गोरे धरा बोझिल हो उन से डोली
वरना सीता जैसी देवी क्या क्या झेल गई थी
डॉवेद व्यथित
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Sunday, March 21, 2010

माला महिमा

नोटों की माला का कैसा नया चलन अब आया है
भूखों की रोटी छिनी है कैसा खेल दिखाया है
पर मूर्ख वे लोग खुदी हैं जो ऐसे लुट जाते हैं
जात पांत के नाम पै कैसा २ नाच दिखाते हैं

माला तो है खूब उजागर कुछ लेते बिन माला के
सब को रहती पता यहाँ पर ऐसी गड़बड़ झाला के
पर किस की कब कौन कह रहा सब हमाम में नंगे हैं
भूखे मर जायेंगे नेता बिना लिए इस माला के

काश इसी माला में से ही होरी को कुछ मिल जाता
वो भी अपने फटे हल को थोडा सा तो सिल पता
पर ऐसे कैसे हो सकता कहाँ हुई गिनती उस की
रुपया तो केवल उस के इन आकाओं पर जाता है

डॉवेद व्यथित

Friday, March 19, 2010

सैनिकों के प्रति

इस से ज्यादा शर्म की और क्या बात होगी जो देश के सैनिकों को अपने मेडल वापिस करने पड़ रहे हैं
देश के उन हजारों सैनिको के प्रति सम्मान पूर्वक मेरे कुछ मुक्तक निवेदन है

सैनिकों के प्रति

सीमाओं पर रात रात भर जो जवान अड़ जाते हैं
अपना सब कुछ छोड़ देश के लिए बलि चढ़ जाते हैं
उन बलिदानों की कीमत क्या देश कभी दे सकता है
पर सत्ता में बैठे गूंगे बहरे क्या सुन पाते हैं ?

ऐसी मजबूरी क्यों आई मेडल भी वापिस ले लो
इन से पेट नही भरता है इन को तुम वापिस ले लो
पर दे दो इज्जत मेरी जो देश के लिए लुटाई है
और चाहिए नही मुझे कुछ बेशक जीवन भी ले लो

यदि जवानो के संग में भी ऐसे ही बतियोगे
राजनीति के ओ दुमछल्लो क्या गुल और खिलाओगे
यदि इसे अपमान मिलेगा फिर कैसे जीवन देगा
सैनिक के इस त्याग बिना तुम चैन से न सो पाओगे

जय जवान का नारा ही तब बेमानी हो जायेगा
जब जवान सत्ता के कारण अपना मान गंवाएगा
क्या रह जाएगी कीमत छाती पर लटके मेडल की
जब वो रोटी की भी खातिर दरदर ठोकर खायेगा

डॉ.वेद व्यथित
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Wednesday, March 17, 2010

विक्रमी नव सम्वत पर भव्य आयोजन

जनसहयोग वैल्फयर असोशियेशन दो के ब्लोकफरीदाबाद के भव्य भवन में भारतीय विक्रमी नव सम्वत २०६७के शुभारम्भ पर एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया इस में विभिन संस्थाओं के प्रतिनिधियों की सहभागिता रही कार्यक्रम की अध्यक्षता की वयोवृद्ध शिक्षाविद व संस्था के चैयरमैन श्री के० एल० मक्कड़ जी ने कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे मूर्धन्य साहित्यकार व भारतीय साहित्य कार संघ के अध्यक्ष डॉ वेद व्यथित एवं कारगिल जंग के योधामेजर विजय कुमार तथा प्रिंसिपल व कवयित्री डॉ. नर्गिशखामोश इस में मुख्य अतिथि थे
कार्यक्रम में विक्रमी नव सम्वत पर प्रकाश डालते हुए डॉ. वेद व्यथित ने इस की वैज्ञानिकता व एतिहासिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए बताया की चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के शासन में न तो कोई कर्जदार था न ही कोई सताया जा सकता था यह राजा का दायित्व था की वह अपनी प्रजा के कुशल क्षेम का ध्यान अपने सुख छोड़ कर भी करे यह राजा की ही जिम्मेदारी थी की कोई उस के राज्य में भूखा न सोये कोई दुखी न हो कोई किसी के अधिकारों का हनन न करे ये सब उत्तरदायित्व राजा के थे जिन्हें उन्होंने बखूबी निभाया था
इस के अतिरिक्त ज्ञान के प्रसार व प्रचार के लिए भी सम्राट विक्रमादित्य ने विशेष व्यवस्था की थी जिस का प्रमाण आज भी हमे बहुत सी पुस्तकों में मिलता है उन के बारे अरब देश में स्वर्ण पत्र पर लिखी गई कविता देखने योग्य है जो इस प्रकार है :
इत्त्रशाफई स्नातूल विक्र्मतूल फहलामिन क्रिमून य्र्ताफिया वयोव्सरू ..................बिल अमर विक्र्मतून
इस का हिंदी भाव ये है :
वे लोग धन्य हैं जो राजा विक्रम के शासन में पैदा हुए वह दानी धार्मिक और प्रजा पालक था उस समय हमारे अरब परमात्मा को भूल कर सांसारिक आनन्द प्राप्त करने में लगे थे वे कपट को गुण समझते थे हमारे लोग मूर्खता में जकड़े हुए थे परन्तु अब उदार राजा विक्रम की कृपा से आनन्दमाय प्रभात का उदय हुआ वह हम विदेशियों को भी अपनी दया से वंचित नही रखता उस ने अपने प्रतिठित विद्वान् जो सूर्य के समान प्रकाशमान थे हमारे लिए ज्ञान देने को भेजे जिस से हमारी भूमि में दिव्य मार्ग आलोकित हुआ
ये सम्राट विक्रमादित्य की विशेषताए थीं जिन्हें हम भूलते जा रहे है
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए भाटिया सेवक समाज के अध्यक्ष सरदार मोहन सिंह भाटिया के कहा की आज भारतीय संस्कृति पर चारों ओर से खतरा मंडरा रहा है जिस पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है
खत्री बिरादरी के वयोवृद्ध संरक्षक श्री सुंदर दासखत्री ने इस अवसर पर नैतिक बातों को दोहराते हुए नव सम्वत पर उन का अनुसरण करने पर जोर दिया संस्था के चैरमैन श्री के एल मक्कड़ ने इन कार्यक्रमों के आयोजन के महत्व पर प्रकाश डाला तथा आगामी पीढ़ियों के लिए इसे हस्तांतरित करने पर जोर दिया
समारोह में गोसाईं भूषण बाली , भीम सैन बहल पार्षद राजेश भाटिया लाजपत राय चंदना प्राध्यापक पवन सिंहशिक्षाविद श्रीमती सरोज खत्री श्रीमती राधा नरूला तथा ममेंद्र शर्मा आदि समाज के गन मान्य जन बड़ी संख्या में उपस्थित हुए संस्था के अध्यक्ष सतीश खत्री ने आगुन्तकों का आभार व्यक्त किया व इस तरह के आयोजन निंतर करने का संकल्प लिया
कार्य कर्म का सफलतम संचालन किया संस्था के महा सचिव भारत भूषण अरोड़ा ने जिस की सब ने सराहना की
अंत में प्रसाद वितरण के उपरांत कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा की गई

