कभी गलाने के लिए पानी
सुखाने के लिए हवा
जलाने के लिए ईंधन
और लीपने के लिए माटी
जुटते २ पल पल
गलती रही जिन्दगी
सूखती रही जिन्दगी
जलती रही जिन्दगी
और सिमटती रही जिन्दगी
धीरे धीरे पल पल
और यूं ही होता रहा सवेरा
कभी खूब दिन चढ़े
कभी पौ फटे
कभी उस से भी पहले
कभी बहुत पहले
फिर समाप्त हुआ
शाम, रातऔर सुबह का अंतर
क्यों कि अभी और भी था
गलना ,सूखना और जलना |
2 comments:
आपकी कविताओं में गंभीरता है ....
बहुत अच्छी रचना ....
बधाई ....!!
"क्यों कि अभी और भी था /गलना ,सूखना और जलना" | जीवन-यात्रा की सुन्दर अभिव्यक्ति. मेरी बधाई स्वीकारें- अवनीश सिंह चौहान
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