Sunday, September 21, 2014

जिंदगी  छू  लिया तो एक सिरहन सी हुई 
आँख भर देखा तो उस में एक तड़पन सी हुई 
बस  इसी के सहारे ये जिंदगी चलती रही 
और एक पल में इसी से जिंदगी पूरी हुई।  

जिंदगी अक्सर अक्सर हमारी पास रहती है कहाँ 
सोचते हैं, जिंदगी, पर दूर रहती है कहाँ 
हम इसी  भटकाव में जीते हैं अक्सर जिंदगी
 जिंदगी की मौज है  रहती कहाँ है जिंदगी। 

जिंदगी को देख लोगे तुम यदि नजदीक से 
तब समझ आ जाये शायद जिंदगी यह ठीक से 
पर इसे तुम फैंसला मत मान लेना आखिरी 
दूर रहती जिंदगी है जिंदगी की सिख  से। 
 

Thursday, March 20, 2014

वर्त्तमान माहौल पर कुछ कहने का प्रयत्न  है 

फिर से उड़ने लगे हैं झंडे फिर से नारे बाजी 
फिर से होने लगी है मिल कर वोट की सौदेबाजी 
कहीं बिकेगा  वोट नोट में और कहीं मनमानी   
जिस से किस्मत बन जायेगी कुछ लोगों की अच्छी।। 

महंगाई और भ्रष्ट  आचरण जैसे मुद्दे छोड़े 
जाय देश भाड़ में सब ने इस से नाते तोड़े 
हल हो जाये अपना मतलब बाकी नाते तोड़े   
क्या सारे सुख अमर शहीदों ने इस नाते  छोड़े।।

बनजाएगी पुन: वही  सरकार दुबारा वैसी 
जैसे जनता लुटी अभी तक और लुटेगी वैसी 
कौन कहे अब एक दूसरे से सब एक तरह  हैं 
लूटना तो जनता को है बस सब के सब ऐसे है।.

क्यों लुटती जनता इस का उत्तर आसान नही है 
कैसे मिटे गरीबी यह उत्तर आसान नही है 
जब तक होगी सौदेबाजी वोट बिकेगा यूं ही 
तब तक तो इस का उत्तर  इतना आसान नही है।.

काठ की हांड़ी कुछ ठेकेदारों की चढ़ जाती है 
पहन के खादी क्या पूछो बस उन की बन आती है 
वोट की खातिर गांधी जी का नाम खूब रटते हैं 
उस गांधी के  छपे नोट से ही मदिरा  आती है।.

राजनीति में आये थे तो चार रूपपली कब थी 
जनता की सेवा के बदले मेवा खूब हड़प ली 
अब तो बड़े आदमी हैं वे और बड़े हैं नेता 
प्रजातंत्र के राज तंत्र की कैसी कैसी करनी।।

बात यह उन लोगों की है जिन पर नही मजूरी 
फिर भी भारत  रोज रोज करता है नई तरक्की
पर  ये उन्नति कुछ हाथों तक सीमित हो जाती है 
जब की आधी आबादी ही भूखी सो जाती है।. 

दल कोई भी हो मैं दल का पैरोकार नही हूँ 
दल के दलदल से जो उपजा खरपतवार नही हूँ 
सच को कहना सच को लिखना मेरा धर्म रहेगा 
कलम बेच कर कुछ भी लिख दूं वो किरदार नही हूँ।।
डॉ वेद  व्यथित 
09868842688 

Saturday, March 15, 2014

होली इस बार कृषक बंधुओं के लिए दुखद रूप से आई है क्योंकि मौसम कि मार किसान कि फसल पर बुरी तरह पड़ी है उन्हें के दुःख को साँझा करे हुए उन्ही को समर्पित एक रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ।  

मैं कैसे अबीर उड़ाऊँ 

खड़ी फसल पर ओले पड  गये 
सरे सपने उस में गल गये 
कान्हा जी भी हम से रूस गये 
कैसे बिटिया का ब्याह रचाऊं।   मैं कैसे .... 
कर्ज महाजन का है सर पे 
फसल बिना उतरे क्यों सर से 
निगाह बड़ी तिरछी है उस कि 
मैं कैसे कर्ज चुकाऊँ।  मैं कैसे .......
फसल काटने का अवसर था 
उमड़ घुमड़ बद्र सर पर था 
सोच सोच कर जी मिचली था 
चैट में कैसे मल्हार  सुनाऊँ।  मैं कैसे ……  
बूढ़े मैया बापू दोनों 
पड़े खाट टूटी पर दोनों 
पैसा नही है पास बचा अब 
मेंकैसे दवा दिलाऊं।  मैं कैसे ..........
बहन देखती बात भाई की 
भात  भरेगा ब्याह भांजी 
खाली हाथ बहन के घर पर 
कैसे भात ले जाऊं।  मैं कैसे ……
बेटा  पढ़ने की जिद करता 
भरी जवानी बूढा लगता 
फसल हुई बर्बाद असमय 
कैसे कालेज भिजवाऊं।  मैं कैसे … …
गोरी के जो गाल लाल थे 
पीले पड़  गये सब्जबाग थे 
ऐसे मैं उस के गलों पर 
कैसे गुलाल लगाऊं।  मैं कैसे ......
डॉ वेद व्यथित 
09868842688 . 