Sunday, March 14, 2010

विक्रमी नव सम्वत २०६७ की बहुत २ शुभकामनायें

विक्रमी नव सम्वत २०६७ की बहुत २ शुभकामनायें
भारत के महान इतिहास के स्वर्णिम इतिहास कीव विश्व की महानतम घटना विद्वान् पराक्रमी व प्रजा पालक सम्राट विक्मादित्य द्वारा नव सम्वत प्रारम्भ करने की पवित्र यादमें व सम्वत २०६७ के शुभारम्भ पर सभी मित्रों को मेरी बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें
आप सभी के लिए यह शोभन नाम का सम्वत बहुत २ प्रसन्नता लाये आप का जीवन सदा खुशियों से भरा रहे हमारा राष्ट्र उन्नति करे देश वासी खुसी से जीवन बीतें आतंकवाद का सफाया हो यही मरी इस अवसर पर परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है
डॉ वेद व्यथित

Saturday, March 13, 2010

डच चित्रकार के चित्र ब्लॉग वाणी ने क्यों बंद कर रखे हैं ?

पूरे विश्व पर आतंक का कितना भयंकर खतरा है यह इस बात से पता चलता है की ब्लॉग वाणी भी डॉ के मरे डच चित्रकार की ब्रुश के बनाये चित्र नही दिखा पा रही है जब की म फ हुसेन को अब भी लोग रोये जा रहे है यह आज के उग में भी कैसा दोहरा पनहै भारत माता के नग्न चित्र तो कोई भी बनाये या दिखाए वह अभिव्यक्ति की स्वत्न्र्ता पर डच चित्र कार के चित्र शैतानी यह दोहरा पनक्यों आखिर यह कब तक चलता रहेगा कब तक सभी समाज आतंक के साये में जीता रहेगा और कब तक उस के समर्थक उसे पलते और पोसते रहेंगे
डॉ.वेद व्यथित

इस्लाम में औरत

अबतो इस्लाम की असलियत सब के सामने आ गई है महिलाओं के साथ वहाँ कितना भेद भाव है इस्लामी धर्म गुरुओं के अनुसार वे केवल बच्चे पैदा करें राजनीति करने का एक मात्र अधिकार तो बस मर्दों का है क्या यही आज की सोच है
इस के बावजूद अब कोई महिला अधिकारवादी या तथा कथित मानवता वादी जो हिन्दू धर्म की हर बात पर तूफान उठाये रहते हैं वे अब कोई मोर्च निकलना तो दूर इस बात पर तो नींद की गोली कहा कर सो गये होंगे या कहीं गहरे बिलों में छुप गये होंगे इसी तरह वाम पंथी भी अब अपना मुंह सिल चुकेंगे अब नतो कोई विरोध होगा और न ही नारे बजी होगी मिडिया भी उन के आगे मिमियायेगा क्या एक सभी समाज की यही पहचान है यही या ऐसी बातें ही तो समाज में खाई पैदा कर रही है और कट्टर पंथियों का शिकार भी समाज धर्म के नाम पर हो रहा है
आखिर नै पीढ़ी भी तो उसी स्वर में स्वर मिला रही है उस में भी कुछ कहने की हिम्मत नही है आखिर क्या होगा इस देश का और इन महिलाओं का
अब मुस्लिम महिलाओं की पैरो करी करने वालों को भी डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी भी नही मिल रहा होगाजो संसद को सिर पर उठाये हुए थे
आखिर हम और कब सोचेंगे हम और किस वक्त का इतजार कर रहे हैं अब तो जग जाओ
डॉ. वेद व्यथित

Tuesday, March 9, 2010

भीड़ का चेहरा

भीड़ का चेहरा

बदली नही है भीड़
वर्षों वर्ष चलते हुए भी
वही लोग हैं उस में
वही चल है उन की
और उन्ही नारों की तख्तियां
उठाये हुए हैं वे हाथों में

किसी ने भी नही की है
कोशिश इसे रोकने की
कुछ पूछने की
या आगे जो बहुत बड़ी खाई है
उसे बताने की
बिलकुल कोशिश नही की है

परन्तु वास्तव में तो
भीड़ सुनती भी कहाँ उस की
उस ने सोचा भी था
एक क्षण रुका भी था वह
उस ने हाथ भी उठाया था
भीड़ को रोकने के लिए
कुछ शब्द जहन में उभरे भी थे
परन्तु बीच में ही रुक गया था वह
शब्द बाहर नही आ पाए थे उस के
होठ सिले के सिले ही रह गये

परन्तु भीड़
उसे धकियाते हुए आगे बढने लगी
वह कितने धक्के और झेलता भीड़ के
नही वह नही सह सका
अपनी ओर उठती भीड़ की उँगलियों को
क्रूरता से घूरती निगाहों को
अट्टहास कर उपहास उड़ाती आवाजों को
वह नही सह सका
और शामिल हो गया भीड़ में
परन्तु फिर भी
अपने आप को अलग मान कर
चलता रहा वह
उस भीड़ में
डॉ. वेद व्यथित

