पतझड़ ,वसंत ,
सर्दी गर्मी व बरसात
सभी कुछ आता है
हर बार अपनी ही तरह
परन्तु हम ही उसे
करते हैं कम या अधिक
अपने २ मन की
तराजू पर तोल २ कर
कभी कोयल की कूक को सुंदर बता कर
कभी बसंत के पीले रंग को
अपने दुःख से मिला कर
परन्तु न तो मौसम बदलता है
अपना रंग ,अपना मिजाज
और न ही अपना क्रम
अपितु हम ही बदल जाते हैं
और रंगते रहते हैं
अपने ही रंगों में
फूलों को ,भंवरों को ,तितलियों को
बादलों को ,शीत को और ताप को
8 comments:
अपने मन के रंगों में हम नित नित नया रंगाते हैं,
जो चाहें, न बन पायें वो, जो न चाहें, बन जाते हैं।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (12-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
उत्साही जी द्वारा आपके काव्य-संग्रह पर की गई समीक्षा पढ कर आपका ब्लाग देखने की भी लालसा हुई । गुप्त जी ने भी यही तो संकेत दिया है--
सरल-तरल जिन तुहिन कणों से हँसती हर्षित होती है । अति आत्मीया प्रकृति हमारे साथ उन्ही से रोती है ।
परन्तु न तो मौसम बदलता है
अपना रंग ,अपना मिजाज
और न ही अपना क्रम
अपितु हम ही बदल जाते हैं
जैसा जिसका मन होता है वैसा ही मौसम दिखता है
'अपितु हम ही बदल जाते हैं '
...............गहन भावों की सुन्दर रचना
बहुत सुन्दर, गहरी भावाभिव्यक्ति.....
सादर....
अलग सा ख्याल है इस रचना में .. हम ही बदल जाते हैं ...
bahut pasand aayee.....
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