Sunday, August 29, 2010

खेलों का समय नजदीक आ गया है लोग कह रहे हैं कि नक् जरूर कटेगी अय्यर साहब तो इस के लिए बाकायदा दुआ मांग रहे हैं इस पर मेरे कुछ मुक्तक प्रस्तुत हैं :-

खेलों में जो नाक कटेगी अब वो नाक बची ही कब है
नाक तो रोज रोज कटती है मंहगाई बढ़ जाती जब है
और नाक क्या तब न कटती आतंकी हमला होता जब
फिर भी नाक २ चिल्ला कर क्या यह नाक बचेगी अब है

केंद्र और सी बी आई

अपराधी को हीरो साबित करना कैसी मजबूरी है
उस के ही तो लिए देश की पूरी ख़ुफ़िया एजेंसी है
वैसे न तो ऐसे ही हम तुम से बदला ले ही लेंगे
सत्ता के भूखे स्यारों की ये नीयत कितनी खोटी है

मंहगाई पर

मंहगाई तो यार देश की उन्नति का ही पैमाना है
सरकारी इन अर्थ शास्त्रियों ने इसी बात को तो माना है
भूखे नंगे भीख म्न्गों को सस्ते कार्ड बनाये तो हैं
पर केवल वे ही भूखे हैं जिनको सरकारी माना है

जातिवादी जहर

जातिवाद पर फख्र करो अब ही तो अवसर आया है
संसद से सडकों तक इस का ही तो डंका बजवाया है
इसी लिए जाति गत गणना से अपनी बन आएगी
इस से ही तो सत्ता पाने का अवसर अब आया है

किसान आन्दोलन के पक्ष में

ये धरती का चीर हरन है अधिग्रहण या कुछ कह लो
माँ के सीने में खंजर है चाहे इस को कुछ कह लो
माँ की छाती से ही शिशु को यदि अलग कर दोगे तो
ये तो उस हत्या ही है चाहे इस को कुछ कह लो

उस की रोटी छीन रहे जो सब को रोटी देता है
ये उस की हत्या की सजिश सब को जो जीवन देता
यदि कृषक से उस की भूमि ही हथिया ली जाएगी
तो सुन लो ए देश वासियों जल्द गुलामी आएगी

माँ की कीमत क्या पैसों से कहीं चुकाई जा सकती
धरती तो किसान की माँ है क्या बिकवाई जा सकती
यदि यह नौबत आई तो ये किसान की हत्या है
बेटे की हत्या से माँ क्या खुश रखवाई जा सकती

Thursday, August 26, 2010

स्वार्थी नेताओं के कारनामे

नया शिफूगा छोड़ 2 कर कितनाध्यान हटाओगे
बिना पैर कि झूटी बातें कितनी और चलाओगे
जिस दिन हिन्दू आतंकी हो जायेगा तो ये सुन लो
उस दुश्मन का दुनिया में नाम ढूंढ न पाओगे

सहने की भी हद होती है रेत के महल बनाओ मत
गली तो दे रहे हमें झूठा इल्जाम लगाओ मत
हिन्दू आतंकी होता तो शीश नही कटवा लेता
छोटे छोटे बच्चों को दीवार में न चुनवा लेता

इतनी नर बलियां ले कर भी प्यास तुम्हारी बुझी नही
पूर्वजों को गाली देते कहाँ तुम्हारी शर्म गई
हिन्दू आतंकी कब हैं चींटीका शोक मनाते हैं
इतने पर भी कोष रहे हो कहाँ तुम्हारी शर्म गई

सगे तुम्हारे आतंकी हैं हिन्दू तो दुश्मन ही हैं
क्योंकि सत्ता तुम्हे सौंप कर गाली तो खानी ही है
पर तुम ने तो इसी बात को बहुत बड़ी खूबी समझा
पर होती है जहाँ धूप फिर छाया तो आनी ही है

कब तक यूं ही अपमानों को झेल झेल कर जिओगे
इन कडवे घूंटों को यूं ही ऐसे कब तक पिओगे
आखिर तो मरना है इक दिन उत्तर तो देना होगा
जो बदनाम केगा हम को सबक उसे देना होगा

भारत माता ये कपूत क्या कोख तेरी से जन्मे हैं
लगता है दुश्मन के झूठे टुकड़ों पर ये पनपे हैं
पर इन खरपतवारों को जल्दी नष्ट अभी करना होगा
वरना समय बीत जायेगा और हाथ मलना होगा

