Wednesday, November 10, 2010

नव गीतिका

झूठ के आवरण सब बिखरते रहे
साँच की आंच से वे पिघलते रहे
खूब ऊँचें बनाये थे चाहे महल
नींव के बिन महल वे बिखरते रहे
हाथ आता कहाँ चंद उन को यहाँ
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे
ओस की बूँद ज्यों २ गिरी फूल पर
फूल खिलते रहे और महकते रहे
देख ली खूब दुनिया की रंगीनियाँ
रात ढलती रही दीप बुझते रहे
हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे
जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
नैन और नक्श उन के निखरते रहे

3 comments:

vandana gupta said...

हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे
जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
नैन और नक्श उन के निखरते रहे

वाह! बहुत सुन्दर संवेदनायें।

सुनील गज्जाणी said...

sir pranam !
achchi geetikayon ke liye badhai .
sadhuwad

rajiv srivastava said...

kya khoob sir ji! kya kalpana hai
हाथ आता कहाँ चंद उन को यहाँ
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे
sir ye haat aata kaha (chand) hai ?

itne sunder rachna ke liye hardik badahai.