Tuesday, December 29, 2009
Thursday, December 17, 2009
bhrashtachar per Muktak
sahitaya ka itihaas
Saturday, November 14, 2009

जो सो सकता है पैर फैला कर
सारी चिंताएँ हवाले कर
पत्नी यानि स्त्री के
और वह यानि स्त्री
जो रहती है निरंतर जागरूक
और और देखती रहतीहै
आगम कि कठोर
नजदीक आती परछाईं को
और सुनती रहती है
उस कि कर्कश पदचापों कि आहट
क्यों कि सोती नही है वह रात रात भर
कभी उडाती रहती है सर्दी में
बच्चों को अपनी ह्रदय अग्नि
और कभी चुप करती रहती है
बुखार में करते बच्चे को
या बदलती रहती है
छोटे बच्चे के गीले कपडे
और स्वयम पडी रहती है
उस केद्वारा गीले किये पर
या गलती है हिम शिला सी
रोते हुए बच्चे को ममत्व कापय दे कर
और कभी कभी देती रहती है
नींद में बडबदाते पीटीआई यानि पुरुष के
प्रश्नों का उत्तर
मैं क्यों कि उसे तो जागना ही निरंतर है
मेरे अहम

उठाये गये तुम्हारे प्रश्न
निश्चित ही सार्थक होंगे
परन्तु बचा ही कहाँ
मेरा अहम
जब तुम ने
निउत्त्र कर दिया मुझे
अपनी स्नेह सिक्त दृष्टि से
निश्चय ही तुमेह चुभे होंगे
मेरे कर्कश , कटुऔर कठोर शब्द
परन्तु रससिक्त कर दिया था तुमने मुझे
अपनी अमृत सी मधुर वाणी से
निश्चित ही मेरी नासिका
संकुचित हुई होगी
परन्तु मलय सिक्त कर दिया था तुमने
अपनी शीतल सुवास से
निश्चय ही मेरा रोम रोम
शूल सा रहा होगा तुम्हारे लिए
परन्तु रोमंचित हो गयाथा मैं
तुम्हारे सुकोमल स्पर्श से ई
तुम्हारा मौन

तुम्हारा मौन
कितना कोलाहल भरा था
लगा था कहींबादलों कि गर्जन के साथ
बिजली न तडक उठे
तुम्हारे मौन का गर्जन
शायद समुद्र के रौरव से भी

अधिक भयंकर रहा होगा
और उस में निरंतर
उठी होंगी उत्ताल तरंगें
तुम्हारे मौन में
उठते ही रहे होंगे
भयंकर भूकम्प
जिन से हिल गया होगा
पृथ्वी से भी बडा तुम्हारा ह्रदय
इसी लिए मैं कहता हूँ
कि तुम अपना मौन तोड़ दो
और बह जाने दो
अपने प्रेम कि अजस्र धरा
भागीरथी सी शीतल
दुग्ध सी धवल
ज्योत्स्ना सी स्निग्ध
और अमृत सी अनुपम
Tuesday, November 10, 2009
सागर
पहले ही निकल लिए गयें हैं उस में से
परन्तु तुम्हारा मन तो अब भी
अथाह भंडार है -
प्यार का ,ममता का ,स्नेह का,
सम्बल का प्रेरणा का
और न जाने कौन कौन से अमूल्य रत्नों का I
बेशक
अपार करुना ,व्यथा, पीडा ,
वेदना और न जाने क्या क्या
अब भी समाहित होता जा रहा है तुम्हारे मन में
परन्तु फिर भी उथली नही है
जिस कि थाह सागर सी
सोचता हूँ कितना घर है तुम्हारा मन
सागर से तो अनेक गुना गहरा और सामर्थ्य वान भी
जिस में समाप्त नही होता है -
उर्वशी का लावण्य,
कामधेनु कि समृधि
पीडा का ममत्व ,
लक्ष्मी का विलास
और तृप्ति का अमृत
Wednesday, September 2, 2009
दुनिया तो सागर है इस मेंलहर उठा कराती है
जीवन नौकाखा हिचकोले ही आगे बढाती है
अब ये तो है तुम्हे देखना संतुलन न बिगडे
तट से टकरा कर लहरें तो स्वम मारा कराती हैं
मत करना विश्वाश सहज ही धोखा मिल सकता है
बहुत सगे अपनों से अक्सर ही धोखा मिलता है
यह भी मुझ को पता की अपने घाट लगते अक्सर
फ़िर भी मन मेरा उन सब का आलिंगन करता है
बहुत बड़ी बिमारी मुझ को नहीं दवा है जिस की
में विश्वास सहज कर लेता यह बिमारी मन की
बार बार विशवास घाट भी कहाँ सिखाता मुझ को
कोई इस की दवा बता दे क्या बिमारी मन की
माना मैंनेना समझी की मुझी बुरी आदत है
सब को हैं ये पता की मेरी यह भी एक आदत है
इसी बात का खूब फायदा उठा रहे वे मुझ से
चलो भला हो जाए उन का मेरी तो आदत है
क्या करता पहचान नहीथी अपने और पराये में
भेद नहीं कर पाया कोई अपने और पराये में
मुझे सभी अपने लगते हैं शायद मेरी भूल यही
पर मुश्किल है भेद करूं में अपने और पराये में
Tuesday, September 1, 2009
मुक्तक
करते कुछ है कहते कुछ है ऐसे लोग यहाँ पर
वे ही अगुआ वे ही नेता वे ही बड़े लोग हैं
वे ही भाषण देते सब को ऐसे लोग यहाँ पर
नेताओं के तो जबान पर ताले लगे रहेंगे
पहन के माला मंच पे आकर केवल भाषण देंगे
पर जब आएगी बारी वे मेरे हक़ में बोलें
फ़िर वे अपने हाथ पाँव सब ऊपर को कर देंगे
जीवन की सचाई मुझ से छुट नही पाई है
इसी लिए पीडा की बदली हर दिन घिर आई है
बेशक भीगा हूँ पर ख़ुद को इस से अलग किया है
जीवन की सच्चाई शायद यही समझ आई है