Wednesday, January 26, 2011

उलझन

जीवन के बेहिसाब
उलझे हुए तन्तुओं को
बार २ सुलझाने पर भी
छोर हाथ नही आता है
कई बार लगता है कि
अब तो छोर मिल ही जायेगा
इस जटिलता का
परन्तु वह और भी
गहराई में जा कर खो जाता है
और हाथ आती है
फिर जीवन की वही निराशा
परन्तु अब यह कोई नई बात
नही रह गई है
यही तो होता रहा है बार २
और फिर वही एक उम्मीद की
नई किरण फूटती है हर बार
परन्तु अंत उसी अँधेरे में होता है उस का
शायद यही सत्य हो गया है जिन्दगी का
उन्ही उलझे तन्तुओं में उलझे रहना
छोर को ढूंढना, ढूंढते ढूंढते
स्वयम उसी में खो जाना
फिर उसे उसी तरह आगे के लिए छोड़ जाना
उलझा का उलझा हुआ ही
वैसा का वैसा ही||
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2 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

जीव जंजालों पड़ गया उलझा नौ मण सूत।
या सुलझे कोई जोगी,या सुलझेगा अवधूत।

गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई

vandana gupta said...

और फिर वही एक उम्मीद की
नई किरण फूटती है हर बार
परन्तु अंत उसी अँधेरे में होता है उस का
शायद यही सत्य हो गया है जिन्दगी का
उन्ही उलझे तन्तुओं में उलझे रहना
छोर को ढूंढना, ढूंढते ढूंढते
स्वयम उसी में खो जाना
फिर उसे उसी तरह आगे के लिए छोड़ जाना
उलझा का उलझा हुआ ही
वैसा का वैसा ही||

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।