Sunday, October 31, 2010

भीड़ के लोग

जलसा ,जूलूस या भीड़ के
आखरी छोर से नारा लगाने वाले
ढोते रहेंगे इसी तरह नारों को
वे करते रहेंगे जय २ कार इसी भांति
और इसी तरह धकियाते जाते रहेंगे
और खाते रहेंगे झिडकियां
तथा तुड़वाते रहेंगे
अपने हाथ पैर या सिर
औरों के लिए
क्योंकि वे बस भीड़ है या
भीड़ के लिए लाये गये लोग

Monday, October 25, 2010

रपट

हम कलम साहित्यिक संस्था (पंजी)द्वारा गुडगाँव में लघु कथा पर गोष्ठी का आयोजन किया गया जिस कि अध्यक्षता की प्रख्यात साहित्य कार डॉ.शेर जंग गर्ग ने गोष्ठी के प्रथम सत्र में लघु कथा के स्वरूप पर विचार विमर्श किया गया चर्चा प्रारम्भ करते हुए डॉ. नन्दलाल महता ने लघु कथा को संवेदना की तीव्र सम्प्रेश्नीयता बताया कुरुक्षेत्र से आये डॉ. ईश्वर चन्द्र गर्ग ने अपने पत्र में कहा कि लघु कथा ने अपनी साहित्यिक उपादेयता सिद्ध कर दी है इसी लिए लघुकथा को बाक्स में स्थान मिलता है लघु कथ का आधार समाज है और व्यंग उस का हथियार है चर्चा को आगे बढ़ाते हुए डॉ. संतोष गोयल ने लघु कथा को नाविक के तीर बताया व जीवन की सच्चाइयों से सीधा सम्वाद करती हुई रचना कहा भिवाड़ीसे आये डॉ. असीम शुक्ल ने कहा कि जिस तरह एक बाल्टी पानी में एक बूँद तेल डालने से उस में बहुत से रंग उत्पन्न हो जाते है उसी प्रकार लघु कथा एक साथ बहुत सारे रंग पैदा करती है अंग्रेजी साहित्यकार डॉ. केदार नाथ शर्मा ने इसे अंग्रेजी की शोर्ट स्टोरी की हिंदी में आगत विधा कहा डॉ.वेद व्यथित निशा भार्गव ने भी इस पर अपनर विचार रखे
दूसरे सत्र में लेखकों द्वारा लघु कथाओं का वचन किया गया इस में डॉ. वेद व्यथित ने लघु कथा पढ़ी आग और हवा , निशा भार्गव ने बचपन का गूंगा पन डॉ. ईश्वर गर्ग ने बुढ़ापा सुनीता शर्मा ने धूप छँव आभा कुलश्रेष्ठ ने रधिया क्यों डूबी रमेश पाठक ने लक्ष्मी का वाहन लघु कथा का पाठ किया
इस अवसर पर डॉ सुनीति रावत के लघु कथा संग्रह "तीर तरकश के " पुस्तक का लोकार्पण हुआ तथा डॉ. सुनीति रावत ने इस अवसर पर इस संग्रह से कुछ लघु कथाएं भी प्रस्तुत कीं
अंत में डॉ. शेरजंग गर्ग ने कहा कि लघु कथा में वस्तु तो है पर उस का विस्तार नही है वह सीधे प्रहार करती है सब के कहने पर उन्होंने तथा नरेंद्र लहद ने कुछ गजलें भी पढ़ीं

Friday, October 22, 2010

जीवन की बाजी

जीवन की बाजी को
जीतने का हर दाव
पता नही क्यों उलटा पड़ जाता है
और फिर बार २
कोशिश करते हैं
जीतने के लिए दाव फैंकने की
परन्तु पता नही
जिन्दगी कि बिसात में
ऐसा क्या जादू है
जो उल्टा कर देती है हर दाव को
बेशक -
हर दाव चलते हुए
लगता है जीता हुआ सा ही
परन्तु भ्रम होता है यह
और आखिर सब कुछ
हार बैठते हैं हम

