Wednesday, November 16, 2011

फिर अंधियारी रात हो गई |

अभी अभी तो दिन निकला था
सूरज अठखेली करता था
पता कहाँ चल पाया मुझ को
इतनी जल्दी साँझ हो गई
दिन बीता सपने सा खाली
फिर अंधियारी रात हो गई ||

दीख रहा था अभी सामने
हाथ बढ़ा कर छूना चाहा
पर माया मृग बन कर खुद को
खुद से दूर बहुत ही पाया
कहाँ कहाँ ढूँढा फिर खुद को
सब कोशिश बेकार हो गई ||

आँखों का विश्वास यदि मैं
कर भी लूं तो नादानी है
बिना बताये कहाँ उलझ लें
वे पीड़ा से अनजानी हैं
उन का क्या वे उलझ २ कर
मुझ को कितनी पीर दे गईं ||

मुस्कानों से दूर रहूँ तो
मरघट सा जीवन लगता है
यदि उलझता मुस्कानों में
नही भेद उन का चलता है
जितना उलझन को सुलझाया
उलझन उतनी और हो गई ||

आखिर तो वे मेरे सपने
साथ कहाँ तक दे पाएंगे
आखिर इन का लिए सहारा
कितने से दिन कट पाएंगे
फिर भी जीवन की अभिलाषा
सांस सांस की आस हो गई ||

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

रात जायेगी, दिन आयेगा।

अरुण चन्द्र रॉय said...

सुन्दर रचना , बधाई.

ZEAL said...

Great creation ...very touching...

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

दिन बीता सपनों सा खाली
फिर अंधियारी रात हो गई|
सुंदर सार्थक पोस्ट....
मेरी नई पोस्ट पर आप का स्वागत

Anju (Anu) Chaudhary said...

आपकी ये रचना जिन्दगी के कई रंगों को छू कर गुज़री है ...आभार