अब धूप नही आती
सूरज को उलहना है
उस को वः सताती है
क्या वो अनजानी है
ये हो ही नही सकता
सर्दी तो रानी है
जब हाथ ठिठुरते हैं
टीबी मन के अलावों में
दिल भी तो जलते हैं
ये आग तो धीमी है
दिल और जलाओ तो
ये धूप ही सीलीहै
वो महल अटारी से
क्यों निचे नही आती
सूरज की थाली से
कुछ भी तो नही दिखिता
मन छुप २ जाता है
है कोहरा घना इतना
कपडों के खान जाती
ये ठिठुरन इतनी है
वहआग लगा जाती
सरसों अब फूली है
देखो तो जरा इस को
किन बाँहों में झूली है
ये बर्फ जमीन ऐसी
वो मन को जमाएगी
अपना सा बनाएगी
जब धुंध भुत छाए
मन के हर कोने में
टीबी एक किरणआये
मक्के की दो रोटी
और साथ में हो मठ्ठा
और थोडी डली गुड की
क्यों धोप नही बनते
सर्दी की दुपहरी में
सूरज से नही लगते
रिश्ते न जम जाएँ
दिल को कुछ जलने दो
वे गर्माहट पायें
रोके नही रूकती हैं
ये सर्द हवाएं हैं
ये आग सी लगती हैं
मीठी सी बातें थीं
गन्ने का रस जैसी
वे ऐसी बातें थीं
लम्बी सी रातें हैं
ये कहाँ खत्म होतीं
ये बातें ऐसी हैं
Saturday, January 9, 2010
साहित्य का इतिहास
हिंदी साहित्य को
शुक्लाचाचा ने
चार हिस्सों में बाँट दिया
बहुत मोटा पोथा बांध दिया
पहले पन्ने से शुरू करें तो
वर्षों लग जाएँ
आखरी पन्ने पर
पता नही कब पहुंच पायें
इस लिए साहित्य का इतिहास
बीच में से खोल लिया
बीचमें से मध्य युग यानि रीति काल
खुल गया
वह वह क्या बात थी
इस में तो नायिकाओं के
नख शिख वर्णन की भरमार थी
नायिका की नाक तोते जैसी थी
आँखे तो कईपशु पक्षियों से मिलती थी
उन कई आंके हिरनी,खंजन पक्षी
ओर मछलियों जैसी थी
कुछ अंग नारंगी ओर नीबू जैसे थे
तो कुछ अंग केले के खंबे जैसे थे
चल हथनी जैसी थी
दांत तो चलो गनीमत रही फूल जैसे थे
नही तो कहीं जंगल औरकहीं जंगल के जावर
नायिका यानि स्त्री क्या थी
पूरा चिड़िया घर थी
यह साहित्य के इतिहास का
मध्य युग था
परन्तु उत्तर आधुनिक युग से तो
फिर भी अच्छा था
इस में तो नारी पर अत्याचारों कई
लम्बी सूची है
नारी ही नारी कई दुश्मन पूरी है
वह वस्त्र हीना है ,नशेडी है विज्ञापन कई वस्तु है
वह तो चलो साहित्य का मध्य युग था
पर यहाँ तो आधुनिकता पूरी है
शुक्लाचाचा ने
चार हिस्सों में बाँट दिया
बहुत मोटा पोथा बांध दिया
पहले पन्ने से शुरू करें तो
वर्षों लग जाएँ
आखरी पन्ने पर
पता नही कब पहुंच पायें
इस लिए साहित्य का इतिहास
बीच में से खोल लिया
बीचमें से मध्य युग यानि रीति काल
खुल गया
वह वह क्या बात थी
इस में तो नायिकाओं के
नख शिख वर्णन की भरमार थी
नायिका की नाक तोते जैसी थी
आँखे तो कईपशु पक्षियों से मिलती थी
उन कई आंके हिरनी,खंजन पक्षी
ओर मछलियों जैसी थी
कुछ अंग नारंगी ओर नीबू जैसे थे
तो कुछ अंग केले के खंबे जैसे थे
चल हथनी जैसी थी
दांत तो चलो गनीमत रही फूल जैसे थे
नही तो कहीं जंगल औरकहीं जंगल के जावर
नायिका यानि स्त्री क्या थी
पूरा चिड़िया घर थी
यह साहित्य के इतिहास का
मध्य युग था
परन्तु उत्तर आधुनिक युग से तो
फिर भी अच्छा था
इस में तो नारी पर अत्याचारों कई
लम्बी सूची है
