Sunday, January 22, 2012

मेरी दो विपरीत रचनाएँ






शीत की भयंकरता

इस तरह हाड तोड़ सर्दी ने
कर दिए थे सारे उत्साह ठंडे
जमने लगे थे सम्बन्ध
परन्तु फिर भी श्न्वास की ऊष्मा
उर्जावान बनाये हुए थी उन्हें
नही तो शीत ने कहाँ कसर छोड़ी थी जमा देने में
अब तो बस एक ही प्रार्थना है
उर्जावान व गतिवान बने रहें यह श्न्वास
जिस से बचा रहे यह अस्तित्व
इस भयंकर शीत में ||


आग

जब तक आग रहेगी तुम्हारे अंदर
तब तक ही जलते रहोगे तुम
या यह आग तब तक जलाएगी तुहें
जब तक शेष रहेगी तुम्हारे भीतर
यदि यह आग ही बुझ गई तो
पूरी तरह समाप्त हो जायेगा
तुम्हारा अस्तित्व
आग के न रहने पर
इस लिए सहेजे रहो
अपनी अग्नि को किसी तरह निरंतर
शनै:शनै: जलाने के लिए ||




3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

दोनों सी विपरीत पर अन्तर्निहित एकरूपता है दोनों में।

आपका अख्तर खान अकेला said...

srdi ke mahol ki prasngik rchnaa ke liyen badhaai .akhtar khan akela kota rajasthan

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दोनों रचनाएँ गहन बात कह रही हैं ..