जैसे उड़ जहाज कौ पंछी
कहाँ कहाँ न गया मेरी आश का पंछी
कहीं सुबह तो कहीं रात हो गई उस की ||
बहुत ही दूर के दरिया समन्दरों को देखा
कोई पर्वत कोई घटी नही हुई उस की ||
कहीं भी देख हरे बाग जब उतरने लगा
जिन्दगी जाल में फंसने लगी तभी उस की ||
हवा के साथ खूब ऊँचा उड़ा था तो मगर
उसी ने छीन ली ताकत तमाम ही उस की ||
बहुत जो दूर था अच्छा लगा तो लेने गया
नही था दूर जो नजर पडी थी उस की ||
आना ही था आखिर जहां से उड़ वो गया
और कोई ठौर समन्दर में नही थी उस की ||
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