आदरणीय जनों व मित्रों के सद्भाव के कारण यहाँ गुलाब पर कुछ और पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ सम्भवत: इन्हे भी ऐसा ही स्नेह व प्यार मिलेगा।
ये रचनाएं मैंने लगभग बीस वर्ष पूर्व लिखीं थीं और यूं ही रख छोड़ीं थीं पता नही कैसे ये पन्ने फिर खुल गये हैं।
कोमलता से बांटता अपनी गंध गुलाब
भंवरों को भर अंजुरी उस ने दिया प्राग
सब कुछ तो उस ने दिया अपना मन और देह
फिर वह क्यों तोडा झटक यह था कैसा नेह।
कोमलता उस की हुई उस को ही अभिशाप
काँटों से बचता हुआ पहुंचा उस के पास
बेरहमी से तोड़ कर लिया हाथ में भींच
शिकवा अब किस से करे कैदी बना गुलाब।
जिस दिन से खिलने लगा छूने लग गई धूप
मेरा खिलना लाजमी धुप भी थी मजबूर
कुछ दिन तो उस ने सहा उस का मीठा ताप
पर कितने दिन झेलता धुप की तीखी आग।
मन की बगिया में खिला एक गुलाबी फूल
यह क्या सचमुच फूल था या थी केवल भूल
भूल हुई तो क्या हुआ उपजा तो है फूल
कभी कभी यह भूल भी बन जाती है फूल।
ऐसा क्या मैंने कहा मुरझा गया गुलाब
बिन समझे ही रूठ कर हुआ वह बेहाल
फिर भी इस के हाल पर मुझ को रहा मलाल
मैं तो फिर भी धुप था वह था निपट गुलाब।
डॉ वेद व्यथित
०९८६८८४२६८८
बाद में अभी गुलाब से आप का संवाद और करवाऊंगा
2 comments:
रोचक रचना, गुलाब के भाव..
aabhar bhai prveen ji
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