Monday, March 10, 2014

आज कल " आप " मौसम हुए 
क्या भरोसा है कब क्या हुए।  
बात ईमान से कह रहे 
क्योंकि वे ही हरिश चंद हए। 
दूसरों की हैं गंदी कमीजें 
साफ़ तो आप पहने हुए।  
देश में सब के सब चोर हैं 
कैसे लगते हैं कहते हुए।  
तोड़ दीं  तुमने कसमें सभी 
आप अपने सगे न हुए।  
जिन को मंचों से गालीं बकीं 
जीभ से उन के तलुए छुए।  
कथनी करनी कहाँ एक है 
अंतर दोनों में कितने हुए 
शर्म फिर भी कहाँ आप को 
जूते खा २ के खुश तुम हुए। 
शर्ट फाड़ी सभा के लिए 
हाथ में ब्लैक बेरी लिए 
कुर्सी मकसद रही "आप "का 
आदमी आम पीछे हुए।  
डॉ वेद व्यथित 

Friday, March 7, 2014


स्त्री यानि औरत

जिस की मजबूरी है 
घर की आमदनी  बढ़ाना  या 
आधुनिकता की दौड़ में शामिल होना 
इसी लिए निकलना पड़ता है उसे 
घर से सुबह सवेरे जल्दी ही 
सब की इच्छाएं पूरी करते हुए 
टिफिन , टाई  , रुमाल , जुराब और 
जरूरी चीजें संभलवा    कर 
फिर भागना पड़ता है उसे 
अपना नाश्ता छोड़ कर 
भीड़ भरे वाहनों में घुसने के लिए 
अपने खाली  से पर्स 
औ दूसरे  सामान के साथ 
साडी और साडी के पल्लू को सम्भालते २
आधुनिकता  और मजबूरी के बोझ को 
साथ २ ढोते  हुए ।
इसी तरह आती है वह शाम को 
सारा बोझ ढो कर 
जो और भारी  हो जाता है घर पहुँचते २ 
और उतरता भी नही है 
अन्य  सामान की तरह मन से
 घर आने पर भी 
अपितु और बढ़ जाता है वह 
दिन प्रति दिन यानि हर दिन 
दुगना हो कर ॥  

Tuesday, March 4, 2014

परमेश्वर कि अनुकपमा और मित्रों कि शुभकामनाओं के कारण मेरे काव्य संकलन " अंतर्मन " का सिक्किम में नेपाली भाषा में अनुवाद हुआ है। इस का अनुवाद मेरे मित्र  , नेपाली भाषा के सुकवि श्री अमर बानियाँ " लोहरो " ने  किया है तथा  डोगरी भाषा के प्रख्यात साहित्यकार डॉ सुवास  दीपक जी ने इस पुस्तक की भूमिका लिख कर उपकार किया है तथा आवरण पृष्ठ को संजोने और संवारने में  प्रसिद्ध चित्रकार दीपा राई जी ने अपना अमूल्य सहयोग दिया है।  
मैं बंधु अमर बानियाँ जी ,डॉ सुवास दीपक जी व दीपा जी के प्रति अपनी कृत्यज्ञता ज्ञापित करता हूँ और यह प्रसन्नता आप के साथ बांटने का सौभाग्य प्राप्त कर रहा हूँ।  इसे आप का स्नेह मिलेगा ही।  
डॉ वेद व्यथित 
09868842688   

Monday, February 24, 2014

प्यास
 
प्यास बहुत बलवती प्यास ने कितने ही सागर सोखे
प्यास  नही बुझ सकी प्यास बुझने के हैं सारे धोखे
प्यास यदि बुझ गई तो समझो आग भी खुद बुझ जाएगी
प्यास को समझो आग ,आग ही रही प्यास को है रोके ||
 
प्यास बुझी  तो सब कुछ अपने आप यहाँ बुझ आयेगा
यहाँ चमकती दुनिया में  केवल अँधियारा छाएगा
इसीलिए मैंने अपनी इस प्यास को बुझने से रोका 
प्यास बुझी तो  दिल भी अपनी धडकन रोक न आयेगा 
 
लगता है  प्यासों  को पानी पिला पिला कर क्या होगा 
पानी पीने से प्यासे की  प्यास का तो कुछ न होगा
प्यास कहाँ बुझ पाती  है बेशक  सारा सागर पी लो
सागर के पानी से प्यासी प्यास का तो  कुछ न होगा  
 
