Tuesday, September 7, 2010

मेरी अनुकूलताएँ

हमेशा अनुकूलताओं के ही लिए ही
आग्रह था मेरा
जैसा मुझे अच्छा लगे
उसे ही उचित समझना
कौन सा न्याय था मेरा
परन्तु फिर भी तुम
हिम खंड सी गलती रहीं
मेरी अनुकूलताओं के लिए
उस के प्रवाह को बनाये रखने के लिए
|तुम कठोर चट्टान क्यों नही हुईं
मेरी इन व्यर्थ अनुकूलताओं को
रोकने के लिए
जो बर्बरता से अधिक
कुछ भी न थीं
शायद तुम्हें पता भी था कि
कहाँ है मुझ में इतना साहस
जो चट्टान से टकराता
या तो वापिस मुड जाता या
झील बन कर वहीं ठहर जाता
जो दोनों ही सम्भवत:
पसंद नही थे तुम्हे
परन्तु कोई तो रास्ता
निकलना चाहिए था
उस हिम खंड को गलाने के बजाय भी
ताकि बचा रहता तुम्हारा
रूपहला अस्तित्व और मेरी अनुकूलताएँ |

2 comments:

Udan Tashtari said...

उम्दा रचना.

सुनील गज्जाणी said...

वेद सर ,
प्रणाम !
आप के ब्लॉग पे आ कर अच्छा लगा , अच्छी रचना है , सधुवाद .
सादर !