अब धूप नही आती
सूरज को उलहना है
उस को वः सताती है
क्या वो अनजानी है
ये हो ही नही सकता
सर्दी तो रानी है
जब हाथ ठिठुरते हैं
टीबी मन के अलावों में
दिल भी तो जलते हैं
ये आग तो धीमी है
दिल और जलाओ तो
ये धूप ही सीलीहै
वो महल अटारी से
क्यों निचे नही आती
सूरज की थाली से
कुछ भी तो नही दिखिता
मन छुप २ जाता है
है कोहरा घना इतना
कपडों के खान जाती
ये ठिठुरन इतनी है
वहआग लगा जाती
सरसों अब फूली है
देखो तो जरा इस को
किन बाँहों में झूली है
ये बर्फ जमीन ऐसी
वो मन को जमाएगी
अपना सा बनाएगी
जब धुंध भुत छाए
मन के हर कोने में
टीबी एक किरणआये
मक्के की दो रोटी
और साथ में हो मठ्ठा
और थोडी डली गुड की
क्यों धोप नही बनते
सर्दी की दुपहरी में
सूरज से नही लगते
रिश्ते न जम जाएँ
दिल को कुछ जलने दो
वे गर्माहट पायें
रोके नही रूकती हैं
ये सर्द हवाएं हैं
ये आग सी लगती हैं
मीठी सी बातें थीं
गन्ने का रस जैसी
वे ऐसी बातें थीं
लम्बी सी रातें हैं
ये कहाँ खत्म होतीं
ये बातें ऐसी हैं
No comments:
Post a Comment