Friday, May 27, 2011

अच्छे दिन फिर से आयेंगे

अच्छे दिन फिर से आयेंगे

मन में जैसे भाव रहेंगे
वैसे चित्र उभर आयेंगे

जीवन की बाजी हारी तो
दुनिया में अँधियारा होगा
दिन में सूरज के रहते भी
रात अमावश जैसा होगा

फिर मत कहना अंधियारे तो
अपनी ताकत दिख लायेंगे ||

बेशक पतझड़ आ जाती है
पत्ते मुरझा कर गिर जाते
फिर भी वृक्ष खड़ा रहता है
हृदय हिन सा सीना ताने

क्योंकि आशा लिए हुए है
कोमल पत्ते फिर आयेंगे ||

बेशक खूब बवंडर आयें
बेशक धरती भी हिल जाये
कितनी विपदाएं भी आ कर
अपना ध्वंस नृत्य दिखलायें

फिर भी जीवन की बगियाँ में
सुमन बहुत से खिल जायेंगे ||

आशा और निराशाओं के
जीवन में कितने क्षण आते
दुःख और सुख की वे दोनों ही
रेखाएं अंकित कर जाते

फिर भी तो आशा रहती है
अच्छे दिन फिर से आयेंगे ||

Tuesday, May 24, 2011

गीत

गीत
राह सूझती नही
बहुत उलझा पथ है
ये मर्यादाएं हैं या
केवल उन का भ्रम है
मैं खड़ा देखता रहा
चलूँ तो किस पथ में |

कुछ राह चुनीं
देखीं परखी
कुछ दूर गया
आगे जा कर देखा
तो कुछ और मिला
अब वापिस लौटूं
या आगे कुछ और चलूँ
अब इस ही पथ में |

ऐसे तो राहें बहुत
और जीवन थोडा
किस २ को परखूँ
किस पर कितने
कोस चलूँ
कोई तो राह बची हो
शेष जहाँ मानवता हो
वह राह कठिन से कठिन
कठिन अग्नि पथ हो
मैं चल लूँगा जैसे भी होगा
उस ही पथ में ||

Wednesday, May 18, 2011

ग्रीष्म ऋतू की त्रिपदी

त्रि-पदी हिंदी के लिए नया छंद है मैंने नेट पर पहले सर्दी कि त्रिप्दियाँ प्रकाशित कि थीं जिन का मित्रों ने भरपूर स्वागत किया था व आशीर्वाद दिया था इसी कड़ी में ग्रीष्म ऋतू पर कुछ त्रिपदी प्रस्तुत है

