अँधेरे ही अँधेरे हैं उजाले छुप गये जा कर
चलो हम रौशनी करने उन्हें ढूंढ लाते हैं |
तपिश जो बढ़ गई है आसमां से आग बरसी है
चलो उस आग को हम खून दे कर बुझा आते हैं |
सुना है हर तरह वे अपनी बातें ही सही कहते
चलो हम आइना उन का उन्ही को दिखा आते हैं |
नही वे मानते कब हैं कभी अपने किये को ही
उन्ही के कारनामों को उन्हें ही दिखा आते हैं |
बहुत आसन कब है खुद की गलती माँ भर लेना
चलो उन की कही बातें उन्ही को बता आते हैं |
फुंके अपना ही घर बेशक उजाले तो जरूरी हैं
चलो हम दीया लेकर फूंक अपना घर ही आते हैं |
डॉ. वेद व्यथित
०९८६८८४२६८८
3 comments:
बहुत सुन्दर...
कमाल की रचना ...
बधाई डॉ वेद् व्यथित !
आयना दिखाने की नजर से बहुत ही तीखी कविता है ,कुछ तो सर होगा ही |
Post a Comment