आतंकी तो हैं ही दुश्मन तुम भी हम को दो गाली
सत्ता की ऐसी क्या मस्ती जो अपनों को दें गाली
कुर्सी की चर्बी छाई है नही दिखती सच्चाई
करने को बदनाम यहाँ बस हिन्दू कौम एक पाई

जो कट्टर हैं उन को तुम कट्टर भी कब हैं सकते
पर हिन्दू के लिए छूट है उन को गाली दे सकते
क्योंकि आतंकी तो तुम को खुली चुनौती देते हैं
उन का तो तुम एक बाल भी बांका ही न कर सकते

Tuesday, August 24, 2010

देश के वर्तमान हालात

रोज रोज शाजिश होती है यहाँ देश के साथ
लगता है वो मिले हुए हैं गद्दारों के साथ
इसी लिए उन की ही भाषा बोल रहे हैं उल्लू
गठ्बन्धन हो चुका है उन का आतंकी के साथ

देश के टुकड़े करने की ये मांग रहे आजादी
जितनी मिलती छूट और करते दुगनी बर्बादी
फिर भी बिके हुए ये नेता उन के गुण गाते हैं
बेशक हमला करें और वे पत्थर बरसाते हैं

जैसे भी हो दिल्ली की सत्ता पर काबिज रहना
बेशक करना पड़े किसी भी दुश्मन से समझौता
पर कुर्सी पर आंच नही कैसे भी आने पाए
देश लूटे लुट जाये उन्हें क्या इस से लेना देना

यदि देश के लिए कोई भी अच्छा काम करेगा
अमित शाह की तरह जेल में पानी खूब भरेगा
क्योंकि आतंकी को उस ने कहते हैं मरवाया
गद्दारों ने आतंकी हित इतना शोर मचाया

सब को है ये पता किइशरत आतंकी लौंडी थी
सब को पता चली है उस कीकहाँ बंधी डोरी थी
पर उस के मरने पर भी ये हंगामा करते हैं
लगता है इन की भी माँ तो उन के संग सोई थी

आतंकी चाहे कैसा हो ये उस के गुण गएँ
करें देश पर भी हमला वो फिर भी भले कहाएँ
बेशक आतंकी हो या फिर अंदर वर्ल्ड सरगना
कौशिश ये करते हैं उन्हें आंच न कोई आये

नव गीतिका

ओस की बूंदों में भीगे हैं पत्ते कलियाँ फूल सभी
प्यार से छींटे मार गया है जैसे कोई अभी अभी
अलसाये से नयन अभी भी ख्वाबों में खोये से हैं
बेशक आँख खुली है फिर भी टूटा कब है ख्वाब अभी
दिन कितने अच्छे होते थे रातें खूब उजाली थीं
पर लगता है जैसे गुजरी हंसों की सी पांत अभी
कितनी सारी बातें बरगद की छाया में होतीं थीं
उन में शायद ही होंगी तुम को कोई याद अभी
खेल खेलते खूब रूठना तुम को जल्दी आता था
फिर कैसे मैं तुम्हे मनाता क्या ये भी है याद अभी
कैसे भूलूँ वे सब बातें बहुत बहुत कौशिश की है
पर मुझ को वे कहाँ भूलतीं सब की सब हैं याद अभी

