Wednesday, July 28, 2010

खेलों का समय नजदीक आ गया है लोग कह रहे हैं कि नक् जरूर कटेगी अय्यर साहब तो इस के लिए बाकायदा दुआ मांग रहे हैं इस पर मेरे कुछ मुक्तक प्रस्तुत हैं :-
खेलों में जो नाक कटेगी अब वो नाक बची ही कब है
नाक तो रोज रोज कटती है मंहगाई बढ़ जाती जब है
और नाक क्या तब न कटती आतंकी हमला होता जब
फिर भी नाक २ चिल्ला कर क्या यह नाक बचेगी अब है

केंद्र और सी बी आई

अपराधी को हीरो साबित करना कैसी मजबूरी है
उस के ही तो लिए देश की पूरी ख़ुफ़िया एजेंसी है
वैसे न तो ऐसे ही हम तुम से बदला ले ही लेंगे
सत्ता के भूखे स्यारों की ये नीयत कितनी खोटी है

मंहगाई पर

मंहगाई तो यार देश की उन्नति का ही पैमाना है
सरकारी इन अर्थ शास्त्रियों ने इसी बात को तो माना है
भूखे नंगे भीख म्न्गों को सस्ते कार्ड बनाये तो हैं
पर केवल वे ही भूखे हैं जिनको सरकारी माना है

जातिवादी जहर

जातिवाद पर फख्र करो अब ही तो अवसर आया है
संसद से सडकों तक इस का ही तो डंका बजवाया है
इसी लिए जाति गत गणना से अपनी बन आएगी
इस से ही तो सत्ता पाने का अवसर अब आया है
डॉ. वेद व्यथित

Saturday, July 24, 2010

नव गीतिका

बहुत तन्हाईयाँ मुझ को भी तो अच्छी नही लगती
परन्तु क्या करूं मुझ को यही जीना सिखाती हैं
बहुत तन्हाइयों के दिन भुलाये भूलते कब हैं
वह तो खास दिन थे जिन्हों की याद आती है
यही तन्हाईयाँ तो आजकल मेरा सहारा हैं
सफर में जब भी चलता हूँ हई तो साथ जाती हैं
उन्होंने भूल कर के भी कभी आ कर नही पूछा
यह तन्हाईयाँ ही हाल मेरा पूछ जाती हैं
बहुत अच्छी हैं ये तन्हाईयाँ कैसे बुरा कह दूं
इन्ही तन्हाइयों में तुम्हारी याद आती है
यह तन्हाईयाँ मुझ से कभी भी दूर न जाएँ
इन्ही के सहारे मेरी भी किस्ती पार जाती है
इन्ही तन्हाइयों ने मुझ को बेपर्दा किया यूं है
बताता कुछ नही फिर भी पता सब चल ही जाती है
मोहब्बत मांग ली थी कुछ सुकून के वास्ते मैंने
उसी के साथ में तन्हाईयाँ खुद मिल ही जाती हैं
बहुत कीमत है इन तन्हाईयों की खर्च न करना
तिजोरी दिल को तो इन से हमेशा भरी जाती है


हमारे नाम के चर्चे जहाँ पर भी हुए होंगे
वहाँ पर खूब आंधी और तूफान भी हुए होंगे
तुम्हे कैसे कहूँ मैं मोम भी पाषाण होता है
इन्ही बातों से लोगों के जहन भी हिल गये होंगे
खबर है क्या तुम्हे वोप भूख को उपवास कहता है
खबर होती तो सिंघासन तुम्हारे हिल गये होंगे
महज अख़बार की कालिख बने हैं और वे क्या हैं
फखत शब्दों से कैसे पेट जनता के भरे होंगे
तुम्हारे चंद जुमले तैरते फिरते हवा में हैं
उन्हें कुछ पालतू मन्त्रों की भांति रट रहे होंगे
तुम्ही ने नाम करने को ही उस में बद मिलाया है
उसी खातिर ये ऐसे कारनामे खुद किये होंगे
उन्हें मैंने कहा कि आप भी मुख से जरा बोलेन
उसी से छल कपट के भेद सरे खुल रहे होंगे
यदि इन कारनामों को ही तुम सेवा बताते हो
तो निश्चित अर्थ सेवा के तुम्ही से गिर गये होंगे