झूठ के आवरण सब बिखरते रहे
साँच की आंच से वे पिघलते रहे
खूब ऊँचें बनाये थे चाहे महल
नींव के बिन महल वे बिखरते रहे
हाथ आता कहाँ चंद उन को यहाँ
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे
ओस की बूँद ज्यों २ गिरी फूल पर
फूल खिलते रहे और महकते रहे
देख ली खूब दुनिया की रंगीनियाँ
रात ढलती रही दीप बुझते रहे
हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे
जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
नैन और नक्श उन के निखरते रहे
3 comments:
हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे
जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
नैन और नक्श उन के निखरते रहे
वाह! बहुत सुन्दर संवेदनायें।
sir pranam !
achchi geetikayon ke liye badhai .
sadhuwad
kya khoob sir ji! kya kalpana hai
हाथ आता कहाँ चंद उन को यहाँ
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे
sir ye haat aata kaha (chand) hai ?
itne sunder rachna ke liye hardik badahai.
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