Friday, March 5, 2010

हाकी की हार

हाकी में हम हार गये बात हरने की या जितने की नही है खेल में हार जीत तो होगी ही परन्तु इस हार में अन्य कारणों के साथ २ राज नीति एक कारण तो है ही जिस का कोई जबाब इस व्यवस्था में लगता है नही है क्यों की हम न तो जबाब मांगने के हक दारहैं और न ही जबाब देने के
इस के साथ २ जोएक और बड़ा कारण है वह है हाकी जैसे खेल में भी गोल करने पर खिलाडी को व्यक्तिगत पुरस्कार की घोषणा जिस ने हाकी के खेल का सत्यानाश किया है हाकी में व्यक्तिगत इनाम के स्थान पर गोल करने पर पूरी टीम को ही भरपूर इनाम दिया जाये क्यों की गोल तक गेंद को पहुचने में पूरी टीम की हिस्सेदारी होती है उसे कैसे नकारा जा सकता है परन्तु लोगो के दिमाग में यह क्यों नही आता पता नही वे कैसे ऐसी २ घोशनाएँ करते हैं
यदि हाकी का हम सब कुछ भला चाहते हैं तो इस तरह की घोषणाओं को बंद करना ही होगा
डॉ. वेद व्यथित

Wednesday, March 3, 2010

नही मिली गैर हिन्दुओं से शुभकामनायें

होली बीत गई दूसरे धर्म के कितने लोगों ने नेट पर हिन्दुओं को होली कि शुभकामनायें दी हैं जो लोग नेट पर काम करते हैं उन्होंने देख लिया होगा कि दूसरे लोगो में हिन्दुओं कि प्रति कितना सद्भाव है जब कि दूसरे मतों के त्यौहार आते ही हिन्दू शुभकामनाओ के ढेर लगा देते है क्या यह उन का सद्भाव है या बेवकूफी यदि सद्भाव है तो दूसरे धर्म के लोगो को हिन्दुओंको शुभकामनाये नही देनी चाहिए क्या शुभकामनाये करने में भी कुछ लगता है परन्तु नही कि गई क्यों कि पाकिस्तान ने भी तो हमारी सीमाओं पर होली में गोली बरी कीहै क्या यही विमत के लोगो की असलियत है क्या हिन्दू बेवकूफ हैं हिन्दुओं को इस पर विचार नही करना पड़ेगा यदि नही करेगा तो ऐसे ही काबुल में जैसे चुन २कार मारा है क्या उस के साथ और ऐसा नही होगा पता नही यह कोम कब जागेगी जागेगी भी या नही आखिर दूसरे धर्म के लोग हिन्दुओं से व उन के रीती रिवाजों से इतनी नफरत क्यों करते है आखिर उन्हें यह बात कौन पढ़ा व समझा रहा है की हिन्दुओं को त्योहारों पर शुभकामनायें देने से या उन में सम्मलित होने से उन का धर्म समाप्त हो जायेगा क्या यही साम्प्रदायिक सौहार्द है बिलकुल नही है
डॉ.वेद व्यथित

Sunday, February 28, 2010

हाकी मैच जितने पर बधाई

देश वासियों को भारत द्वारा हाकी मैच जितने पर हार्दिक बधाई खिलाडियों देश का नाम ऊँचा कर दिया. हमे उन पर गर्व है सभी को बहुत-२ बधाई.
डॉ. वेद व्यथित

Saturday, February 27, 2010

होली की हार्दिक शुभकामनाये

मैं सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनायें प्रदान करता हूँ
इस होली में इश्वर करे आप की मन चाही हो जाये जिस से आप वर्षों से मिलने की आश लगाये बैठे हैं वे अचानक आपके घर स्वयम चल कर आ जाएँ आप के मन की कली खिल जाये आप उन्हें खूब मन चाह रंग लगायें उन से खुद भीगें और उन्हें खूब भिगएं आप दोनों मन चाहे रंगों में सराबोर हो जाएँ आप के घर खूब सरे मेहमान आयें आप के लिए खूब सारी आप की मन पसंद मिठाई लाये
इस बार यह होली ऐसी हो जाये जिसे आप जिन्दगी भर न भूल पायें यह आप की वीडियो रील की तरह आप के मन से स्टोर हो जाये और उसे जब चाहे एकेले में खूब च्लायेनुस का भरपूर आनन्द उठायें
मेरी फिर से प्रार्थना है कि भगवान आप कि सब इच्छाएं पूरी करे पर यह भी सुन लो कि भ्ग्वाजी मेरे बाप का नौकर नही हैजो मेरी सब बात पूरी कर दे उस कि अपनी मर्जी है पर मैंने तो उसे कह ही दिया है शयद मेरी बात वो मान भी ले इस लिए आप बेफिक्र हो कर होली मनाएं खूब नाचें गएँ मौज मनाये होली हुदंग मचाएं
मेरी शुभकामनायें आप के साथ हैं
डॉ.वेद व्यथित
dr.vedvyathit@gmail.com
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Thursday, February 25, 2010

