मन की बात बतायं क्या
तुम को मीत बनाएं क्या
मन के घाव हरे कितने
तुम को इन्हें दिखाएँ क्या
मजबूरी मेरी अपनी
तुम को उसे बताएं क्या
फटा चीथड़ा और फटा
अब उस को सिलावायें क्या
घर में कितने दाने हैं
तुम को इन्हें बताएं क्या
दिल मेरा किस उलझन में
तुम को यह बताएं क्या
कितनी बार बताया जो
फिर से वही बताएं क्या
दिल में जो भी है मेरे
तुम को उसे जताएं क्या
जो अपनापन भूल गये
अपना उन्हें बताएं क्या ??
5 comments:
जो अपनापन भूल गये
अपना उन्हें बताएं क्या ??
सही कह रहे है…………सुन्दर अभिव्यक्ति।
@फटा चीथड़ा और फटा
अब उस को सिलावायें क्या।
अब तो बदलना ही पड़ेगा जी,
चीथड़े-चीथड़े हो गए।
राम राम
"जो अपनापन भूल गये
अपना उन्हें बताएं क्या "
बड़ी प्यारी लगी यह रचना , सरलता के साथ अपने मन के भावों को यूँ व्यक्त करना आसान नहीं !
शुभकामनायें डॉ वेद व्यथित !!
ved saab ,
pranam !
behad hi yaare sawal rakhti hai ye sunder rachna . sadhuwad .
saadar
"मजबूरी मेरी अपनी/ तुम को उसे बताएं क्या "-सुन्दर भावाव्यक्ति. रचना अच्छी बन पड़ी है. बधाई स्वीकारें. अवनीश सिंह चौहान..
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