कितनी प्यास बुझा लोगे तुम बेशक कितने घट पी लो 
कितनी प्यास और उभरेगी बेशक इसे और जी लो 
जब तक प्यास को बिन पानी के  प्यासा ही न मारोगे
तब तक प्यास कहाँ बुझ सकती बेशक तुम कुछ भी पी लो 
आभार सहित
वेद व्यथित
अनुकम्पा -१५७७ सेक्टर ३ 
फरीदाबाद १२१००४ 

Friday, February 21, 2014

अँधेरे ही अँधेरे हैं उजाले छुप गये जा कर 
चलो हम रौशनी करने उन्हेंफिर ढूंढ लाते हैं |
तपिश जो बढ़ गई है आसमां से आग बरसी है 
चलो उस आग को हम खून दे कर बुझा आते हैं |
सुना है हर तरह वे अपनी बातें ही सही कहते 
चलो हम आइना उन का उन्ही को दिखा आते हैं |
नही वे मानते कब हैं कभी अपने किये को ही
उन्ही के कारनामों को उन्हें ही दिखा आते हैं |
बहुत आसन कब है खुद की गलती मान भर लेना
चलो उन की कही बातें उन्ही को बता आते हैं |
फुंके अपना ही घर बेशक उजाले तो जरूरी हैं
चलो हम दीया लेकर फूंक अपना घर ही आते हैं |

डॉ. वेद व्यथित
०९८६८८४२६८८

Saturday, February 8, 2014

आदरणीय जनों व मित्रों के सद्भाव के कारण यहाँ गुलाब पर कुछ और पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ सम्भवत: इन्हे भी ऐसा ही स्नेह व प्यार मिलेगा।  
ये रचनाएं मैंने लगभग बीस  वर्ष पूर्व लिखीं  थीं और यूं ही रख छोड़ीं थीं पता नही कैसे ये पन्ने फिर खुल गये हैं।  

कोमलता से बांटता अपनी गंध गुलाब 
भंवरों को भर अंजुरी उस ने दिया प्राग 
सब कुछ तो उस ने दिया अपना मन और देह 
फिर वह क्यों तोडा  झटक यह था कैसा नेह। 

कोमलता उस की हुई उस को ही अभिशाप
काँटों से बचता हुआ पहुंचा उस के पास
 बेरहमी से तोड़ कर लिया हाथ में भींच 
शिकवा अब किस से करे कैदी बना गुलाब। 

जिस दिन से खिलने लगा छूने लग गई धूप 
मेरा खिलना लाजमी धुप भी थी मजबूर 
कुछ दिन  तो उस ने सहा उस का मीठा ताप  
पर कितने दिन झेलता धुप की तीखी आग।  

मन की बगिया में खिला एक गुलाबी फूल 
यह क्या सचमुच फूल था या थी केवल भूल 
भूल हुई तो क्या हुआ उपजा तो है फूल 
कभी कभी यह भूल भी बन जाती है फूल। 

ऐसा क्या मैंने कहा मुरझा गया गुलाब 
बिन समझे ही रूठ कर हुआ वह बेहाल 
फिर भी इस के हाल पर मुझ को रहा मलाल 
मैं तो फिर भी धुप था वह था निपट गुलाब।
डॉ वेद व्यथित 
०९८६८८४२६८८ 
बाद में अभी गुलाब से आप का संवाद और करवाऊंगा   

Thursday, January 2, 2014

प्यारी पीड़ा

प्यारी पीड़ा 

पीड़ा इतनी प्यारी क्यों है 
हृदय सीप  में मोती जैसी 
यह इतनी उजयारी क्यों है ? 

जो जो भूल हुईं जीवन में 
भूला कब हूँ याद  सभी हैं 
एक एक कर सभी सामने 
हर दिन खुद आ जाती क्यों हैं 
बहुत चाहता भूलूं उन को 
पर वे भूलें प्यारी क्यों हैं ?

जिन रस्तों पर खूब चला हूँ 
उन से ही क्यों ऊब रहा हूँ 
नई  राह की  चाह लिए क्यों
 मंजिल मंजिल भटक रहा 
नई नई मंजिल अनजानी  
लगती इतनी प्यारी क्यों हैं ?

गहन तिमिर की स्याह निशा में 
आँखों की कोशिश रहती हैं 
अंधकार के चित्र बना कर  
छूने की कोशिश रहती है
 हवा गुजरती यदि निकट से 
आखों को दिख जाती क्यों है ?

बैठे बैठे गहन शून्य में 
कितने रंग भरे सपनों में 
गहन तमस  में आँखें कैसे 
रंग सजाती  है सपनों में 
बिना बात सपनों की माला 
आँखें रोज सजातीं क्यों हैं ??

डॉ वेद व्यथित 
अनुकम्पा -१५७७ सेक्टर - ३ 
फरीदाबाद -१२१००४ 
09868842688