ग्रीष्म ऋतू की त्रिपदी

क्यों इतना जलते हो
थोडा तो जरा ठहरो
क्यों राख बनाते हो

ये आग ही तो मैं हूँ
यदि आग नही होगी
तो राख ही तो मैं हूँ

अपनों ने ही सुलगाया
क्या खूब तमाशा है
नजदीक में जो आया

दिल में क्यों लगाई है
ये और सुलगती है
ऐसी क्यों लगाई है

ज्वाला भड़कती है
आँखों की चिंगारी
दिल खूब जलती है

ये सर्द बना देगी
इस आग को मत छूना
तिल तिल सा जला देगी

क्या क्या न जलाएगी
इस आग को मत छेड़ो
ये मन को बुझाएगी

इस आग को मत छेड़ो
यह दिल में सुलगती है
इस को मत छेड़ो

अंगार तो बुझता है
कितना भी जला लो तुम
वह दिल सा बुझता है

हर आँख में होती है
ये आग तो ऐसी है
ये सब में होती है

जलना ही मिला मुझ को
मैं तो अंगारा हूँ
कब चैन मिला मुझ को

जल २ के बुझा हूँ मैं
बस आग को पिया है
उसे पिता रहा हूँ मैं

मुझे यूं ही सुलगने दो
मत तेज हवा देना
कुछ तो जी लेने दो

सब आग से जलते हैं
कुछ को वो जलती है
कुछ खुद को जलते है

क्यों आग से घबराना
जब जलना ही था तो
क्यों उस को नही जाना

हाँ आग बरसती है
यह जेठ दुपहरी ही
सब आग उगलती है

क्यों दिल को जलते हो
ये इकला नही जलता
क्यों खुद को जलते हो

मरना भी अच्छा है
तब ही तो जलता हैं
जलना भी अच्छा है

धुंआ भी उठने दो
अंगार बनेगा ही
धीरे से सुलगने दो

यह आग न खो जाये
दिल में ही इसे रखना
यह रख न हो जाये

यह आग है खेल नही
दिल जैसी सुलगती है
इसे सहना खेल नही

Sunday, May 15, 2011

त्रि पदी

यह हिंदी काव्य की नई विधा है
यह हाइकू नही है यह तीन पंक्तियों की रचना है
इस में रिदम भी है
थोड़े से शब्दों में काव्य का चमत्कार व रस दोनों की अनुभूति होती है
मेरे ऐसी त्रि पदी देश विदेश में प्रकाशित हो चुकी हैं हो सकता है आप को भी पसंद आ जाये ये प्रचलित क्षणिका नही हैं पर निश्चित ही क्षणिका से भी छोटी विधा है जो क्षणिका नही तो और क्या है
कृपया आप चाहें तो विषय के अनुसार इन्हें कोई क्रम अवश्य देने की कृपा करें व जो भी उपयोगी प्रतीत हों कृपया उपयोग कर लें अन्ता अनर्गल समझ कर छोड़ दें
वेद व्यथित

दीवार से मत कहना
वो सब को बता देगी
ये बूढों का कहना
<>
गम अपने छुपा रखना
अनमोल बहुत हैं ये
ये कीमती हैं गहना
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दिल खोल के मत रखना
वो राज चुरा लेंगे
कुछ पास नही बचना
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जब हाथ ठिठुरते हैं
तब मन के अलावों में
दिल भी तो जलते हैं
<>
ये आग ही धीमी है
दिल और जलाओ तो
ये आग ही सीली है
<>
चूल्हे की सिकी रोटी
अब मिलती कहाँ है माँ
तेरे हाथों की रोटी
<>
सरसों अब फूली है
देखो तो जरा इस को
किन बाहों में झूली है
<>
रिश्ते न जम जाएँ
दिल को कुछ जनले दो
वे गर्माहट पायें
<>
नदियों के किनारे हैं
हम मिल तो नही सकते
पर साथी प्यारे हैं
<>
मीठी सी बातें थी
गन्ने का रस जैसी
वे ऐसी यादें थीं
<>
ये प्यार की कीमत है
सब कुछ सह कर के भी
मुंह बंद किये रहना
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फूलों का अर्थ नही
वे फूल से होंगे ही
पर फूल का अर्थ यही
<>
फूलों ने बताया था
नाजुक हैं बहुत ही वे
कुछ झूठ बताया था
<>
दिल की क्यों सुनते हो
ये बहुत सताता है
इस की क्यों सुनते हो
<>
कहते दिल पागल है
इसे समझ नही आती
सच में ये पागल है
<>
दो राहें जाती हैं
मैं किस पर पैर रखूं
वे दोनों बुलातीं हैं
<>
ज्वाला भडकाती है
आँखों की चिंगारी
दिल खूब जलाती है
<>
क्यों आग से घबराना
जब जलना ही था तो
क्यों उस से को नही जाना
<>
ये आग न खो जाये
दिल में ही इसे रखना
ये राख न हो जये
<>
यह आग है खेल नही
दिल इस से जलता है
इसे सहना खेल नही
<>
मन मन्दिर तो है ही
क्यों कि तुम इस में हो
ये मन्दिर तो है ही
<>
आँखों ही आँखों में
जो बात कही उन से
वो बात है चर्चों में
<>
एक दिया जलता है
सो जाते हैं सब पंछी
दिल उस का जलता है
<>
आँखों में समाई है
कोई और नही देखे
तस्वीर पराई है
<>
यादों का सहारा है
यह उम्र की नदिया का
एक अहं किनारा है <>
यह धूप है जड़ों की
इसे ज्यादा नही रुकना
लाली है गालों की
<>

आँखों में समाई है
क्यों फिर भी नही आती
ये नींद पराई है
<>
एक सुंदर गहना है
इसे मौत कहा जाता
ये सब ने पहना है
<>
यह जन्म का नत अहै
इसे मौत कहा जाता
यह लिख कर आता है
<>

