Saturday, January 9, 2010

शीत ऋतू की त्रिप्दि

अब धूप नही आती
सूरज को उलहना है
उस को वः सताती है

क्या वो अनजानी है
ये हो ही नही सकता
सर्दी तो रानी है

जब हाथ ठिठुरते हैं
टीबी मन के अलावों में
दिल भी तो जलते हैं

ये आग तो धीमी है
दिल और जलाओ तो
ये धूप ही सीलीहै

वो महल अटारी से
क्यों निचे नही आती
सूरज की थाली से

कुछ भी तो नही दिखिता
मन छुप २ जाता है
है कोहरा घना इतना

कपडों के खान जाती
ये ठिठुरन इतनी है
वहआग लगा जाती

सरसों अब फूली है
देखो तो जरा इस को
किन बाँहों में झूली है

ये बर्फ जमीन ऐसी
वो मन को जमाएगी
अपना सा बनाएगी

जब धुंध भुत छाए
मन के हर कोने में
टीबी एक किरणआये

मक्के की दो रोटी
और साथ में हो मठ्ठा
और थोडी डली गुड की

क्यों धोप नही बनते
सर्दी की दुपहरी में
सूरज से नही लगते

रिश्ते न जम जाएँ
दिल को कुछ जलने दो
वे गर्माहट पायें

रोके नही रूकती हैं
ये सर्द हवाएं हैं
ये आग सी लगती हैं

मीठी सी बातें थीं
गन्ने का रस जैसी
वे ऐसी बातें थीं

लम्बी सी रातें हैं
ये कहाँ खत्म होतीं
ये बातें ऐसी हैं

No comments: