Thursday, September 9, 2010

आस्था व विश्वाश

नही वह देवता नही था
उस के ऊपर
एक कृत्रिम आवरण मात्र था
देवत्व का
परन्तु तुम ने मान लिया था
उसे देवता
और पूजती रहीं सब तरह उस को
एक विश्वाश लिए ,आस्था लिए
परन्तु उस का देवत्व
उतरता रहा धीरे धीरे
पर तुम ने नही छोड़ा आस्था व विश्वाश
परन्तु फिर भी मैं
अंतिम परिणति जानने की
हिम्मत नही जुटा सका
तुम से कुछ पूछने की
क्योंकि
तुम्हार विश्वाश और आस्था तो
अटल थी
और मैं
यह भी जनता था कि
देवत्व का आवरण
कितने दिन रहा होगा उस पर
बस मैं भी चुप हो गया
और प्रार्थना मैं लग गया कि
तुम्हारी आस्था व विश्वाश पूर्ण हों |

1 comment:

सुधाकल्प said...

कविता के साथ-साथ आपका ब्लाँग भी सुन्दर लग
रहा है|
सुधा भार्गव