Friday, March 7, 2014


स्त्री यानि औरत

जिस की मजबूरी है 
घर की आमदनी  बढ़ाना  या 
आधुनिकता की दौड़ में शामिल होना 
इसी लिए निकलना पड़ता है उसे 
घर से सुबह सवेरे जल्दी ही 
सब की इच्छाएं पूरी करते हुए 
टिफिन , टाई  , रुमाल , जुराब और 
जरूरी चीजें संभलवा    कर 
फिर भागना पड़ता है उसे 
अपना नाश्ता छोड़ कर 
भीड़ भरे वाहनों में घुसने के लिए 
अपने खाली  से पर्स 
औ दूसरे  सामान के साथ 
साडी और साडी के पल्लू को सम्भालते २
आधुनिकता  और मजबूरी के बोझ को 
साथ २ ढोते  हुए ।
इसी तरह आती है वह शाम को 
सारा बोझ ढो कर 
जो और भारी  हो जाता है घर पहुँचते २ 
और उतरता भी नही है 
अन्य  सामान की तरह मन से
 घर आने पर भी 
अपितु और बढ़ जाता है वह 
दिन प्रति दिन यानि हर दिन 
दुगना हो कर ॥  

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत सुन्दर कविता..

vedvyathit said...

aabhar bndhu prveen ji