यह मन ही तो था
जो बार २ आलोड़ित होता रहा
सागर की भांति
कभी घृणा ,कभी प्यार
कभी द्वेष ,कभी स्नेह
और कभी विष तो कभी अमृत
प्रकट होता रहा उस में
या छीजता रहा शैने: २ चाँद की नाईं
रजत उज्ज्वलता बिखेरता हुआ
और कभी २ कली सा
धूप में खिल कर
मुरझाता रहा
क्योंकि आखिर यह मन ही तो था
अस्थिर ,चंचल ,वेगवान और प्रयत्नशील भी
कुछ और होने के लिए
परन्तु होता कैसे
अपनी अस्थिरता और चंचलता के कारण
और बना रहा बस केवल मन ||
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