Tuesday, August 24, 2010

नव गीतिका

ओस की बूंदों में भीगे हैं पत्ते कलियाँ फूल सभी
प्यार से छींटे मार गया है जैसे कोई अभी अभी
अलसाये से नयन अभी भी ख्वाबों में खोये से हैं
बेशक आँख खुली है फिर भी टूटा कब है ख्वाब अभी
दिन कितने अच्छे होते थे रातें खूब उजाली थीं
पर लगता है जैसे गुजरी हंसों की सी पांत अभी
कितनी सारी बातें बरगद की छाया में होतीं थीं
उन में शायद ही होंगी तुम को कोई याद अभी
खेल खेलते खूब रूठना तुम को जल्दी आता था
फिर कैसे मैं तुम्हे मनाता क्या ये भी है याद अभी
कैसे भूलूँ वे सब बातें बहुत बहुत कौशिश की है
पर मुझ को वे कहाँ भूलतीं सब की सब हैं याद अभी

1 comment:

Sunil Kumar said...

पहली बार आपके व्लाग पर आया और सुंदर रचना पढने को मिली , बधाई