Friday, October 15, 2010

प्यास

प्यास बहुत बलवती प्यास ने कितने ही सागर सोखे
प्यास नही बुझ सकी प्यास बुझने के हैं सारे धोखे
प्यास यदि बुझ गई तो समझो आग भी खुद बुझ जाएगी
प्यास को समझो आग ,आग ही रही प्यास को है रोके ||

प्यास बुझी तो सब कुछ अपने आप यहाँ बुझ आयेगा
यहाँ चमकती दुनिया में केवल अँधियारा छाएगा
इसीलिए मैंने अपनी इस प्यास को बुझने से रोका
प्यास बुझी तो दिल भी अपनी धडकन रोक न आयेगा

लगता है प्यासों को पानी पिला पिला कर क्या होगा
पानी पीने से प्यासे की प्यास का तो कुछ न होगा
प्यास कहाँ बुझ पाती है बेशक सारा सागर पी लो
सागर के पानी से प्यासी प्यास का तो कुछ न होगा

कितनी प्यास बुझा लोगे तुम बेशक कितने घट पी लो
कितनी प्यास और उभरेगी बेशक इसे और जी लो
जब तक प्यास को बिन पानी के प्यासा ही न मारोगे
तब तक प्यास कहाँ बुझ सकती बेशक तुम कुछ भी पी लो

Wednesday, October 6, 2010

मुक्तक

जिन्दगी छोटी बहुत लगती रही अक्सर मुझे
यह शिकायत ही हमेशा क्यों रही अक्सर मुझे
जिन्दगी छोटी कहाँ थी एक लम्बा वक्त थी
पर बहुत ही कम लगी ये जिन्दगी अक्सर मुझे

कोई आशा या निराशा ही चलती जिन्दगी
कल्पना का रथ लिए ही दौड़ती है जिन्दगी
चाल कब इस कहाँ पर ठहर जाये एक दम
यह कभी भी कब बताती है यहाँ पर जिन्दगी

जिन्दगी मेरी मुझी से जाने क्यों नाराज थी
मान जाती बात मेरी जो बहुत आसन थी
पर उसे उस के अहं ने सिर झुकाने न दिया
बात तो आसन थी पर जिन्दगी की बात थी

दूर से आवाज दी तो पास वो आई नही
जब गया नजदीक तो वो भाग कर आई नही
क्या पता किस सोच में यूं ही खड़ी है गुमसुम
जिन्दगी की ये नजाकत खुद उसे भाई नहीं

नाम कितने रख लिए तूने बता ओ जिन्दगी
रूप कितने धर लिए तूने बता ओ जिन्दगी
पर अधूरा सा रहा है जिन्दगी का कैनवस
रंग भर कर भी अधूरी क्यों रही है जिन्दगी

दूरियां मिट जाएँगी सब जिन्दगी की डोर से
नजदीकियां बन जाएँगी सब जिन्दगी की डोर से
डोर कच्ची है यदि तो बहुत पक्की जिन्दगी
जिन्दगी बंध जाएगी जब जिन्दगी की डोर से

जमाने की हवा को छूने चली है जिन्दगी
कुछ नये से बहाने गढने लगी है जिन्दगी
कुल मिला कर बस यही है जिन्दगी की दास्ताँ
और क्या इस से अधिक बाक़ी रही है जिन्दगी

जिन्दगी को देख लोगे तुम यदि नजदीक से
तब समझ आएगी तुम को जिन्दगी ये ठीक से
पर इसे तुम फैंसला मत मान लेना आखिरी
दूर रहती जिन्दगी है जिन्दगी की सीख से

जिन्दगी को छू लिया तो एक सिरहन सी हुई
आँख भर देखा तो उस में एक त्द्फं सी हुई
बस इसी के सहारे ये जिन्दगी चलती रही
और एक पल में इसी से जन्दगी पूरी हुई

एक दिल के लिए कितने दूसरे दिल तोडती
एक दिल के लिए अपने सिर से पत्थर तोडती
पर यदि टूटे यही दिल सोच कर देखो जरा
छोडती फिर जिन्दगी क्या सारे नाते तोडती

मुक्तक

जिन्दगी छोटी बहुत लगती रही अक्सर मुझे
यह शिकायत ही हमेशा क्यों रही अक्सर मुझे
जिन्दगी छोटी कहाँ थी एक लम्बा वक्त थी
पर बहुत ही कम लगी ये जिन्दगी अक्सर मुझे