कबीर का कबीर होना

कबीर को कबीर हो जाने दो कबीर यदि कबीर नही हुआ तो क्या होगा महज एक निरक्षर भट्टाचार्य .परन्तु निरक्षर होने पर भिब तो वह निरक्षर नही है कबीर तो अक्षर ब्रह्म का साधक है .यह अक्षर ही तो ब्रह्म है ,यह ब्रह्म ही तो कबीर का राम है जो उस का पिऊ है .उसीपरम पुरुष कि भूरिया या आत्मा है कबर यानि आत्मा और परमात्मा के दर्शन का कबीरी सिधांत प्रकट हो जाने दो .यह परम पुरुष ही तो केवल एक मात्र पुरुष है वहीतो एक मात्र रजा है . यह रजा राम ही तो कबीर का भरतार है कबीर के भरतार का चयन ही तो कबीरी साक्षरता है .यही तो उस की अक्षरताहै उसी कि राज व्यवस्था तो देश का आदर्श है इसी लिए तो रजा राम कि प्रति समर्पित हैं कबीर . इसी का चिन्तन करने वाले जन नायक महात्मा गांधी ने भी इसी कबीरी साक्षरता के आगे अपना मस्तक झुका दिया
वह क्या बात है अक्षर ही कितने थे कबीर कि साक्षरता के बहुत अधिक कहाँ है मात्र ढाई आखर ही तो है जिस में समाई है सम्पूर्ण चेतना सम्पूर्ण ब्रह्मांड और पूर्ण तत्व है जो सम्पूर्णता को आधार दे रहा है यही ढाई आखर .परन्तु जहाँ क्द्न्दित होने लगते हैं ये ढाई आखर कबीर को व्हिंतो खड़ा होना है कबर वहीं तो खड़ा है तभी तो वह कबीर है .परन्तु इतना आसन नही है वहाँ खड़ा होना इन अक्षरों को सहेजे रखना इस लिए तो कबीर को कबीर नही होने देता कोई ,वह व्यवस्था भी यह शासन भी .
तभी तो ता चढ़ मुल्ला बंग दे रहा है कि देश से भगा दो कबर को देश निकला दो .उस का सर कलम करो उसे कैद कर दो किसी अज्ञात स्थान पर ले जाओ कलकत्ता में कोई जगह नही है न तो कबीर के लिए न ही कबीरी अबर्त के लिए .यदिकबीर सामने आया तो हंगामा किया जायेगा उस पर हमला कर देंगे कुर्सियां उठा कर मरेंगे एक महिला को भी नही छोड़ेंगे जो भी उस के खिलाफ बन पड़ेगा करेंगे उसे मिटा कर ही दम लेंगे परन्तु कबीर को तो सोने कि जूतियाँ नही चाहियें .उसे कहाँ अच्छे लगे हैं चिनाशुक और तेल फुलेल गली २ की सखी रिझाने के लिए
उस कि झीनी चाद्रिये ही काफी है उस के शरीर को ढांपने के लिए यह भी छीन लो बेशक कबीर से जंजीरों में जकड़ लो बेशक उसे हठी के पैर से बंधकर बेशक खिच्देगा वह राजपथ पर परन्तु नही छोड़ेगा वह अपना कबीर पना नही लेगा तुम्हारा अनुदान तुम्हारी कृपा दृष्टि उसे नही चाहिए उसे नही नचाएगी माया बेशक उस शिव को नचाया ब्रह्मा को नचाता बेशक वह महा ठगनी है परन्तु जरा ठग कर तो दिखाए कबीर को माया उस के ठेंगे पर क्या बिगड़ेगी कबीर का जैसे कोलकत्ता वैसा ही दिल्ली या कशी व मगहर जहाँ भी रहेगा कबीर कबीर ही रहेगा
नही रुकेगा उस का चदरिया बुनना ऐसी चादर जो बेदाग रहेगी जिस में माया का चाटुकारिता का चरण भात होने का ठकुर सुहाती कहने का कोई दाग नही होगा इसी लिए यही चादर ओढ़ कर ही तो वह कबीर रहेगा बेशक सिर में खडाऊं लगे बेशक उस की कितनी ही परीक्षा ली जाये कबीर भागेगा नही वह राम अक्षर का बीज मन्त्र ले कर रहेगा इस धरती का मन्त्र इस ब्रह्मांड का मन्त्र जो सर्वाधार है जगत का माया का जीव का .व्ही तो महा जल है अंतर कहाँ है जल और जल में एक ही तो है इस जल कि एक ही तो जातहै हरिजन कि जात कौन नीच है कौन उंच है कबीर क तो बस एक ही जात पीरी है हरी जन कि जात यही तो मर्म है कबीर का इसी जातिके संरक्ष्ण में तो लाना है चाहता है कबीर सब को देश को दुनिया को .क्यों कि एक ही रह से तो आये हैं हम सब तो कैसे अलग अलग हो गये यही तो कबीर का प्रश्न है कबीर तो व्ही है जिस में दैवत नही है फूटे ही कुम्भ सब जल एक ही जल तो है यानि महाजल यानि वही राम जिस से कबीर कबीर बन सके
इसी लिए समर्पित है कबीर राम के प्रति बेशक वह उस के गले में रस्सी बांध कर उसे कहीं खींच ले जाये कबीर टॉम कूकर है राम का जहाँ राम ले जाये कबीर तो उत जाये कबीर नही भागेगा रस्सी तोड़ कर उसे ठौर कहाँ है दूसरी जहाज का पंछी तो ठिकाना ढूढने जाता है परन्तु दूसरा ठिकाना कोई और है ही नही इसी लिए राम का यह कूकर तो कहीं नही जायेगा वह तो उस के चरणों में ही रहेगा वहीं जियेगा वहीं मरेगा इसी लिए तो वह कबीर हो पायेगा इसी लिए कबीर को कबीर हो जाने दो सुन्न महल में लजा लेने दो दीया नही तोचारो और घिरा रहेगा अँधेरा कुछ भी सूझेगा अच्छे बुरे का अंतर ही पता नही चलेगा इस लिए जरूरी है कबीर होने के लिए सुन्न महल में दिया जलाना ताकि सब कुछ स्पस्ट हो जाये सब भ्रम दूर हो जाएँ और चमक उठे झिलमिल झिलमिल नूर एक नूर जो बस एक ही है बस वही झिलमिल नूर और कबीर हो जाये कबीर बस हो जाने दो कबीर को कबीर
डॉ.वेद व्यथित

Wednesday, February 24, 2010

स्त्री

स्त्री
पुरुष यानि व्यक्ति
जो सो सकता है पैर फैला कर
सारी चिंताएं हवाले कर
पत्नी यानि स्त्री के
और वह यानि स्त्री
जो रहती है निरंतर जागरूक
और देखती रहती है
आगम की कठोर
नजदीक आती परछाईं को
और सुनती रहती है
उस की कर्कश पदचापों की आह्ट
क्योंकि सोती नही है रातरात भर
कभी उद्हती रहती है
बुखार में कराहते बच्चे को
या बदलती रहती है
छोटे बच्चे के गीले कपड़े
और स्वयम पड़ी रहती है
उस के द्वारा गीले किये बिछौने पर
या गलती है हिम शिला सी
रोते हुए बच्चे को ममत्व का पय दे कर
और कभी कभी देती रहती है
नींद में बद्बदते पति यानि पुरुष के
प्रश्नों का उत्तर
क्योंकी उसे तो जागना ही है निरंतर
डॉ.वेद व्यथित

Tuesday, February 23, 2010

भारत पाक वार्ता पर मुक्तक

कहाँ गये वो बोल तुम्हारे जो लाशों पर बोले थे
सबक सिखायेंगे दुश्मन को बार बार यों बोले थे
जब तक आतंकी हरकत है बात नही होगी उन से
पर इस प्रेम वार्ता के हित मंत्री जी क्यों बोले थे

