Friday, January 28, 2011

गलना ,सूखना व जलाना

कभी गलाने के लिए पानी
सुखाने के लिए हवा
जलाने के लिए ईंधन
और लीपने के लिए माटी
जुटते २ पल पल
गलती रही जिन्दगी
सूखती रही जिन्दगी
जलती रही जिन्दगी
और सिमटती रही जिन्दगी
धीरे धीरे पल पल
और यूं ही होता रहा सवेरा
कभी खूब दिन चढ़े
कभी पौ फटे
कभी उस से भी पहले
कभी बहुत पहले
फिर समाप्त हुआ
शाम, रातऔर सुबह का अंतर
क्यों कि अभी और भी था
गलना ,सूखना और जलना |

Wednesday, January 26, 2011

उलझन

जीवन के बेहिसाब
उलझे हुए तन्तुओं को
बार २ सुलझाने पर भी
छोर हाथ नही आता है
कई बार लगता है कि
अब तो छोर मिल ही जायेगा
इस जटिलता का
परन्तु वह और भी
गहराई में जा कर खो जाता है
और हाथ आती है
फिर जीवन की वही निराशा
परन्तु अब यह कोई नई बात
नही रह गई है
यही तो होता रहा है बार २
और फिर वही एक उम्मीद की
नई किरण फूटती है हर बार
परन्तु अंत उसी अँधेरे में होता है उस का
शायद यही सत्य हो गया है जिन्दगी का
उन्ही उलझे तन्तुओं में उलझे रहना
छोर को ढूंढना, ढूंढते ढूंढते
स्वयम उसी में खो जाना
फिर उसे उसी तरह आगे के लिए छोड़ जाना
उलझा का उलझा हुआ ही
वैसा का वैसा ही||
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Tuesday, January 18, 2011

आग को न छेड़ो

यूं साँस लम्बी ले कर इस घाव को न छेड़ो
दिल और जल रहा है इस आग को न छेड़ो
मुरझा गई है अब वो यूं ताप सहते सहते
दिल दुःख रहा है इस का इस पाँख को न छेड़ो
दर्पण की भांति टूटा ये दिल चटख चटख कर
टूटा है जिस से ये दिल उस बात को न छेड़ो
दिल में किरच चुभी है वो दर्द कर रही है
दुखता है इस से ये दिल इस कांच को न छेड़ो
ये सांस चल रही है इसे यूं ही चलने देना
यह बीच में रुके ना इस साँस को न छेड़ो
कितना घना अँधेरा कुछ भी न सूझता है
मेरे हाथ में है दीया इस हाथ को न छेड़ो
कहने को क्या कहूं मैं बाक़ी बचा ही क्या है
जाने दो रह गई जो उस बात को न छेड़ो

Monday, January 17, 2011

जीवन की परीक्षा

हरेक बच्चा नही आता है
कक्षा में प्रथम
और हरेक का दूसरा या तीसरा
स्थान भी नही आता है कक्षा में
तो क्या इस का मतलब है
प्रत्येक बच्चे को नही होता है
आसानी से अपना पाठ याद
जैसे युधिष्ठिर को लग गये थे
दो शब्द याद करने में वर्षों वर्ष
और बालक मोहन दास भी
नही आया था कक्षा में प्रथम
परन्तु क्या दोनों को
कहा जा सकता है बुद्धू ,कमजोर
या ऐसा ही कोई शब्द
कदापि नही
तो फिर जीवन की परिभाषा
मात्र शाब्दिक रटंत परीक्षा
नही हो सकती
और न ही यह बना सकती है
कबीर ,सूर और मीरा
जिन्होंने जीवन की चादर को
बेदाग ओढा और बिना परीक्षा दिए ही
उत्तीर्ण हो गये कठिन परीक्षा में

Wednesday, January 12, 2011

तुम्हारा मन

तुम्हारे मन में
असामयिक मेघों की भांति
उमड़ते घुमड़ते प्रश्नों का ऊत्तर
इतना सरल नही था
क्योंकि वे अर्जुन का विषाद नही थे
गांधारी का पुत्र मोह भी कहाँ था उन में
तथा उस का सत्य की विजय का
आशीष भी नही थे वे
क्योंकि वे तो
प्रतिज्ञाओं की श्रंखला में आबद्ध
कृत्रिम सत्यान्वेष्ण को
ललकारने की स्वीकृति भर चाहते थे
ताकि दुःख की बदली से झर कर
निरभ्र हो जाएँ
और खून से आंसुओं की
धारा से प्लावित कर दें
उन उत्तरों को
जो बोझ की भांति
धर दिए हैं
जबर दस्ती
दहकते कलेजे पर

Saturday, January 8, 2011

सूरज और हवा

सूरज की उत्साह हीनता से
ठंडा होता गया सब कुछ
ठिठुरता सा ,जमता सा और निष्प्राण सा
परन्तु सहचरी वायु का संचरण
बनाएगा इसे शनै: २ प्राणवान
इसी से होता जायेगा यह
धीरे २ प्रखर और तेजवान
आज का मद्धिम सूर्य