Thursday, March 20, 2014
Saturday, March 15, 2014
होली इस बार कृषक बंधुओं के लिए दुखद रूप से आई है क्योंकि मौसम कि मार किसान कि फसल पर बुरी तरह पड़ी है उन्हें के दुःख को साँझा करे हुए उन्ही को समर्पित एक रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ।
मैं कैसे अबीर उड़ाऊँ
खड़ी फसल पर ओले पड गये
सरे सपने उस में गल गये
कान्हा जी भी हम से रूस गये
कैसे बिटिया का ब्याह रचाऊं। मैं कैसे ....
कर्ज महाजन का है सर पे
फसल बिना उतरे क्यों सर से
निगाह बड़ी तिरछी है उस कि
मैं कैसे कर्ज चुकाऊँ। मैं कैसे .......
फसल काटने का अवसर था
उमड़ घुमड़ बद्र सर पर था
सोच सोच कर जी मिचली था
चैट में कैसे मल्हार सुनाऊँ। मैं कैसे ……
बूढ़े मैया बापू दोनों
पड़े खाट टूटी पर दोनों
पैसा नही है पास बचा अब
मेंकैसे दवा दिलाऊं। मैं कैसे ..........
बहन देखती बात भाई की
भात भरेगा ब्याह भांजी
खाली हाथ बहन के घर पर
कैसे भात ले जाऊं। मैं कैसे ……
बेटा पढ़ने की जिद करता
भरी जवानी बूढा लगता
फसल हुई बर्बाद असमय
कैसे कालेज भिजवाऊं। मैं कैसे … …
गोरी के जो गाल लाल थे
पीले पड़ गये सब्जबाग थे
ऐसे मैं उस के गलों पर
कैसे गुलाल लगाऊं। मैं कैसे ......
डॉ वेद व्यथित
09868842688 .
Monday, March 10, 2014
आज कल " आप " मौसम हुए
क्या भरोसा है कब क्या हुए।
बात ईमान से कह रहे
क्योंकि वे ही हरिश चंद हए।
दूसरों की हैं गंदी कमीजें
साफ़ तो आप पहने हुए।
देश में सब के सब चोर हैं
कैसे लगते हैं कहते हुए।
तोड़ दीं तुमने कसमें सभी
आप अपने सगे न हुए।
जिन को मंचों से गालीं बकीं
जीभ से उन के तलुए छुए।
कथनी करनी कहाँ एक है
अंतर दोनों में कितने हुए
शर्म फिर भी कहाँ आप को
जूते खा २ के खुश तुम हुए।
शर्ट फाड़ी सभा के लिए
हाथ में ब्लैक बेरी लिए
कुर्सी मकसद रही "आप "का
आदमी आम पीछे हुए।
डॉ वेद व्यथित
Friday, March 7, 2014
स्त्री यानि औरत
जिस की मजबूरी है
घर की आमदनी बढ़ाना या
आधुनिकता की दौड़ में शामिल होना
इसी लिए निकलना पड़ता है उसे
घर से सुबह सवेरे जल्दी ही
सब की इच्छाएं पूरी करते हुए
टिफिन , टाई , रुमाल , जुराब और
जरूरी चीजें संभलवा कर
फिर भागना पड़ता है उसे
अपना नाश्ता छोड़ कर
भीड़ भरे वाहनों में घुसने के लिए
अपने खाली से पर्स
औ दूसरे सामान के साथ
साडी और साडी के पल्लू को सम्भालते २
आधुनिकता और मजबूरी के बोझ को
साथ २ ढोते हुए ।
इसी तरह आती है वह शाम को
सारा बोझ ढो कर
जो और भारी हो जाता है घर पहुँचते २
और उतरता भी नही है
अन्य सामान की तरह मन से
घर आने पर भी
अपितु और बढ़ जाता है वह
दिन प्रति दिन यानि हर दिन
दुगना हो कर ॥
Tuesday, March 4, 2014
परमेश्वर कि अनुकपमा और मित्रों कि शुभकामनाओं के कारण मेरे काव्य संकलन " अंतर्मन " का सिक्किम में नेपाली भाषा में अनुवाद हुआ है। इस का अनुवाद मेरे मित्र , नेपाली भाषा के सुकवि श्री अमर बानियाँ " लोहरो " ने किया है तथा डोगरी भाषा के प्रख्यात साहित्यकार डॉ सुवास दीपक जी ने इस पुस्तक की भूमिका लिख कर उपकार किया है तथा आवरण पृष्ठ को संजोने और संवारने में प्रसिद्ध चित्रकार दीपा राई जी ने अपना अमूल्य सहयोग दिया है।
मैं बंधु अमर बानियाँ जी ,डॉ सुवास दीपक जी व दीपा जी के प्रति अपनी कृत्यज्ञता ज्ञापित करता हूँ और यह प्रसन्नता आप के साथ बांटने का सौभाग्य प्राप्त कर रहा हूँ। इसे आप का स्नेह मिलेगा ही।
डॉ वेद व्यथित
09868842688
Subscribe to:
Posts (Atom)