Saturday, August 21, 2010

नव गीतिका

सुखद अनुभूतियों के क्षण बहुत थोड़े से होते हैं
बहुत तपती है जब धरती जलद दो चार होते हैं
बहुत कुछ सोचता है मन बहुत ऊँचा सा उड़ता है
परन्तु पांव में छाले व दिल में घाव होते हैं
घनी छाया जिन्हों की है बहुत जो फूलते फलते
उन्ही वृक्षों की शाखों पर कुठारा घात होते हैं
किन्ही भीं झंझटों से दूर रहना चाहते हैं जो
उन्ही की जान को हर दिन नये जंजाल होते हैं
जिन्होंने शीश दे कर भी कभी उफ़ तक नही की है
वही तो देशभक्ति की सही पहचान होते हैं
कभी जिन की बुलंदी आसमाँसे बात करती थी
उन्ही के खंडहर भी तो बहुत वीरान होते हैं
बिना कुछ चाहके कोई यदि अपना सा मिल जाये
कभी मिलते तो हैं ऐसे वह अपवाद होते हैं
इन्होने कर लिया हांसिल मुकुट पहचान उन की है
उन्ही के इस जमाने में बहुत गुण गन होते हैं
ये माना नेक नियत का ही रस्ता ठीक होता है
परन्तु इसी रस्ते पर बहुत नुकसान होते हैं
जिन्हें पैरों के नीचे रौंद कर उपर से जाते हो
हवा मिल जाये जब उन को वही बलवान होते हैं
जिन्होंकी अपनी कोई भी जुबां होती नही ही है
उन्हों के भी बहुत दिल में दबे अरमान होते हैं
जिन्हों की सिसकियों में जोर से आवाज न निकले
तुम्हे बेशक नही सुनती उसी में राम होते हैं
जिन्हें तुम पत्थरों सा जान कर ठोकर लगाते हो
उसी रस्ते के पत्थर में बसे भगवान होते हैं
कई गम हैं यहाँ ऐसे भी जो मुश्किल से ही मिलते हैं
बहुत से ऐसे ही गम तो व्यथित के पास होते हैं

Wednesday, August 18, 2010

जब हुए चर्चे तभी पहचान उन की हो सकी
वरना उन को इस शहर में जनता ही कौन था
चोट खा दुनिया से उन का मन भी हल्का हो गया
वरना मन के बोझ को पहचानता ही कौन था
हाथ सब ने ही उठाये थे समर्थन के लिए
सच जो कहता खड़ा हो शख्श ऐसा कौन था
सब तरफ बस एक ही चर्चा रही इस शहर में
कर दिया बदनाम मुझ को दोस्त ऐसा कौन था
नाम क्यों लेता किसी का जब हुआ बदनाम मैं
थी पता मुझ यह साजिश में शामिल कौन था
बढ़ रही थी भीड़ बिन सोचे उसे जाना कहाँ
रोकता जो भीड़ को वो शख्श ऐसा कौन था
आग को पी कर भी वो जिन्दा रहा दरसाल दर
एक मैं हूँ दूसरा तुम ही बताओ कौन था
बिन बताये नाम मेरा लिख दिया उस बुत पर
पर समझ आया नही वो लिखने वाला कौन था
इस शहर में हादसे का वक्त तुम से क्या कहूं
हादसा जब न हुआ हों वक्त ऐसा कौन था
दोस्त था दुश्मन था इस का फैसला कैसे करूं
दे गया जो फूल मेरे हाथ में वो कौन था
दोस्त था दुश्मन था इस का फैसला कैसे करूं
दे गया जो दाद मेरे शेर पर वो कौन था
याद मुझ को कहाँ थी मेरे जन्म दिन की तिथि
दे गया मुझ को बधाई शख्श ऐसा कौन था

Saturday, August 14, 2010

वन्दे मातरम

साल तरेसठ बीत गये हैं अब भी भ्रम में जीते हैं
कहने को आजाद हुए हैं मन ही मन खुश होते हैं
पर आजादी मिली कहाँ है सत्ता का हस्तान्तर है
बेशक खुश हो कर कहते हम आजादी में जीते हैं

पहले पाकिस्तान बनाया फिर सारी तिब्बत दे दी
दे उन को कश्मीर का हिस्सा सारी ही इज्जत दे दी
फिर समझौता कर शिमला में स्वाभिमान भी दे डाला
लगता है इस कांग्रेस ने फिर से वही आग दे दी

Wednesday, August 11, 2010

नव गीतिका

बेशक तूने दुनिया देखी
पर पहले खुद को तो देख
क्या रखा है उन महलों में
पहले अपने घर को देख
देख इया होगा जग सारा
पर अपनी दुनिया तो देख
क्या बतलाऊँ तुझ को रे मन
सब कुछ अपने अंदर देख
कितनी दूर देख पायेगा
केवल अपनी जद में देख
कितना ऊँचा उड़ पायेगा
पहले इन पंखों को देख
करने को कुछ भी तू कर ले
पर करने से पहले देख
क्या २ मैंने शं कर लिया
मेरे इन जख्मों को देख
ये बातें तो ठीक नही हैं
देख रही है दुनिया देख
क्या कहना है तुम को उन से
पहले अपने दिल में देख
पैर बढ़ाना तब आगे को
पहले अपनी चादर देख
बड़ी बात कहने से पहले
नीला अम्बर सिर पर देख
यों तो कुछ भी खले बेशक
पर उस का मतलब तो देख
व्यथा तो दुनिया देती ही है
व्यथित यहाँ पर ये मत देख

