बसंत की दो कविताएँ
1
वसंत के आने से
चमक लौट आई है
तुम्हारी आँखों में
वे अधिक चंचल सी
हो गईं लगतीं हैं
उन में मादकता
टपक २ पड़ रही है
ओसे ही
चौकन्ने हुए लग रहे हैं
तुम्हारे कान
कोई भी आह्ट चौंका
देती है उन्हें
ऋतू आसक्त मृगी की भाँति
कोई मधुर स्वर स्वत:
अनुगुंजित हो रहा है उन में
ऐसे ही बिखर रही है
तुम्हारे पास वह गंध
जो वसंत आने पर ही
प्रस्फुटित हिती है
नव पल्लवों से
नव कलिकाओं से
या नव वनस्पतियों के अंग २ से
और जो बसंती बयार बार २
छो रही है तुम को
जिसे तुम्हारे स्पर्श ने
कुछ और अधिक कमनीयता
प्रदान कर दी है
और मन तो जैसे
बौरा ही गया है
बसंत के आने से
आखिर उस ने ही तो
कर दिया है सब बसंती
नही तो इस पतझरे काष्ठ में
कहाँ था यह सब
जिसे तुम बसंती कह रही हो
जिसे तुम मधुमय कह रही हो ||
2
मैं चाहता था
खूब सारा पिला रंग घोलूँ
और तुम्हे सराबोर कर दूं उस में
तुम्हारा अंग २ पवित्र सा हो जाये
तुम पीत वसना हो कर
वसन्ति सुगंध से भर जाओ
परन्तु पसंद नही था तुम्हें
यह रंग बिलकुल भी
तुम तो चाहतीं थीं
गुलाबी रंग में सराबोर होना
परन्तु मेरे लिए
विरोध भी नही क्या था तुमने
और स्वीकार भी नही था तुम्हें वह रंग
क्यों कि हम दोनों ही
अभी अनजान थे
उस रंग से जिस में सराबोर होना था
हम दोनों को
आओ कोशिश करें
उस रंग को घोलने की ||
डॉ. वेद व्यथित
०९८६८८४२६८८