Friday, February 21, 2014

अँधेरे ही अँधेरे हैं उजाले छुप गये जा कर 
चलो हम रौशनी करने उन्हेंफिर ढूंढ लाते हैं |
तपिश जो बढ़ गई है आसमां से आग बरसी है 
चलो उस आग को हम खून दे कर बुझा आते हैं |
सुना है हर तरह वे अपनी बातें ही सही कहते 
चलो हम आइना उन का उन्ही को दिखा आते हैं |
नही वे मानते कब हैं कभी अपने किये को ही
उन्ही के कारनामों को उन्हें ही दिखा आते हैं |
बहुत आसन कब है खुद की गलती मान भर लेना
चलो उन की कही बातें उन्ही को बता आते हैं |
फुंके अपना ही घर बेशक उजाले तो जरूरी हैं
चलो हम दीया लेकर फूंक अपना घर ही आते हैं |

डॉ. वेद व्यथित
०९८६८८४२६८८

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत सुन्दर रचना।

vedvyathit said...

bndhu prveen ji hardik aabhar