Monday, April 4, 2011

वायु और जल

मित्रो इस से पहले प्रकाशित "जल और वायु "कविता को मित्रों का बड़ा स्नेह व आशीष मिला परन्तु मेरा निवेदन है कि इस कविता की दूसरी पूरक कविता है" वायु और जल "ये दोनों कविताये एक दूसरे की पूरक हैं मुझे आशा है इसे भी आप का पूर्वत स्नेह प्राप्त होगा

वायु और जल

निर्बाध एकाकी मंथर गति से बहते २
वायु क्यों तीव्र हो उठती है
क्यों कि उसे भी तो चाहिए
कोई सहचर
उस की भी तो कुछ
इच्छाएं बलवती होती हैं
वह भी चाहती है
सुकोमल किसलयों को सहलाना
फूलों को छूना ,गंध को पीना
जल से शीतल हो जाना
और अपने मनोवेगों को
रोकने के लिए सामर्थ्यवान
विशाल वन का आलिंगन करना
नही तो प्रचंड हो उठती है वह
तब पगलाई सी हो कर
धराशाही कर देती है वह
बड़े २ मर्यादित शिखरों को
ऊंची २ अट्टालिकाओं के ध्वजों को
बड़े २ वट जैसे विशाल वृक्षों को
या जो भी सामने आये उस को
क्योंकि उसे भी तो चाहिए
अपने संवेग का उत्तर
उस का समाधान और उस का आदर ||

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहे वायु, सब झुक जाते हैं,
बढ़ते पंथी रुक जाते हैं।