Tuesday, May 24, 2011

गीत

गीत
राह सूझती नही
बहुत उलझा पथ है
ये मर्यादाएं हैं या
केवल उन का भ्रम है
मैं खड़ा देखता रहा
चलूँ तो किस पथ में |

कुछ राह चुनीं
देखीं परखी
कुछ दूर गया
आगे जा कर देखा
तो कुछ और मिला
अब वापिस लौटूं
या आगे कुछ और चलूँ
अब इस ही पथ में |

ऐसे तो राहें बहुत
और जीवन थोडा
किस २ को परखूँ
किस पर कितने
कोस चलूँ
कोई तो राह बची हो
शेष जहाँ मानवता हो
वह राह कठिन से कठिन
कठिन अग्नि पथ हो
मैं चल लूँगा जैसे भी होगा
उस ही पथ में ||

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

द्वन्द विकट हो,
प्राप्य निकट हो।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मन के संशय को व्यक्त करती अच्छी प्रस्तुति

vandana gupta said...

जीवन पथ पर अकेले ही चलना होता है।