काजल की रेख कहीं
अंदर तक पैठ गई
तमस की आकृतियाँ
अंतर की सुरत हुईं
मन को झकझोर दिया
गहरी सी सांसों ने ||
दूर कहाँ रह पाया
आकर्षण विद्युत सा
अंग अंग संग रहा
तमस बहु रंग हुआ
गहरे तक डूब गया
अपनी ही साँसों में ||
चाहा तो दूर रहूँ
शक्त नही मन था
कोमल थे तार बहुत
टूटन का डर था
सोचा संगीत बजे
उच्छल इन साँसों में ||
जो भी जिया था
उस क्षण का सच था
किस ने सोचा ये
आगे का सच क्या
फिर भी वो शेष रहा
जीवन की सांसों में ||
7 comments:
sundar prastuti
bahut sundar kavita
बहुत बेहतरीन....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
वर्तमान का सच ही जागता है..
वाह...
bahut khoob.
जो बीत जाता है वह शेष कहाँ रहता है, शेष रहती हैं तो सिर्फ उसकी स्मृतियाँ
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