नारी ही नारी कई दुश्मन पूरी है
वह वस्त्र हीना है ,नशेडी है विज्ञापन कई वस्तु है
वह तो चलो साहित्य का मध्य युग था
पर यहाँ तो आधुनिकता पूरी है
Sunday, January 3, 2010
मुक्तक
जो जनता को नाच नचाते उन को गुंडे नचा रहे
ताल एक हो जाये सब की तालीवे सब बजा रहे
सब की मिली भगत होती है नेता अफसर गुंडों की
नये साल में नाच नाच कर ऐसा ही वे बता रहे
नाच नचाना और नाचना ये शासन का सूत्र यहाँ
मंहगाई बस बढती जायेबस ये शासन का सूत्र यहाँ
चीनी अभी और भी मंहगी होगी नेता कहते हैं
नेता गीरी और मंहगाई का है अच्छा सूत्र यहाँ
आतंकी तो भगने ही थे और जेल में क्या करते
क्या बिरयानी खाते खाते वे बेचारे न थकते
अब तक ही क्या किया आप ने आगे भी तुम क्या करते
छूटना तो था ही था उन और प्रतीक्षा क्या करते
क्या साधारण कानूनों से आतंकी रुक सकते हैं
देश द्रोह जैसे मद्दे को को क्या हम खास समझते हैं
इसी लिए ऐसी घटनाएँ खूब सहज घट जाती हैं
क्यों की जल्दी फाँसीअफजल कोभी न दे सकते हैं
ताल एक हो जाये सब की तालीवे सब बजा रहे
सब की मिली भगत होती है नेता अफसर गुंडों की
नये साल में नाच नाच कर ऐसा ही वे बता रहे
नाच नचाना और नाचना ये शासन का सूत्र यहाँ
मंहगाई बस बढती जायेबस ये शासन का सूत्र यहाँ
चीनी अभी और भी मंहगी होगी नेता कहते हैं
नेता गीरी और मंहगाई का है अच्छा सूत्र यहाँ
आतंकी तो भगने ही थे और जेल में क्या करते
क्या बिरयानी खाते खाते वे बेचारे न थकते
अब तक ही क्या किया आप ने आगे भी तुम क्या करते
छूटना तो था ही था उन और प्रतीक्षा क्या करते
क्या साधारण कानूनों से आतंकी रुक सकते हैं
देश द्रोह जैसे मद्दे को को क्या हम खास समझते हैं
इसी लिए ऐसी घटनाएँ खूब सहज घट जाती हैं
क्यों की जल्दी फाँसीअफजल कोभी न दे सकते हैं
Tuesday, December 29, 2009
Thursday, December 17, 2009
bhrashtachar per Muktak
सभी ओर चर्चे हैं धरती गर्म बहुत हो जाएगी
बर्फ पिघल जाएगी सारी बस पानी हो जाएगी
उस के बाद बहुत सा पानी धरती पर भर जायेगा
पर सोचो ये ऐसीनोबत किस के कारण आएगी
कोन सुन रहा है धरती की गर्म आह निकली कितनी
सर्पों की जिह्वा की जैसी ज्वालायें निकली कितनी
फिर भी तो पीड़ादायी हम उत्सर्जन कर रहे यहाँ
किस के मुंह से बीएस कहने की बात अभी निकली कितनी
जिन पर एक निवाला ही था उस को ही छिना तुमने
तन ढकने को एक लंगोटी वह भी छिनी है तुमने
देश बचा है जैसे तैसे उस को भी गिरवी रख दो
सारा कुछ तो बेच खा गये छोड़ा ही क्या है तुमने
इसी तरह जनता का पैसा कोड़ा वोडा खायेंगे
कानूनों का लिए सहारा खूब ही उसे पचाएंगे
क्या कर लोगे उन का तो कुछ बल नही बांका होगा
अध् नंगे भूखे प्यासे वे बेचारे मर जायेंगे
कुछ महीने भिच्ली नही जो सडक बनाईहै तुमने
रोड़ी जो ल्प्ख दी कागज में कहाँ लगे है तुमने
इसी तरह पुल और भवन भी तुमने खूब बनाये हैं
खा कर सारा माल देश का मौज उड़ाई है तुमने
देश हुआ आजाद तो फिर आजाद उसे रहने देते
राजनीती के हाथों लोगों को गिरवी तो मत रखते