शायद यद् नही रहता है मंत्री ने क्या बोला है
जब जब आतंकी हमले ने भारत का दिल तोडा है
पर ऐसे नापाक इरादों से मंत्री पर फर्क नही
क्यों की उस ने देश नही कुर्शी से नाता जोड़ा है

शायद कुर्सी तुष्टि और बस वोट सभी कुछ है इन को
चिंता क्या है इन्हें देश की कुर्सी सब कुछ है इन को
ज्यादा दिन अब दूर नही है जब ये देश बेच देंगे
इन बातों का फर्क नही है देश क्या चिंता इन को

डॉ.वेद व्यथित
१५७७ -सेक्टर ३ फरीदाबाद -१२१००४
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Sunday, February 21, 2010

Holi

ननुआ ने तो भंग चढाई धोती फाड़ी ललुआ ने
कर रुमाल धुतिया के भैया ताल लगे कलुआ ने
दिल्ली गूंजी सब जग गूंजा खूब सुने अगुआ ने
बड़ी में के गिर चरणों में धोक लगाईं मनुआ ने

चीनी मिल रही पांच रुपया कडुआ तेल मुफ्त में है
डाल मिल रही दो दो रुपया रोटी संग मुफ्त में है
कैसा सुंदर राज है भैया होली खूब मनाओ जी
हाथों को मलते रह जाओ लाली खूब मुफ्त में है
डॉ.वेद व्यथित
१५७७- सेक्टर -३ फरीदाबाद -१२१००४
http://sahityasrajakved.blogspot.com
dr.vedvyathit@gmail.com

Friday, February 5, 2010

Muktak

जो जनता को नाच नचाते उन को गुंडे नचा रहे
ताल एक हो जाये सब की तालीवे सब बजा रहे
सब की मिली भगत होती है नेता अफसर गुंडों की
नये साल में नाच नाच कर ऐसा ही वे बता रहे

नाच नचाना और नाचना ये शासन का सूत्र यहाँ
मंहगाई बस बढती जायेबस ये शासन का सूत्र यहाँ
चीनी अभी और भी मंहगी होगी नेता कहते हैं
नेता गीरी और मंहगाई का है अच्छा सूत्र यहाँ

आतंकी तो भगने ही थे और जेल में क्या करते
क्या बिरयानी खाते खाते वे बेचारे न थकते
अब तक ही क्या किया आप ने आगे भी तुम क्या करते
छूटना तो था ही था उन और प्रतीक्षा क्या करते

क्या साधारण कानूनों से आतंकी रुक सकते हैं
देश द्रोह जैसे मद्दे को को क्या हम खास समझते हैं
इसी लिए ऐसी घटनाएँ खूब सहज घट जाती हैं
क्यों की जल्दी फाँसीअफजल कोभी न दे सकते हैं

" मोमिजि के रंग "

' " मोमिजि के रंग "

'मोमिजिके रंग ' मेंसुपर्ण मोमिजि के रंग तो हैं ही साथ ही इस अद्भुत रचना में सप्त वर्णीय इन्द्रधनुषी छटा की दिव्यता का अद्भुत पुष्पाभरण है जिसेबहुभाषा विदुषी व प्रख्यात लेखिका डॉ. राज बुधिराजा एवं हिन्दी भाषा के प्रति श्रद्धान्वित व प्रेमानुरागी टोमोको किकुची व योशियो तकाकुराने भिन्न भिन्न पुष्पों से सुसज्जित व समन्वित कर के दिव्यता प्रदान की है इस में दो देश जापान व भारत की अद्भुत मैत्री है सौहार्द है सामंजस्य है प्रेम है स्नेह है और पवित्रता व दिव्यता है इस के साथ साथ इस में प्रकृति सुन्दरी की अनुपम छटा है इस चित्रं का पटल [कैनवस ]सम्पूर्ण पृथ्वी ग्रहहै जिस की इस अनुपम शोभा की अनुकृति को सम्पादक त्रय ने बड़े मनोयोग वत्सलता पूर्ण आत्मीय भाव व स्वांत:सुखाय के रूप में चित्रित किया है
भाषा द्वै के साहित्य में जो जो भी रत्न माणिक्य व मौतिक आदि सम्पादक त्रय को गहरे पैठ करही प्राप्त हुए हैं उन्हें अनथक श्रम पूर्वक इस कृति में अलंकृत किया है भारतीय संस्कृत भाषा साहित्य की प्रारम्भ काल की रचनाओं से ले कर अद्यतन हिन्दी रचनाओं तक एवं इसी प्रकार जापानी भाषा की प्राचीन रचनाओं से ले कर आज तक की सुंदर रचनाओं को मोमिजि के रंग में स्थान दिया है दोनों भाषों की रचनाओ में जो प्राकृतिक सौन्दर्यबोध है वह इन सुकोमल पत्रावलियों के माध्यम से इन रचनाओं में अद्भुत ढंग से उतर आया है और यहीअनुपम सौन्दर्य इस पुस्तक का वैशितय है
यह पुस्तक अपने आप में अलीक अदिव्तीय व असाधारण है क्यों की इतनी सारी सामग्री को एकत्र करना क्रमबद्धता प्रदान करना सहेजना और फिर उस का कुशल सम्पादन करना कोई हंसी खेल बात नही है यह बच्चों का खेल नही है उस के साथ साथ इस सामग्री का लिप्यांतर व भाषांतर करना अत्याधिक श्रम साध्य कार्य है जिस में सम्पादक त्रय ने अपनेज्ञान व कौशल के साथ साथ अपनी निष्ठां व लग्न का भी स्तुत्य परिचय दिया है सम्पादक त्रय का इस के लिए किन शब्दों में साधुवाद दिया जाये वह अनिर्वचनीय है और बड़ी बात तो यह रही कि इस श्रमसाध्य कार्य को याज्ञिक अनुभूति व इस के प्रति फल को यग्य शेष के रूप में स्वीकार कर ईश्वरके प्रति उन का समर्पण भाव उन का बडप्पन नही तो और क्या है जो सदा अनुकरणीय व स्मरणीय है मैं सम्पादक त्रय को साधुवाद व हार्दिक शुभकामनायें तथा बधाई देता हूँ
डॉ.वेद व्यथित
dr.vedvyathit@gmail.com

