Sunday, June 24, 2012

अँधेरे ही अँधेरे हैं उजाले छुप गये जा कर 
चलो हम रौशनी करने उन्हें ढूंढ लाते हैं |
तपिश जो बढ़ गई है आसमां से आग बरसी है 
चलो उस आग को हम खून दे कर बुझा आते हैं |
सुना है हर तरह वे अपनी बातें  ही सही कहते 
चलो हम आइना उन का उन्ही को दिखा आते हैं |
नही वे मानते कब हैं कभी अपने किये को ही 
उन्ही के कारनामों को उन्हें ही दिखा आते हैं |
बहुत आसन कब है खुद की गलती माँ भर लेना 
चलो उन की कही बातें उन्ही को बता आते हैं |
फुंके अपना ही घर बेशक उजाले तो जरूरी हैं 
चलो हम दीया लेकर फूंक अपना घर ही आते हैं |

डॉ. वेद व्यथित 
०९८६८८४२६८८

3 comments:

Sawai Singh Rajpurohit said...

बहुत सुन्दर...

Satish Saxena said...

कमाल की रचना ...
बधाई डॉ वेद् व्यथित !

सुधाकल्प said...

आयना दिखाने की नजर से बहुत ही तीखी कविता है ,कुछ तो सर होगा ही |