Tuesday, May 10, 2011

कुछ नही बदलता है

पतझड़ ,वसंत ,
सर्दी गर्मी व बरसात
सभी कुछ आता है
हर बार अपनी ही तरह
परन्तु हम ही उसे
करते हैं कम या अधिक
अपने २ मन की
तराजू पर तोल २ कर
कभी कोयल की कूक को सुंदर बता कर
कभी बसंत के पीले रंग को
अपने दुःख से मिला कर
परन्तु न तो मौसम बदलता है
अपना रंग ,अपना मिजाज
और न ही अपना क्रम
अपितु हम ही बदल जाते हैं
और रंगते रहते हैं
अपने ही रंगों में
फूलों को ,भंवरों को ,तितलियों को
बादलों को ,शीत को और ताप को

Sunday, May 8, 2011

व्‍यथित 'अन्‍तर्मन '

गुल्लक
राजेश उत्‍साही की यादों,वादों और संवादों की

मेरी कविताएं 'गुलमोहर' मेंऔर आवारगी 'यायावरी' में पढ़ें।
SATURDAY, MAY 7, 2011

96...व्‍यथित 'अन्‍तर्मन '

डॉ. वेद ‘व्‍यथित’ जी से मेरा पहला परिचय साखी ब्‍लाग पर हुआ था। वहां उनकी कविताएं प्रकाशित हुईं थीं। आदतन मैंने अपनी टिप्‍पणी की थी। मुझे याद है मैंने लिखा था ,वेद जी अपनी कविताओं में आत्‍मालाप करते नजर आते हैं। टिप्‍पणी थोड़ी तल्‍ख थी, पर उन्‍होंने मेरी बात को बहुत सहजता से लिया था। मैं उनका तभी से मुरीद हो गया।


पिछले दिनों मैंने गुल्‍लक में सुधा भार्गव जी पर एक टिप्‍पणी लिखी थी और उनकी कविताओं की किताब का जिक्र करते हुए कुछ कविताएं भी दी थीं। संयोग से सुधा जी और वेद जी एक-दूसरे से पहले से परिचित थे, पिछले दिनों दिल्‍ली में उनकी मुलाकात हुई तो मेरी चर्चा भी निकल आई। वेद जी ने अपनी हाल ही में प्रकाशित कविताओं का संग्रह अर्न्‍तमन मुझे कूरियर से भेजा और आग्रह किया कि मैं अपनी प्रतिक्रिया दूं।

संग्रह के पहले पन्‍ने पर उन्‍होंने लिखा है, ‘सहृदय,सजग साहित्‍यकार,समर्थ समीक्षक,बेबाक आलोचक व मेरे अभिन्‍न मित्र राजेश उत्‍साही को सादर भेंट।’ जब आपको ऐसे विशेषणों से नवाजा जाता है तो आप अचानक ही सजग हो उठते हैं, आपको उन पर खरा उतरने की कोशिश भी करना पड़ती है।

ईमानदारी से कहूं तो वेद जी के संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए मैंने यह कोशिश की है। संग्रह में छोटी-बड़ी कुल मिलाकर 80 कविताएं हैं। वेद जी ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि, ‘ये कविताएं स्‍त्री-विमर्श पर हैं। लेकिन मैंने चलताऊ स्‍त्री विमर्श के नारे को इनमें कतई नहीं ढोया है। स्‍त्री विमर्श शब्‍द आते ही लगने लगता है – शोषित,अबला,सताई हुई,बेचारी दबी कुचली स्‍त्री या हर तरह से हारी हुई या जिस तरह साहित्‍यकारों ने उसे इससे भी ज्‍यादा नीचे दिखाया जाना ही स्‍त्री विमर्श माना है,परन्‍तु मेरा ऐसा मानना नहीं है। ऐसा कहना स्‍त्री के प्रति एक प्रकार का अन्‍य है।'