Wednesday, February 3, 2010

बीमा की महिमा

बड़ी मधुर २ आवाज में
कुछ आने लगे
मुझ जैसे नाचीज को भी
सर कह कर बुलाने लगे
फिर बीमा करवाने के
बिना पूछे ही फायदे बताने लगे
बहुतेरा मना किया
मैं झुंझलाया झल्लाया
पर उनपर इस का कोई
फर्क नही पाया
वह मेरे घर में आतंवादी सा घुस आया
मैं घबरा गया
उस ने मुझे नही मेरी पत्नी को समझाया कि
बीमा के कितने फायदे हैं
उस ने फायदों को बताना शुरू किया
एक एक कर गिनवाना शुरू किया
बड़े आराम से समझाया
और सब से पहले बताया कि
बीमा करवाने के बाद
यदि इन को कुछ हो जाये तो
आप के वारे के न्यारे हो जायेंगे
गरीबी के दिन मिट जायेंगे
आप भी ऐश करेंगी
बच्चे भी मौज उड़ायेंगे
आप को लाखों रूपये
एक ही झटके मिल जायेंगे
उन की समझ में
यह बात आ गई
उन्हें यह बात बहुत भा गई
बस फिरक्या था
उन्होंने बीमा करवानेकी
जिद्द पकड़ ली
और न करवाने पर
कैकई की तरह
कोप भवन में जाने की
तैयारी कर ली
क्यों कि उन्हें हर हल में
मेरा बीमा करवाना था
उस का पूरा फायदा उठाना था
हम ने हजारों ही कहाँ देखे ठेव
पर बीमा के बाद मरने पर
तो लाखों मिलने थे
गरीबी मिटनी थी
उन्हें सब इच्छाएं पूरी करनी थी
बढिया सड़ी खरीदनी थी
गहनेबनवाने थे
बालों को कालाकर के
जवानी के दिन दुबारा लाने थे
बच्चे भी कह रहे थे
हम भी सुखी हो जायेंगे
फटीचर बाप से कम से कम
छुटकारा तो पाएंगे
वारे न्यारे हो जायेंगे
दो चार मोटर साइकिल खरीदेंगे
उन का सैलेंसर निकल कर
शहर भर में घूमेंगे
चलते चलते फब्तियां कसेंगे
दिल को फेंकेंगे
पुलिस को चमका दे कर
भाग जायेंगे
यदि पकड़े गये तो
बड़ा सा नोट दे कर छूट जायेंगे
सभी ने अपने अपने
खूब ख्याली पुलाव पकाए
पर हम ने पसीज पाए
तो भी क्या हुआ
एजेंट बड़ा घाघ था
दूसरे की जेब से
पैसा निकलने में तो
उस का बड़ा कमल था
यही तो उस का सफलतम
बाजारवाद था
उस ने पासा पलता
दूसरा दाव फैंका
रोटी को तवे पर नही
सीधा आंच पर सेका
उस ने मेरी पत्नी को
चाय बनाने भेजा
फिर मुझ से बोला
जल्दी करो अपना नही तो
अपनी पत्नी का फार्म भर दो
मर गई तो हजारों नही
गारंटी से लाखों पाओगे
और यदि पैसा है तो
आप बुत महान हैं
समाज सेवी हैं
कद्रदान हैं
यदि पैसा है तो बेजान में भी जान है
फिर आप तो समझदार हैं
बहुएं तो जलती रहती हैं
वे बेमौत मरती रहती हैं
कुछ मर दी जाती हैं
कुछ मरने को मजबूर कर दे जाती हैं
पैसा हो तो सब ठीक हो जाता है
कुछ ही दिन में आदमी
दूसरी ले आता है
बिन पैसे के अटठारह की लाता है
और पैसा हो तो सोलह की ले आता है
फिर खूब मौज उडाता है
उस ने मुझे क्या क्या
सब्ज बैग दिखलाये
हम दोनों को दो
हुक्म के इक्के भी थमाए
पर उस के ये इक्के भी काम न आये
एजेट को तो हम ने हराया
पर पत्नी नही हारी
उन का बार बार आग्रह था
ऐ जी मन जाओ
पर हम ने उन्हें कहा कि
तुम ही अपना फ़ार्म भरवाओ
परन्तु वह अड़ गईं कि
तुम ही बीमा करवाओगे
पर जब मैं नही मानातो
वे अंदर से बेलन ले आईं
और अपनी नारी वादी
प्रगती शीलता पर उतर आईं
एजेंट डर गया
बेचारा अपने फार्म वहीं
छोड़ कर भग गया
बीमा होने से पहले ही
पालसी का क्लेम मिल गया