कोई आशा या निराशा ही चलती जिन्दगी
कल्पना का रथ लिए ही दौड़ती है जिन्दगी
चाल कब इस कहाँ पर ठहर जाये एक दम
यह कभी भी कब बताती है यहाँ पर जिन्दगी

जिन्दगी मेरी मुझी से जाने क्यों नाराज थी
मान जाती बात मेरी जो बहुत आसन थी
पर उसे उस के अहं ने सिर झुकाने न दिया
बात तो आसन थी पर जिन्दगी की बात थी

दूर से आवाज दी तो पास वो आई नही
जब गया नजदीक तो वो भाग कर आई नही
क्या पता किस सोच में यूं ही खड़ी है गुमसुम
जिन्दगी की ये नजाकत खुद उसे भाई नहीं

नाम कितने रख लिए तूने बता ओ जिन्दगी
रूप कितने धर लिए तूने बता ओ जिन्दगी
पर अधूरा सा रहा है जिन्दगी का कैनवस
रंग भर कर भी अधूरी क्यों रही है जिन्दगी

दूरियां मिट जाएँगी सब जिन्दगी की डोर से
नजदीकियां बन जाएँगी सब जिन्दगी की डोर से
डोर कच्ची है यदि तो बहुत पक्की जिन्दगी
जिन्दगी बंध जाएगी जब जिन्दगी की डोर से

जमाने की हवा को छूने चली है जिन्दगी
कुछ नये से बहाने गढने लगी है जिन्दगी
कुल मिला कर बस यही है जिन्दगी की दास्ताँ
और क्या इस से अधिक बाक़ी रही है जिन्दगी

जिन्दगी को देख लोगे तुम यदि नजदीक से
तब समझ आएगी तुम को जिन्दगी ये ठीक से
पर इसे तुम फैंसला मत मान लेना आखिरी
दूर रहती जिन्दगी है जिन्दगी की सीख से

जिन्दगी को छू लिया तो एक सिरहन सी हुई
आँख भर देखा तो उस में एक त्द्फं सी हुई
बस इसी के सहारे ये जिन्दगी चलती रही
और एक पल में इसी से जन्दगी पूरी हुई

एक दिल के लिए कितने दूसरे दिल तोडती
एक दिल के लिए अपने सिर से पत्थर तोडती
पर यदि टूटे यही दिल सोच कर देखो जरा
छोडती फिर जिन्दगी क्या सारे नाते तोडती

Saturday, October 2, 2010

बड़ी भूख

बड़ी भूख

बहुत भूखी होती है भूख
भूख से तो बहुत बड़ी भी
और डरावनी भी |
भूख जैसी हो कर भी a
कहाँ तृप्ति होती है उस की
बहुत कुछ निगल कर भी
निरंतर जलने वाली आग की तरह
जो बिना धुएं के
जलती है निरंतर
और जला कर
बनती है राख ही नही बर्फ भी
बर्फ भी ऐसी कठोर कि
पिघलती ही नही है जो
अनेकों ताप और शाप सह कर भी
अपितु बढती जाती है निरंतर
आखिर रोकना तो पड़ेगा ही इसे
बर्फ या राख बनने से पहले

Friday, October 1, 2010

टूटे सपने

टूटे हुए सपनों को
आखिर कब तक कोशिश करोगे
जोड़ने की
मान क्योंन्ही लेते कि
स्वप्न ही तो थे वे
जो टूट गये ,
टूट कर बिखर गये
कांच के टुकड़ों की भांति
जिन्हें समेटने में भी
लहुलुहान हो जायेंगे हाथ
इसी लिए सावधानी रखना
उन्हें फैकने में भी
और भूल जाना बाहर फैंक कर
बेशक याद आये उन की चमक
उन की रंगीनियाँ या उन का आकर्षण
पर टूट कर बिखर ही गया जब सब कुछ
तो जरूरी है उन्हें भूलना
लहुलुहान होने से बचने के लिए
हृदय को आघात से
बचाए रखने के लिए