ज्‍यादातर कविताओं में वेद जी अपनी बात पर अडिग नजर आते हैं। पर आत्‍मालाप वाली बात मुझे यहां भी नजर आती है। वे अपनी अधिकांश कविताओं में स्‍त्री से बतियाते नजर आते हैं। पर उनका बतियाना इतना सहज है कि उसमें कोई आडम्‍बर या लिजलिजापन नजर नहीं आता । आइए कुछ उदाहरण देखें-
तो क्‍या
मैं यह मानूं
कि जो मैंने सुना है
वह ही कहा है तुमने
यदि हां तो
बस उसकी स्‍वीकृति में
मात्र हां भर दो
(स्‍वीकृति)
कवि स्‍त्री के प्रति इतना प्रतिबद्ध है कि वह ना सुनने के लिए भी तैयार है बिना किसी शिकायत के। वह आशावान है-
अस्‍वीकृति भले हो भी
तो भी मुझे विश्‍वास है
कि वह अस्‍वीकृति हो ही नहीं सकती
क्‍योंकि कठोर नहीं है
तुम्‍हारा हृदय
(विश्‍वास)
स्‍त्री का यह रूप वेद जी को केवल स्‍त्री में नहीं प्रकृति में भी दिखाई देता है-
मिट्टी के नीचे
कितने भी गहरे
चले जाएं बेशक बीज
तो भी नष्‍ट नहीं होते हैं वे
धरती मां अपनी गोद में
दुलारती रहती है उन्‍हें
(प्‍यार व दुलार)
पुरुष होने के नाते कहीं-कहीं वे अपराध बोध से भर उठते हैं। लेकिन वे इसे स्‍वीकारने में हिचकिचाते नहीं हैं-
और मैं अपने अहम् को
बचाए रखने के लिए
कभी बना तुम्‍हारा देवता
कभी स्‍वामी और
कभी परमेश्‍वर
(तुम्‍हारे प्रश्‍न)
कितने अपराधबोध ने
ग्रस लिया था मुझे
जब तुम्‍हारी निरीहता को
अपना अधिकार मान लिया था मैंने
(पुरुषत्‍व)

वेद जी स्‍त्री के जितने आयाम हो सकते हैं उन सबकी बात करते हैं। इससे यह भी पता चलता है कि उनकी दृष्टि कितने सूक्ष्‍म अवलोकन कर सकती है। ऐसे अवलोकन करने के लिए धीरज तो चाहिए होता है, धीरज ऐसा जो किसी स्‍त्री के धीरज की तुलना में ठहर सके। ऐसा मन भी चाहिए जो स्‍त्री के मन की थाह पाने की न केवल हिम्‍मत रखता हो बल्कि जुर्रत भी कर सके। वेद जी इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं । अपनी कविताओं में वे स्‍त्री की नेहशीलता,स्‍त्री की हंसी, उसके हृदय, उसकी क्षमाशीलता, उसकी सहनशीलता, उसकी नियति, उसके समर्पण, उसके मौन, उसके विश्‍वास, उसके संघर्ष, उसकी शक्ति, उसकी तपस्‍या, उसके धीरज, उसके सम्‍पूर्ण व्‍यक्तित्‍व और अस्तित्‍व की बात करते हैं।

कविताएं सहज भाषा में हैं, उन्‍हें पढ़ते हुए अर्थ समझने के लिए शब्‍दों में उलझना नहीं पड़ता है। बिम्‍बों का वेद जी ने भरपूर उपयोग किया है, पर वे भी गूढ़ या अमूर्तता की हद तक नहीं हैं। इन कविताओं को पढ़ना सागर की गहराई में उतरने जैसा है। गहराई में जाने पर आपको ढेर सारे मोती नजर आते हैं। इन मोतियों की चमक से आपकी आंखें चौंधिया जाती हैं। आप तय नहीं कर पाते हैं कि कौन-सा मोती उठाएं। क्‍योंकि सभी एक से बढ़कर एक हैं। इस संग्रह की हर कविता अपने आप में एक मोती है, लेकिन इन्‍हें एक साथ देखकर इनकी चमक आपस में इतनी गड्ड-मड्ड हो जाती है कि आप किसी एक को भी अपनी स्‍मृति में नहीं रख पाते। बहरहाल वेद जी ‘अन्‍तर्मन’ में तो बस ही जाते हैं।
वे कहते हैं-
मुझे सुनने में क्‍या आपत्ति है
तुम सुनाओ
मुझे देखने में क्‍या आपत्ति है
तुम दिखाओ
परन्‍तु जरूरी है
इसे देखने,सुनने और बोलने में
मर्यादा बनी रहे
हम दोनों के बीच
(मर्यादा)
0 राजेश उत्‍साही
पुनश्‍च: भाई सतीश सक्‍सेना ने याद दिलाया कि व्‍यथित जी का ब्‍लाग भी है,शुक्रिया। यह रही उसकी लिंक http://sahityasrajakved.blogspot.com
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Saturday, May 7, 2011

