भीड़ का चेहरा
बदली नही है भीड़
वर्षों वर्ष चलते हुए भी
वही लोग हैं उस में
वही चल है उन की
और उन्ही नारों की तख्तियां
उठाये हुए हैं वे हाथों में
किसी ने भी नही की है
कोशिश इसे रोकने की
कुछ पूछने की
या आगे जो बहुत बड़ी खाई है
उसे बताने की
बिलकुल कोशिश नही की है
परन्तु वास्तव में तो
भीड़ सुनती भी कहाँ उस की
उस ने सोचा भी था
एक क्षण रुका भी था वह
उस ने हाथ भी उठाया था
भीड़ को रोकने के लिए
कुछ शब्द जहन में उभरे भी थे
परन्तु बीच में ही रुक गया था वह
शब्द बाहर नही आ पाए थे उस के
होठ सिले के सिले ही रह गये
परन्तु भीड़
उसे धकियाते हुए आगे बढने लगी
वह कितने धक्के और झेलता भीड़ के
नही वह नही सह सका
अपनी ओर उठती भीड़ की उँगलियों को
क्रूरता से घूरती निगाहों को
अट्टहास कर उपहास उड़ाती आवाजों को
वह नही सह सका
और शामिल हो गया भीड़ में
परन्तु फिर भी
अपने आप को अलग मान कर
चलता रहा वह
उस भीड़ में
डॉ. वेद व्यथित
3 comments:
behtareen abhivyakti ..
भीड़ का यथार्थ चित्रण किया है....बधाई
main aap dono ke prti tatha jin pathkon ne ise pdha hai un sabhi ke prti hrdy se aabhari hoon
dr.ved vyathit
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