Wednesday, January 12, 2011

तुम्हारा मन

तुम्हारे मन में
असामयिक मेघों की भांति
उमड़ते घुमड़ते प्रश्नों का ऊत्तर
इतना सरल नही था
क्योंकि वे अर्जुन का विषाद नही थे
गांधारी का पुत्र मोह भी कहाँ था उन में
तथा उस का सत्य की विजय का
आशीष भी नही थे वे
क्योंकि वे तो
प्रतिज्ञाओं की श्रंखला में आबद्ध
कृत्रिम सत्यान्वेष्ण को
ललकारने की स्वीकृति भर चाहते थे
ताकि दुःख की बदली से झर कर
निरभ्र हो जाएँ
और खून से आंसुओं की
धारा से प्लावित कर दें
उन उत्तरों को
जो बोझ की भांति
धर दिए हैं
जबर दस्ती
दहकते कलेजे पर

1 comment:

vandana gupta said...

ओह! बेह्द मार्मिक्।