आज भगवान कृष्ण भक्त महा कवि सूर दास जी की जयंती है

आज भगवान कृष्ण भक्त महा कवि सूर दास जी की जयंती है
भगवान के बाल स्वरूप की सुंदर झाकियां जिस मोहक ढंग से संत सूर दास जी ने काव्य में व्यक्त की हैं विश्व के किसी भाषा के साहित्य में ऐसा वर्णन देखने को नही मिलता
इस के साथ सात्विक प्रेम यानि श्रृंगार वर्णन में भी कवि सिद्ध हस्त है
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो
विश्व का सर्वाधिक प्रख्यात बाल गीत है
आओ हम इस महान संत कवि को नमन करें
डॉ. वेद व्यथित

समुद्र वसने देवी ...... मदर दे

कई दिनों से मदर दे का बहुत शोर मच रहा है क्योंकि यह विदेश से आई हुई जूठन है जिसे चाट कर कुछ लोग अपने को सौभाग्य शाली बनने का प्रयत्न कर रहे हैं
मेरा उन से निवेदन है कि भारत में या हिन्दू संस्कृति में प्रत्येक दिन मात्र दिवस है
१ क्योंकि यहाँ कई माँ नही होती
२जो होती हैं वे सब पूज्य होती हैं जैसे भारत माता, पृथ्वी माता ,गौ माता ,स्त्री यानि मात्री शक्ति या देवी माता सभी पूजनीय हैं
हम प्रात: काल सर्व प्रथम पृथ्वी माता को प्रणाम करते हैं पद स्पर्श क्ष्मस्व्मे .......
हमारे यहाँ मात्र देवो भव सर्व प्रथम आता है बाद में पिता व आचार्य आते हैं
अत: हम तो प्रत्येक दिन माँ के लिए श्रद्धा निवेदन करते हैं एक दिन नही जो एक दिन करते हैं वे या तो भारतीय नही है या उन्हें जूठन चाटने की बीमारी है
अत; आओ नियमित अपने माता पिता की सेवा में संलग्न रहने का वृत्त लें
क्यों कि लिखा है
प्रात काल उठ कैरघुनाथ ,मत पिता गुरु नावैन्ही माथा
डॉ. वेद व्यथित

Thursday, May 5, 2011

रास्ते

रास्ते

रास्तों के साथ
कहाँ तक चलोगे आखिर
क्योंकि रास्ते
खत्म नही होते हैं कभी
जैसे कहा गया है कि
भोगों को हम नही भोगते हैं
अपितु भोग ही हमें
भोग लेते हैं
ऐसे ही रास्ते
कभी खत्म नही होते
अपितु हम ही
खत्म हो जाते हैं
उन के खत्म होने से पहले ||

Wednesday, May 4, 2011

आधुनिक

हमें पूरा भरोसा होता है
अपनी सिद्धता का
यानि अपने ज्ञान और अनुभव का
परन्तु जल्दी ही
टूटने होने लगता है वह
हमारे अपने छोटों के ही सामने
फिर वे समझने लगतेंहैं
खुद को समझदार
परन्तु जल्दी ही टूट जाता है
उन का भी भ्रम
और वे सिद्ध या अनुभवी ही
हो जाते हैं पुराने
यानि आउट डेटिड
अर्थात बीते जमाने के
जो नही है अब आधुनिक या माडर्न ||

Tuesday, May 3, 2011

नया पुराना

नया पुराना


जिन्हें फिर से तोड़ेंगी
आने वाली पीढियां वे सोचते हैं
हम ने तोड़ दीं रूढ़ियाँ
और बना दिया नये नियम
उत्तम और सर्वोत्तम
परन्तु यह सोचना
बड़ी भूल है हमारी
क्यों कि
यही नियम ही तो बनेंगे
रूढ़ियाँ
और यही नियम बन जायेंगे
पुरानी परम्पराएं
पुरानी और दकियानूसी कह कर ||