डॉ. वेद व्यथित

Friday, January 29, 2010

फ़ोन विहीन नेता जी

नेता जी चिंतन कर रहे थे देश कीसमस्याओं में उलझ रहे थे उन में गहराईसे डूब रहे थे इसी गहराई में चिन्तन करते करते देश का बहुत उद्धार कर दिया दुनिया भर का निर्माण कर दिया ऊँची २ इमारतें बना दी बड़े २ बांध बना दिए नदियों पर पुल बना दिए ऐसा ही पता नही क्या २ हवा में बना दिया देश का तो इन चिन्तन के क्षणों में नकशाही बदल दिया
इसी तन्द्रा यानि चिन्तन में एक चमचा प्रकट हो गया नेता जी के कार्यों पर गर्व से उस का सिरनेता जी चरणों पर झुकाया फिर उस ने अपना चमचा धर्म निभाया उस ने नेता जी से इस निर्माण के उदघाटन की प्रार्थना की और कहा आप ने देश पर कितना उपकार किया है देश की जनता का कल्याण किया है अब आप देर मत करें आप के हाथ में जो नारियल है उसे तोड़े जोर से सडक पर पटक कर फोड़ें और इस सरे हवाई निर्माण का उद्घाटन करें बस फिर क्या था नेता जी ने अपना धर्म निभाया उद्घाटन करने को हाथ में पकड़ा नारियल जोर से दे मारा नारियल टुकड़े २ हो गया परन्तु तेज आवाज से नेता जी का चिन्तन भंग हो गया क्यों की न तो वहाँ कोई उद्घाटन था और न ही नारियल था उन के हाथ में तो उन का सेल फोन था जो चिंतन में नारियल हो गया था और जोर से पटकने पर टुकड़े २ हो गया था दूर २ तक बिखर गया था नेता जी का चिन्तन भंग हो गया था
फोन क्या टूटा नेता जी फोन हीन हो गये नेता जी फोन हीन क्या हुए गजब हो गया जैसे युद्ध में योद्धा शस्त्र हीन हो जाये ,फ़ौजी सीमा पर बिना बंदूक के तैनात कर दिया जायेसिपाही से उस का डंडा छीन लिया जाये मजदूर को बिना औजार काम पर लगा दिया जाये पत्रकार को खबर न लिखने दी जाये लेखक से कलम छीन ली जाये ड्राइवर को गाडी न चलाने दी जाये रेल को सिंग्नल न दिया जाये हीरो को विलं की पिटाई न करने दी जाये विलं को गुंडा गर्दी न करने दी जाये प्रेमिका को प्रेमी संग बात न करने दी जाये प्रेमी को प्रेमिका के चक्कर में बिना पीते छोड़ दिया जाये पत्नी को पति आँख न दिखने दी जाये औरतों को चुप रहने के लिए कहा जाये बच्चों को शरारतों से रोका जाये अध्यापकों को टूशन न पढ़ने दी जाये स्टेशन पर चाय वालों को चाय २ का शोर न मचाने दिया जाये या और जो २ भी ऐसा कुछ भी आप के दिमाग में आये वह सब फिर आप अंदाजा लगायें की तब क्या हो सकता है ठीक वही हालत बिना फोन के नेता जी की हो गई जैसे जल बिन मछली की दशा होती है चकोर की चाँद के बिना होती है चातककी बिना स्वाती जल के होती है सूर्य की पूर्ण ग्रहण के समय होती हैचन्द्रमा जैसे बिना चांदनी के होता है नदियाँ बिनाजल के जैसे होती हैं समुद्र बिना जल के जैसे होता बस ऐसी ही हालत नेता जी कीबिना फोन के हो गई भला आज के समय में फोन हीन नेता भी कोई नेता हो सकता है कदापि नही तो
परन्तु अब क्या हो बिना फोन नेता ,नेता नही होता क्यों की फोन हीन नेता तो लोक तन्त्र के लिए बहुत बड़ी हानि हैनेता जी फोन ही तो इस लोकतंत्र की चाबी है जैसे कार बिना ड्राइवर के नही चलती बल्व या तुब जैसे बिना लाइट के नही जलती जुआ खेले बिना जैसे कोई जुआरी नही होता शराब पिए बिना जैसे कोई शराबी नही होता ऐसे ही भला बिना फोन के नेता भी नेता नही होता और बिना नेता के भला लोकतंत्र भी कोई लोकतंत्र रह सकता है कदापि नही
इसी लिए कुछ देर के लिए लोक तन्त्र पर खतरा मडराने लगा वह अपनी सार्थकता यानि लोकतंत्रिकता खोने लगा यानि लोकतंत्र फेल होने लगा वह लोकतंत्र न रह कर कुछ और होने लगा क्यों की लोक तन्त्र के रहने पर शहर में सोने की चैन लुटेरों को चोरों को डैकेतों को पुलिस ने पकड़ लिया और ठाणे में बंद कर दिया उन के हित चिंतक लोग लोकतंत्र में अपना हक मागने नेता जी के पास पहुंचे और बोले अपना वायदा निभाओ हमारे काम आओ तुरंत पुलिस को फोन करो हमारे आदमियों को छुड वाओ पुलिस वालों को धमकाओ थानेदार का तबादला करवाओ उसे लाइन हाजिर करवाओ परन्तु आज नेता जी का हथियार उन पर नही था वह नारियल सा उदघाटित हो गया था अब फोन हें नेता जी क्या करें पुलिस को फोन कैसे करें कैसे उन्हें धमकाएं और अपने समथको को कैसे छुडाएं इसी बीच एक बड़े दान दाता के यहाँ इनकम टेक्स की रेड पद गई अरबों दो नम्बर का रुपया पकड़ा गया इस्पेक्टर अरबों की जगह लाखों दिखाना चाहता था परन्तु यह तो उन की बेइज्जती थी उन्होंने कहा कम से कम करोड़ों तो दिखाओ क्यों की बाद में तो मिल ही जाना है इस बात पर दोनों में तकरार हो गई ददन दाता ने नेता जी को फोन मिलाया परन्तु नेता जी का फोन तो उद्घटित हो चुका था मिलता कहाँ से आज तो नेता जी फोन हीन थे इस लिए उन्होंने अपना आदमी दौड़ाया परन्तु नेता जी बिना फोन के असमर्थ हो गये यानि बिना के लोकतंत्र के प्रहरी निरस्त हो गये
शहर में और भी कई जगह हलचल हुई लुचे लफंगे काम चोर कर्मचारी बेईमान भ्रष्ट अधिकारी सभी की आफत आ गई नेता जी फोन हीन क्या हुए लोकतंत्र पर बड़ा कुठारा घात हो गया आखिर लोकतंत्र के प्रहरी का एक ही तो काम होता है अपने गुलाम अफसरों को फुनवनाउनको डरना धमकाना तबादले करवाने का कह कर डरना इमानदार पुलिस वालों को लाइन हाजिर करवाना अपने मन माफिक काम करने वाले अफसरों को मन पसंद जगह तैनात करवाना आदि आदिलोकतंत्र के सभी काम रुक गए क्यों की ये सरे काम ही तो नेता जी के फोन से होते हैं विभाग के अधिकारी तो मात्र क्ग्जी कार्यवाही कर के हस्ताक्षर भर करते हैं लोक के तन्त्र का असली काम तो नेता जी करतें हैं इस लिए लोक तन्त्र की रक्षा के लिए कृत संकल्प नेता जी के चमचों ने तुरंत फोन का इंतजाम किया तब जा कर कहीं फिर से लोकतंत्र चालू हुआ
इसी लिए आगे से ध्यान रखा गया की सरकार की ओर से लोकतंत्र की रक्षा के लिए नेताओं को फोन के साथ २ कम्प्यूटर लेपटोप आदि सुविधाएँ भी दी गईं बच्चों केवन्य परिवार वालों के लिए नेता जी के साथ २ उन्हें भी सरकारी गाड़ियाँ भी दे दी गईं ताकि लोकतंत्र चलता रहे लोकतंत्र को ठीक से चलाने के लिए नेताओं के इर्द गिर्द सुविधाओं व सहूलियतों का जल बिछता और बढ़ता रहे लोकतंत्र सुरक्षित रहे
जय लोकतंत्र जय नेता जी जय फोन बाबा की
डॉ. वेद व्यथित
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१५७७ सेक्टर ३ फरीदाबाद -१२१००४