कहीं तेलगी कहीं ये कोड़ा मुंह की रोटी छीन रहे
राज निति यदि एव होती फिर ये एसा क्यों करते
सेवा सेवा की रट ने हिसेवा को बदनाम किया
खाली घर जिन के होते थे उन को माला माल किया
ये है सेवा ये उस का फल कैसी ये बेशर्मी है
शर्म करो सेवा कहने से देशद्रोह का कम किया
डॉ. वेद व्यथित
फरीदाबाद
sahitaya ka itihaas
हिंदी साहित्य को
शुक्लाचाचा ने
चार हिस्सों में बाँट दिया
बहुत मोटा पोथा बांध दिया
पहले पन्ने से शुरू करें तो
वर्षों लग जाएँ
आखरी पन्ने पर
पता नही कब पहुंच पायें
इस लिए साहित्य का इतिहास
बिच में से खोल लिया
बीचमें से मध्य युग यानि रीती काल
खुल गया
वह वह क्या बात थी
इस में तो नायिकाओं के
नख शिख वर्णन की भरमार थी
नायिका की नक् तोते जैसी थी
आँखे तो कईपशु पक्षियों से मिलती थी
उन कई आंके हिरनी,खंजन पक्षी
ओर मछलियों जैसी थी
कुछ अंग नारंगी ओर नीबू जैसे थे
तो कुछ अंग केके के खंबे जैसे थे
चल हठी जैसी थी
दांत तो चलो गनीमत रही फूल जैसे थे
नही तो कहीं जंगल औरकहीं जंगल के जावर
नायिका यानि स्त्री क्या थी
पूरा चिड़िया घर थी
यह साहित्य के इतिहास का
मध्य युग था
परन्तु उत्तर आधुनिक युग से तो
फिर भी अच्छा था
इस में तो नारी पर अत्याचारों कई
लम्बी सूची है
नारी ही नारी कई दुश्मन पूरी है
वह वस्त्र हीना है ,नशेडी है विज्ञापन कई वस्तु है
वह तो चलो साहित्य का मध्य युग था
पर यहाँ तो आधुनिकता पूरी है
डॉ. वेद व्यथित
फरीदाबाद
Saturday, November 14, 2009

पुरुष यानि व्यक्ति
जो सो सकता है पैर फैला कर
सारी चिंताएँ हवाले कर
पत्नी यानि स्त्री के
और वह यानि स्त्री
जो रहती है निरंतर जागरूक
और और देखती रहतीहै
आगम कि कठोर
नजदीक आती परछाईं को
और सुनती रहती है
उस कि कर्कश पदचापों कि आहट
क्यों कि सोती नही है वह रात रात भर
कभी उडाती रहती है सर्दी में
बच्चों को अपनी ह्रदय अग्नि
और कभी चुप करती रहती है
बुखार में करते बच्चे को
या बदलती रहती है
छोटे बच्चे के गीले कपडे
और स्वयम पडी रहती है
उस केद्वारा गीले किये पर
या गलती है हिम शिला सी
रोते हुए बच्चे को ममत्व कापय दे कर
और कभी कभी देती रहती है
नींद में बडबदाते पीटीआई यानि पुरुष के
प्रश्नों का उत्तर
मैं क्यों कि उसे तो जागना ही निरंतर है
जो सो सकता है पैर फैला कर
सारी चिंताएँ हवाले कर
पत्नी यानि स्त्री के
और वह यानि स्त्री
जो रहती है निरंतर जागरूक
और और देखती रहतीहै
आगम कि कठोर
नजदीक आती परछाईं को
और सुनती रहती है
उस कि कर्कश पदचापों कि आहट
क्यों कि सोती नही है वह रात रात भर
कभी उडाती रहती है सर्दी में
बच्चों को अपनी ह्रदय अग्नि
और कभी चुप करती रहती है
बुखार में करते बच्चे को
या बदलती रहती है
छोटे बच्चे के गीले कपडे
और स्वयम पडी रहती है
उस केद्वारा गीले किये पर
या गलती है हिम शिला सी
रोते हुए बच्चे को ममत्व कापय दे कर
और कभी कभी देती रहती है
नींद में बडबदाते पीटीआई यानि पुरुष के
प्रश्नों का उत्तर
मैं क्यों कि उसे तो जागना ही निरंतर है
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