Monday, February 20, 2012

नव गीतिका

नव गीतिका


दिल किरच किरच टूटे

दिल किरच किरच टूटे और टूटता ही जाये
बाक़ी बचे न कुछ भी फिर भी धडकता जाये
कहने को साँस चलती रहती है खुद ब खुद ही
ये ही नही है काफी बस साँस चलती जाये
मौसम की बात छोडो अब खेत ही कहाँ हैं
खेतों में खूब जंगल लोहे का बनता जाये
तड़पन को कौन पूछे कितना भी दिल तडप ले
जब तक चले हैं सांसे बेशक तडपता जाये
ये भी हर भरा था जो ठूंठ सा खड़ा है
किस को पडी है बेशक मिट्टी में मिलता जाये
पाया नही जो चाहा अनचाहा खूब पाया
दुनिया में कब हुआ है जो चाहें मिलता जाये
अब बहुत हो चुका है सूरज का तमतमाना
अब तो गरज के बदरा रिमझिम बरसता जाये |




3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

काश आपकी मनोकामना पूरी हो जाये...

vidya said...

पाया नहीं जो चाहा..अनचाहा खूब पाया...
बहुत सुन्दर रचना सर ..
सादर.

Amrita Tanmay said...

बहुत अच्छा लिखते है आप..आपको पढ़ना अच्छा लगा..