Wednesday, January 20, 2010

मुक्तक

मुक्तक

जितनी सर्द हवाएं होंगी उतनी आग जलेगी
मन के हर कोने कोई चिंगारी सुलगेगी
यदि शांत हो जाएगी यह आग लगी जो दिल में
फिर तो सर्द हवाएं दिल को अपना सा कर देंगी

सर्द हवाओं को भी मैंने मन से कब कोसा है
यही समय तो मन -अलाव को सुलगना होता है
यदि यह सुलगेगा न तो आग जलेगी कैसे
बिना जलाये आग कभी दिल भी क्या दिल होता है

सर्द हवाएं अंदर तक नजरों सी जा चुभती हैं
मन के अंगारों को पल में बुझा रख करतीं हैं
फिर भी दबे हुए अंगारे धधक २ जाते हैं
मन कि छोटी सी चिंगारी बी ज्वाला बनती है

दिल को इतना जला दिया कि आहें गर्म हो गईं
दिल को कितना और जलाता अस्थि गर्म हो गई
फिर भी सर्द हवाएं मन में चुभती ही जाती हैं
सर्द हवाओं से तो तन कि सांसें गर्म हो गईं

इतनी सर्दी पड़ी कीदिल की धडकन सर्द हो गई
इतने क्द्क्द दन्त क्द्क्दाये कुल्फी गर्म हो गई
गर्म गर्म चाय की चुस्की कहाँ नसीब हुईं हैं
चाय ज्यों ही कूप में डाली चाय बर्फ हो गई
dr.vdevyathit@gmail.com

अविनाश वाचस्पति: हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग और कोहरे में जाम देखन मैं चल्‍या ... (अविनाश वाचस्‍पति)

अविनाश वाचस्पति: हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग और कोहरे में जाम देखन kohra nhi koh ram hai
is me to ho gya
jina hram hai
dr.ved vyathitमैं चल्‍या ... (अविनाश वाचस्‍पति)

Saturday, January 9, 2010

मुक्तक

सभी ओर चर्चे हैं धरती गर्म बहुत हो जाएगी
बर्फ पिघल जाएगी सारी बस पानी हो जाएगी
उस के बाद बहुत सा पानी धरती पर भर जायेगा
पर सोचो ये ऐसीनोबत किस के कारण आएगी

कोन सुन रहा है धरती की गर्म आह निकली कितनी
सर्पों की जिह्वा की जैसी ज्वालायें निकली कितनी
फिर भी तो पीड़ा दायी हम उत्सर्जन कर रहे यहाँ
किस के मुंह से बस कहने की बात अभी निकली कितनी

जिन पर एक निवाला ही था उस को ही छिना तुमने
तन ढकने को एक लंगोटी वह भी छिनी है तुमने
देश बचा है जैसे तैसे उस को भी गिरवी रख दो
सारा कुछ तो बेच खा गये छोड़ा ही क्या है तुमने

इसी तरह जनता का पैसा कोड़ा वोडा खायेंगे
कानूनों का लिए सहारा खूब ही उसे पचाएंगे
क्या कर लोगे उन का तो कुछ बल नही बांका होगा
अध् नंगे भूखे प्यासे वे बेचारे मर जायेंगे

कुछ महीने भी चली नही जो सडक बनाई है तुमने
रोड़ी जो लिख दी कागज में कहाँ लगाईं है तुमने
इसी तरह पुल और भवन भी तुमने खूब बनाये हैं
खा कर सारा माल देश का मौज उड़ाई है तुमने

देश हुआ आजाद तो फिर आजाद उसे रहने देते
राजनीति के हाथों लोगों को गिरवी तो मत रखते
कहीं तेलगी कहीं ये कोड़ा मुंह की रोटी छीन रहे
राजनीति यदि सेवा होती फिर ये एसा क्यों करते

सेवा सेवा की रट ने हिसेवा को बदनाम किया
खाली घर जिन के होते थे उन को माला माल किया
ये है सेवा ये उस का फल कैसी ये बेशर्मी है
शर्म करो सेवा कहने से देशद्रोह का कम किया

शीत ऋतू की त्रिप्दि

अब धूप नही आती
सूरज को उलहना है
उस को वः सताती है

क्या वो अनजानी है
ये हो ही नही सकता
सर्दी तो रानी है

जब हाथ ठिठुरते हैं
टीबी मन के अलावों में
दिल भी तो जलते हैं

ये आग तो धीमी है
दिल और जलाओ तो
ये धूप ही सीलीहै

वो महल अटारी से
क्यों निचे नही आती
सूरज की थाली से

कुछ भी तो नही दिखिता
मन छुप २ जाता है
है कोहरा घना इतना

कपडों के खान जाती
ये ठिठुरन इतनी है
वहआग लगा जाती

सरसों अब फूली है
देखो तो जरा इस को
किन बाँहों में झूली है

ये बर्फ जमीन ऐसी
वो मन को जमाएगी
अपना सा बनाएगी

जब धुंध भुत छाए
मन के हर कोने में
टीबी एक किरणआये

मक्के की दो रोटी
और साथ में हो मठ्ठा
और थोडी डली गुड की

क्यों धोप नही बनते
सर्दी की दुपहरी में
सूरज से नही लगते

रिश्ते न जम जाएँ
दिल को कुछ जलने दो
वे गर्माहट पायें

रोके नही रूकती हैं
ये सर्द हवाएं हैं
ये आग सी लगती हैं

मीठी सी बातें थीं
गन्ने का रस जैसी
वे ऐसी बातें थीं

लम्बी सी रातें हैं
ये कहाँ खत्म होतीं
ये बातें ऐसी हैं