Wednesday, January 20, 2010

मुक्तक

मुक्तक

जितनी सर्द हवाएं होंगी उतनी आग जलेगी
मन के हर कोने कोई चिंगारी सुलगेगी
यदि शांत हो जाएगी यह आग लगी जो दिल में
फिर तो सर्द हवाएं दिल को अपना सा कर देंगी

सर्द हवाओं को भी मैंने मन से कब कोसा है
यही समय तो मन -अलाव को सुलगना होता है
यदि यह सुलगेगा न तो आग जलेगी कैसे
बिना जलाये आग कभी दिल भी क्या दिल होता है

सर्द हवाएं अंदर तक नजरों सी जा चुभती हैं
मन के अंगारों को पल में बुझा रख करतीं हैं
फिर भी दबे हुए अंगारे धधक २ जाते हैं
मन कि छोटी सी चिंगारी बी ज्वाला बनती है

दिल को इतना जला दिया कि आहें गर्म हो गईं
दिल को कितना और जलाता अस्थि गर्म हो गई
फिर भी सर्द हवाएं मन में चुभती ही जाती हैं
सर्द हवाओं से तो तन कि सांसें गर्म हो गईं

इतनी सर्दी पड़ी कीदिल की धडकन सर्द हो गई
इतने क्द्क्द दन्त क्द्क्दाये कुल्फी गर्म हो गई
गर्म गर्म चाय की चुस्की कहाँ नसीब हुईं हैं
चाय ज्यों ही कूप में डाली चाय बर्फ हो गई
dr.vdevyathit@gmail.com

4 comments:

अजय कुमार said...

वाह ,सर्दी का बढ़िया चित्रण

कविता रावत said...

जितनी सर्द हवाएं होंगी उतनी आग जलेगी
मन के हर कोने कोई चिंगारी सुलगेगी
Achhi Rachna hai. Kabhi kahane bhi blog par prastut kijiyega.....
Nav varsh ki shubhkamnayon sahit...........

Vinashaay sharma said...

सहमत हूँ,अजय जी से ।

kunwarji's said...

बिना जलाये आग कभी दिल भी क्या दिल होता है
.

.

सर्द हवाएं अंदर तक नजरों सी जा चुभती हैं



कमाल कि पंक्तियाँ लगी जी!

बहुत अच्छी भावनाए बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत कि गयी है.....

कुंवर जी,

www.hardeeprana.blogspot.com