Friday, June 10, 2011

मेरे घाव यूँ न छेड़ो

मुझे नींद आ रही है मेरे घाव यूँ न छेड़ो
सपने न टूट जाएँ मेरी नींद यूँ न छेड़ो |
बरसात कब हुई है मुरझा रहीं हैं कलियाँ
गाओ न गीत भीगा मल्हार यूँ न छेड़ो |
दिल में कसक हुई है कुछ टीस सी हुई है
इस टीस को न पूछो इस दिल को यूँ न छेड़ो |
भीगे हैं पत्ते कलियाँ मन भीग २ जाता
आँखों में जो हैं सपने वे स्वप्न यूँ न छेड़ो |
मेरे मन की बात छोडो क्या बोलना है बोलो
मेरे मन में क्या बसा है मेरे मन को यूँ न छेड़ो |
जो भी कहा है तुम से तुम ने कभी न माना
मुझ को यही है शिकवा वो बात यूँ न छेड़ो |
जब २ भी धूप आई साया मिला न कोई
अब धूप भा गई है ये धूप यूँ न छेड़ो ||

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मत छेड़ो, तरंग तड़पाती है,
क्या करें, मन में रह जाती है,

Satish Saxena said...

क्या क्या याद दिला दिया आपने आज ....
शुभकामनायें आपको !