प्रतीक्षा
कभी कभी बहत मुश्किल हो जाता है
सूरज का निकलना
यानि सुबह का होना
या दिन का निकलना
तब रात लम्बी ही इतनी लगने लगती है
घड़ी की सुइयां
जैसे बढती ही नही है आगे
तब और झुंझलाहट सी होने लगती है
घड़ी पर रात पर और नींद पर
परन्तु वास्तविक झुंझलाहट तो
अपने मन पर होती है
मन में उठ रहे उफानो पर होती है
ओ खत्म ही नही होते हैं
एक के बाद एक
जारी रहता है जिनका क्रम
जिन से उचाट हो जाती है नींद
तब और बढ़ जाता है अँधेरा
सूरज निकलने की प्रतीक्षा में
कि कब निकलेगा सूरज
कब होगा सुप्रभात
कब खिलेंगे कमल
2 comments:
पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए!
मेरे नए पोस्ट और इस ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है -
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
तब रात लम्बी ही इतनी लगने लगती है
घड़ी की सुइयां
जैसे बढती ही नही है आगे
तब और झुंझलाहट सी होने लगती है
aur ये झुंझलाहट ही jivan ko gati deti hai .....
वेद जी कुछ उदासी लिए गंभीर रचना .....
ऐसी रचनायें ही अक्सर दिल में जगह बना लेतीं हैं ......बधाई ....!!
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