Thursday, August 5, 2010

देश कीवर्तमान व्यवस्था पर कुछ मुक्तक

पत्थर बजी करें सडक पर और पुलिस को पीट रहे
जिस में खाते छेड़ उसी में करें देश को लूट रहे
फिर भी मौन साध कर चुप हो देख रहे हैं नेता
कैसी बेशर्मी क्या ऐसे भाग्य हमारे फूटे

berujgari ka hl क्या ye ptthar बाज़ीhota
kitna paisa मिला केंद्र से उस का क्या २ होता
मांगे कौन हिसाब देश के कैसे दुर्दिन आये
जितना मुंह में भरें रात दिन और भी छोड़ा होता

आखिर कब तक इसी तरह इज्जत लुटवाई जाएगी
बेरहमी से सम्म्पति कब तक जलवाई जाएगी
कोई तो सीमा होगी ये ऐसे कब तक होगा
गद्दी पर बैठे गद्दारों कभी शर्म क्या आएगी

क्यों न करते सख्त एक्शन ऐसी क्या मजबूरी
इज्जत लूट रहे आतंकी उन कि मर्जी चलती
हाथ पे हाथ धरे रहने से क्या वे राजी होंगे
सख्ती से शासन चलता है बात न ऐसे बनती

कश्मीर में कुछ कहते हैं दिल्ली जबां दूसरी
इसी दोहरे पन की आदत इन की कहाँ छूटती
ऐसी २ मक्कारी से बज नही ये आते
कैसी मक्कारी करते है क्यों न हमे दीखती

कुछ न ठेका लिया देश में हिन्दू को मितावाएंगे
बीके मिडिया कर्मी मिल कर कोर्स में ये गायेंगे
रोजी रोटी है इन की ये यही एक चिंता है
अपनी माँभी गली दे खुद ही खुश हो जायेंगे

बाहर आँख दिखा कर ये फिर चरणों में गिर जाते
जा कर मैडम के चरणों में बकरी से मिमियाते
अभी दान के लिए तरीके इन को सारे आते
सत्ता की खतिर ये गुंडे हिजड़े से बन जाते

शायद भारत के कर्मोंका भग्य विधाता रूठ गया
लगता है उन्नति का सूरज यहाँ अचानक डूब गया
गुंडा गर्दी लूट डकैती ये सब की सब आम हुई
कहाँ देश में अब शाशन है गुंडा शासन खूब हुआ

Wednesday, August 4, 2010

नव गीतिका

तुम्हारी याद में मैंने बहुत आंसू लुटाये हैं
वही मोती बने हैं रात भर वो जगमगाते हैं
तुम्ही ने जो कहे दो बोल मीठे प्यार के मुझ से
ये पक्षी चाव से उन को ही हर पल गुनगुनाते हैं
तुम्हे मेरा पता है जानते हो हाल तुम सारा
पपीहा बादलों कोही उसे गा कर सुनते हैं
तुम्हारी गंध चन्दन सी हमेशा पास रहती है
उसे दिल में बसा कर फूल दुनिया में लुटाते हैं
जहाँ से तुम गुजरते हो धूल अनमोल हो जाती
उसे चन्दन समझ कर लोग माथे पर लगाते हैं
तुम्हारे नेह की वरिश यह अमृत की बूँदें हैं
इन्ही बूंदों से अपनी प्यास सब चातक बुझाते हैं
तुम्हे कैसे लगा ये हिम शिखिर इतने निठुर होंगे
यही तो नेह के मीठी बहुत नदियाँ बहाते हैं
बहुत जो दूर से आते भरोसा क्या करें उन का
वे पाखी कुछ समय के बाद वापिस लौट जाते हैं
अँधेरा कब अच्छा उदासी ही वह देता
सुभ सूरज निकलता है कमल सब खिलखिलाते हैं
कभी देखा सुना न आज तक ऐसा किया क्या है
व्यथित की बात क्या ऐसी जिसे सब को बताते हैं