Friday, May 14, 2010

ग्रीष्म ऋतू की त्रिपदी

त्रि-पदी हिंदी के लिए नया छंद है मैंने नेट पर पहले सर्दी कि त्रिप्दियाँ प्रकाशित कि थीं जिन का मित्रों ने भरपूर स्वागत किया था व आशीर्वाद दिया था इसी कड़ी में ग्रीष्म ऋतू पर कुछ त्रिपदी प्रस्तुत है

ग्रीष्म ऋतू की त्रिपदी

क्यों इतना जलते हो
थोडा तो जरा ठहरो
क्यों राख बनाते हो

ये आग ही तो मैं हूँ
यदि आग नही होगी
तो राख ही तो मैं हूँ

अपनों ने ही सुलगाया
क्या खूब तमाशा है
नजदीक में जो आया

दिल में क्यों लगाई है
ये और सुलगती है
ऐसी क्यों लगाई है

ज्वाला भड़कती है
आँखों की चिंगारी
दिल खूब जलती है

ये सर्द बना देगी
इस आग को मत छूना
तिल तिल सा जला देगी

क्या क्या न जलाएगी
इस आग को मत छेड़ो
ये मन को बुझाएगी

इस आग को मत छेड़ो
यह दिल में सुलगती है
इस को मत छेड़ो

अंगार तो बुझता है
कितना भी जला लो तुम
वह दिल सा बुझता है

हर आँख में होती है
ये आग तो ऐसी है
ये सब में होती है

जलना ही मिला मुझ को
मैं तो अंगारा हूँ
कब चैन मिला मुझ को

जल २ के बुझा हूँ मैं
बस आग को पिया है
उसे पिता रहा हूँ मैं

मुझे यूं ही सुलगने दो
मत तेज हवा देना
कुछ तो जी लेने दो

सब आग से जलते हैं
कुछ को वो जलती है
कुछ खुद को जलते है

क्यों आग से घबराना
जब जलना ही था तो
क्यों उस को नही जाना

हाँ आग बरसती है
यह जेठ दुपहरी ही
सब आग उगलती है

क्यों दिल को जलते हो
ये इकला नही जलता
क्यों खुद को जलते हो

मरना भी अच्छा है
तब ही तो जलता हैं
जलना भी अच्छा है

धुंआ भी उठने दो
अंगार बनेगा ही
धीरे से सुलगने दो

यह आग न खो जाये
दिल में ही इसे रखना
यह रख न हो जाये

यह आग है खेल नही
दिल जैसी सुलगती है
इसे सहना खेल नही

डॉ. वेद व्यथित

1 comment:

Unknown said...

यह आग है खेल नही
दिल जैसी सुलगती है
इसे सहना खेल नही