Wednesday, September 2, 2009

दुनिया तो सागर है इस मेंलहर उठा कराती है

जीवन नौकाखा हिचकोले ही आगे बढाती है

अब ये तो है तुम्हे देखना संतुलन न बिगडे

तट से टकरा कर लहरें तो स्वम मारा कराती हैं

मत करना विश्वाश सहज ही धोखा मिल सकता है

बहुत सगे अपनों से अक्सर ही धोखा मिलता है

यह भी मुझ को पता की अपने घाट लगते अक्सर

फ़िर भी मन मेरा उन सब का आलिंगन करता है

बहुत बड़ी बिमारी मुझ को नहीं दवा है जिस की

में विश्वास सहज कर लेता यह बिमारी मन की

बार बार विशवास घाट भी कहाँ सिखाता मुझ को

कोई इस की दवा बता दे क्या बिमारी मन की

माना मैंनेना समझी की मुझी बुरी आदत है

सब को हैं ये पता की मेरी यह भी एक आदत है

इसी बात का खूब फायदा उठा रहे वे मुझ से

चलो भला हो जाए उन का मेरी तो आदत है

क्या करता पहचान नहीथी अपने और पराये में

भेद नहीं कर पाया कोई अपने और पराये में

मुझे सभी अपने लगते हैं शायद मेरी भूल यही

पर मुश्किल है भेद करूं में अपने और पराये में

Tuesday, September 1, 2009

मुक्तक

बड़ी २ बातें क्यूँ करते रहते लोग यहाँ पर
करते कुछ है कहते कुछ है ऐसे लोग यहाँ पर
वे ही अगुआ वे ही नेता वे ही बड़े लोग हैं
वे ही भाषण देते सब को ऐसे लोग यहाँ पर

नेताओं के तो जबान पर ताले लगे रहेंगे
पहन के माला मंच पे आकर केवल भाषण देंगे
पर जब आएगी बारी वे मेरे हक़ में बोलें
फ़िर वे अपने हाथ पाँव सब ऊपर को कर देंगे

जीवन की सचाई मुझ से छुट नही पाई है
इसी लिए पीडा की बदली हर दिन घिर आई है
बेशक भीगा हूँ पर ख़ुद को इस से अलग किया है
जीवन की सच्चाई शायद यही समझ आई है