Monday, February 24, 2014

प्यास
 
प्यास बहुत बलवती प्यास ने कितने ही सागर सोखे
प्यास  नही बुझ सकी प्यास बुझने के हैं सारे धोखे
प्यास यदि बुझ गई तो समझो आग भी खुद बुझ जाएगी
प्यास को समझो आग ,आग ही रही प्यास को है रोके ||
 
प्यास बुझी  तो सब कुछ अपने आप यहाँ बुझ आयेगा
यहाँ चमकती दुनिया में  केवल अँधियारा छाएगा
इसीलिए मैंने अपनी इस प्यास को बुझने से रोका 
प्यास बुझी तो  दिल भी अपनी धडकन रोक न आयेगा 
 
लगता है  प्यासों  को पानी पिला पिला कर क्या होगा 
पानी पीने से प्यासे की  प्यास का तो कुछ न होगा
प्यास कहाँ बुझ पाती  है बेशक  सारा सागर पी लो
सागर के पानी से प्यासी प्यास का तो  कुछ न होगा  
 
कितनी प्यास बुझा लोगे तुम बेशक कितने घट पी लो 
कितनी प्यास और उभरेगी बेशक इसे और जी लो 
जब तक प्यास को बिन पानी के  प्यासा ही न मारोगे
तब तक प्यास कहाँ बुझ सकती बेशक तुम कुछ भी पी लो 
आभार सहित
वेद व्यथित
अनुकम्पा -१५७७ सेक्टर ३ 
फरीदाबाद १२१००४ 

Friday, February 21, 2014

अँधेरे ही अँधेरे हैं उजाले छुप गये जा कर 
चलो हम रौशनी करने उन्हेंफिर ढूंढ लाते हैं |
तपिश जो बढ़ गई है आसमां से आग बरसी है 
चलो उस आग को हम खून दे कर बुझा आते हैं |
सुना है हर तरह वे अपनी बातें ही सही कहते 
चलो हम आइना उन का उन्ही को दिखा आते हैं |
नही वे मानते कब हैं कभी अपने किये को ही
उन्ही के कारनामों को उन्हें ही दिखा आते हैं |
बहुत आसन कब है खुद की गलती मान भर लेना
चलो उन की कही बातें उन्ही को बता आते हैं |
फुंके अपना ही घर बेशक उजाले तो जरूरी हैं
चलो हम दीया लेकर फूंक अपना घर ही आते हैं |

डॉ. वेद व्यथित
०९८६८८४२६८८

Saturday, February 8, 2014

आदरणीय जनों व मित्रों के सद्भाव के कारण यहाँ गुलाब पर कुछ और पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ सम्भवत: इन्हे भी ऐसा ही स्नेह व प्यार मिलेगा।  
ये रचनाएं मैंने लगभग बीस  वर्ष पूर्व लिखीं  थीं और यूं ही रख छोड़ीं थीं पता नही कैसे ये पन्ने फिर खुल गये हैं।  

कोमलता से बांटता अपनी गंध गुलाब 
भंवरों को भर अंजुरी उस ने दिया प्राग 
सब कुछ तो उस ने दिया अपना मन और देह 
फिर वह क्यों तोडा  झटक यह था कैसा नेह। 

कोमलता उस की हुई उस को ही अभिशाप
काँटों से बचता हुआ पहुंचा उस के पास
 बेरहमी से तोड़ कर लिया हाथ में भींच 
शिकवा अब किस से करे कैदी बना गुलाब। 

जिस दिन से खिलने लगा छूने लग गई धूप 
मेरा खिलना लाजमी धुप भी थी मजबूर 
कुछ दिन  तो उस ने सहा उस का मीठा ताप  
पर कितने दिन झेलता धुप की तीखी आग।  

मन की बगिया में खिला एक गुलाबी फूल 
यह क्या सचमुच फूल था या थी केवल भूल 
भूल हुई तो क्या हुआ उपजा तो है फूल 
कभी कभी यह भूल भी बन जाती है फूल। 

ऐसा क्या मैंने कहा मुरझा गया गुलाब 
बिन समझे ही रूठ कर हुआ वह बेहाल 
फिर भी इस के हाल पर मुझ को रहा मलाल 
मैं तो फिर भी धुप था वह था निपट गुलाब।
डॉ वेद व्यथित 
०९८६८८४२६८८ 
बाद में अभी गुलाब से आप का संवाद और करवाऊंगा