Friday, July 8, 2011

दिल किरच किरच टूटे

दिल किरच किरच टूटे और टूटता ही जाये
बाक़ी बचे न कुछ भी फिर भी धडकता जाये
कहने को साँस चलती रहती खुद ब खुद ही
ये ही नही है काफी बस साँस चलती जाये
मौसम की बात छोडो अब खेत ही कहाँ हैं
खेतों में खूब जंगल लोहे का बनता जाये
तड़पन को कौन पूछे कितना भी दिल तडप ले
जब तक चले हैं सांसे बेशक तडपता जाये
ये भी हर भरा था जो ठूंठ सा खड़ा है
किस को पडी है बेशक मिट्टी में मिलता जाये
पाया नही जो चाहा अनचाहा खूब पाया
दुनिया में कब हुआ है जो चाहें मिलता जाये
अब बहुत हो चुका है सूरज का तमतमाना
अब तो गरज के बदरा रिमझिम बरसता जाये |

3 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

khoobsurat kavita!

सुधाकल्प said...

दिल किरच-किरच टूटे और टूटता ही जाये
बाकी बचे न कुछ भी फिर भी धड़कता जाये
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति--।
सुधा भार्गव

प्रवीण पाण्डेय said...

सूरज की तमतमाहट समेट लेने के बाद ही बादलों का बहना प्रारम्भ होता है।