Sunday, September 26, 2010

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा

कभी कभी बहत मुश्किल हो जाता है
सूरज का निकलना
यानि सुबह का होना
या दिन का निकलना
तब रात लम्बी ही इतनी लगने लगती है
घड़ी की सुइयां
जैसे बढती ही नही है आगे
तब और झुंझलाहट सी होने लगती है
घड़ी पर रात पर और नींद पर
परन्तु वास्तविक झुंझलाहट तो
अपने मन पर होती है
मन में उठ रहे उफानो पर होती है
ओ खत्म ही नही होते हैं
एक के बाद एक
जारी रहता है जिनका क्रम
जिन से उचाट हो जाती है नींद
तब और बढ़ जाता है अँधेरा
सूरज निकलने की प्रतीक्षा में
कि कब निकलेगा सूरज
कब होगा सुप्रभात
कब खिलेंगे कमल

Friday, September 24, 2010

बरसती नदी

बरसती नदी तो
उफन ही गई थी
यौवन की ,रूप की और रस की
चार बूँद भर प् कर
और तुम होती गयीं कुछ
अधिक शर्मीली
अधिक संकोची और अधिक सौम्य भी
अपने यौवन के वसंत से रूप के निखर से
उस की सिंग्धता से
और इन सब के महत्व से
कितना अंतर था
तुम में और
उस ओछी सी
उफनती नदी में

Monday, September 13, 2010

रपट




साहित्यिक रपट
हम कलम साहित्यिक संस्था (पंजी )की पावस ऋतू पर काव्य गोष्ठी गुडगाँव में आयोजित की गई| गोष्ठी में हिंदी साहित्य जगत के सशक्त
हस्ताक्षरों की सहभागिता रही जिन में प्रमुखत: व्यंग्य विधा व हिंदी गजल के स्वनाम धन्य रचनाकार डॉ. शेरजंग गर्ग ,प्रख्यात उपन्यास कार द्रोण वीर कोहली सुप्रसिद्ध लेखिका चन्द्र कांता कथा विदूषी डॉ. संतोष गोयल नव गीतिका रचनाकार व लेखक डॉ. वेद व्यथित कथा लेखिका व कवयित्री डॉ.सुनीति रावत अंगेजी भाषा के प्रसिद्ध साहित्य कार डॉ. केदार नाथ शर्मा व डॉ. सुदर्शन शर्मा डॉ. नलिनी भार्गव डॉ.विद्या शर्मा श्रीमती सुनीता शर्मा एवं श्री मती रूपम आदि ने पावस पर अपनी कविताएँ प्रस्तुत कीं
गोष्ठी का सफल संचालन किया डॉ. संतोष गोयल ने आगामी गोष्ठी सितम्बर के अंत में करना निश्चित हुआ है

Thursday, September 9, 2010

आस्था व विश्वाश

नही वह देवता नही था
उस के ऊपर
एक कृत्रिम आवरण मात्र था
देवत्व का
परन्तु तुम ने मान लिया था
उसे देवता
और पूजती रहीं सब तरह उस को
एक विश्वाश लिए ,आस्था लिए
परन्तु उस का देवत्व
उतरता रहा धीरे धीरे
पर तुम ने नही छोड़ा आस्था व विश्वाश
परन्तु फिर भी मैं
अंतिम परिणति जानने की
हिम्मत नही जुटा सका
तुम से कुछ पूछने की
क्योंकि
तुम्हार विश्वाश और आस्था तो
अटल थी
और मैं
यह भी जनता था कि
देवत्व का आवरण
कितने दिन रहा होगा उस पर
बस मैं भी चुप हो गया
और प्रार्थना मैं लग गया कि
तुम्हारी आस्था व विश्वाश पूर्ण हों |

Tuesday, September 7, 2010

मेरी अनुकूलताएँ

हमेशा अनुकूलताओं के ही लिए ही
आग्रह था मेरा
जैसा मुझे अच्छा लगे
उसे ही उचित समझना
कौन सा न्याय था मेरा
परन्तु फिर भी तुम
हिम खंड सी गलती रहीं
मेरी अनुकूलताओं के लिए
उस के प्रवाह को बनाये रखने के लिए
|तुम कठोर चट्टान क्यों नही हुईं
मेरी इन व्यर्थ अनुकूलताओं को
रोकने के लिए
जो बर्बरता से अधिक
कुछ भी न थीं
शायद तुम्हें पता भी था कि
कहाँ है मुझ में इतना साहस
जो चट्टान से टकराता
या तो वापिस मुड जाता या
झील बन कर वहीं ठहर जाता
जो दोनों ही सम्भवत:
पसंद नही थे तुम्हे
परन्तु कोई तो रास्ता
निकलना चाहिए था
उस हिम खंड को गलाने के बजाय भी
ताकि बचा रहता तुम्हारा
रूपहला अस्तित्व और मेरी अनुकूलताएँ |

Monday, September 6, 2010

मन और वाणी की दूरी

यह कतई जरूरी नही है
कि मेरे विषय में
तुम जो सोच रहे हो
वही मुझ से कह भी रहे हो
या जो कह रहे हो
वैसा ही मेरे विषय में मानते भी हो
या जो मानते हो
वह शायद नही कह पा रहे हो
सम्भवत: अपनी शिष्टता के नाते ,
अपनी सहृदयता के नाते या
अपनी चतुरता के नाते या
पता नही ऐसे ही किसी अन्य कारण से
क्योंकि और भी कई कारण हो सकते हैं
तुम्हारे मन और वाणी के
मध्य की दूरी के
और इन दोनों के मध्य
मैं कहाँ हूँ
यह पता कहाँ लगता है
तुम्हारे इन औपचारिक शब्दों से ||

nivedn

अपने निकटम ब्लोगर मित्रों से मेरा निवेदन है कि वे कृपा कर के
sakhikabira.blogspot.com पर भाई सुभाष राय द्वारा प्रकाशित मेरी नव गीतिकाएं पढ़ कर अनुग्रहित करें व अपने मत से अवगत करवाएं
हार्दिक आभार