Saturday, February 25, 2012

नव गीतिका

इस ब्लॉग पर मुझे मित्रों ने बहुत ही हार्दिक स्नेह प्रदान किया है विशेष कर भाई सवाई सिंह जी व अन्य सभी सहृदय मित्रों ने जिन्होंने मुझे अपनी टिप्पणियों के माध्यम से स्नेह दिया है
इसी लिए आप से सम्वाद स्थापित करने का साहस कर रहा हूँ मैंने इस से पूर्व एक नव गीतिका प्रस्तुत की थी
१ वह और जो अब प्रस्तुत कर रहा हूँ ये रचनाये गजल नही है है
२ क्यों कि गजल के लिए बाहर का होना जरूरी है जैसे दोहा चंद का विधान है यदि दोहा रचना में यह विधान पूर्ण है तो वह दोहा है अन्ता नही है इसी प्रकार गजल है यदि उस में भर है तो वह गजल है अन्ता नही है |
३और यदि आप आप को उर्दू लिपि की व अरबी व फारसी की भर पता हैं तो भी वे देवनागरी के वर्ण कर्म के अनुसार नही हो सकतीं क्यों कि दोनो की गणना में अंतर है
४हिन्दी में गीति परम्परा बहुत पुरानी है
इसे ही विभिन्न छंदों के माध्यम से आगे बढ़ाया जा रहा है
यह नव गीतिका भी इसी सन्दर्भ में हैं
नजर खंजर चुभती है नजर घायल बहुत करती
नजर का तीर ऐसा है जो दिल के पार जाता है |
नजर की हद जितनी है वहाँ तक भेद जाती है
नजर से क्या बचा है आज तक सब हार जाता है |
नजर हल्की नही समझो नजर कातिल बहुत होती
नजर के सामने तो हर जहर भी हार जाता है |
नजर बिन कब नजारे हैं नजर के बिन कहाँ दुनिया
अँधेरा घुप्प कितना हो वह भी हार जाता है |
नजर जब मिल नही सकती नजर फिर क्यों मिलते हैं
मगर नजरें चुरा कर भी कहीं दिल हार जाता है ||

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्द और छंद, अर्थ और भाव स्पष्ट रूप से प्रेषित करने में सक्षम...