Sunday, April 22, 2012

यह रचना गजल नही है
 क्यों कि जैसे हिंदी में दोहा छंद के लिए एक निश्चित वर्ण चाहिए 
उसी प्रकार गजल के लिए भी बहर मुकर्र (निश्चित} हैं 
जैसे छंद भंग होने से दोहा नही कहा जा सकता वैसे ही हम बहर के बिना गजल किसी भी रचना को कैसे कह सकते हैं 
बहर के साथ ही 
देवनागरी में वर्ण की गिनती के नियम भी अलग प्रकार से हैं जो उर्दू में लागू नही होते 
इस लिए इस प्रकार की रचनाये नव गीतिका हैं 
क्यों कि गीत की लम्बी परम्परा यहाँ उपस्थित है गीतिका हरी गीतिका और नव गीतिका आदि जो गीत की परम्परा को आगे बढ़ती है कुछ ऐसी ही नव गीतिकाएं यहाँ प्रस्तुत करने का साहस कर रहा हूँ 
नव गीतिकाएं 
झूठ के आवरण सब बिखरते रहे 
साँच की आंच से वे पिघलते रहे  
खूब ऊँचे बनाये थे चाहे महल 
नींव के बिन महल वे बिखरते रहे 
हाथ आता कहाँ चाँद उन को  यहाँ 
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे 
ओस की बूँद ज्यों २ गिरी फूल पर 
फूल खिलते रहे और महकते रहे 
जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां 
नैन और नक्श उन के निखरते रहे 
देख लीं खूब दुनिया की रंगीनियाँ 
रात ढलती रही दीप बुझते रहे 
हम जहाँ से चले लौट आये वहीं 
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे ||

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

लौट वहीं सबको आना है।