Saturday, April 30, 2011

प्रतिबद्धता

समय की प्रतिबद्धता कैसे कहोगे
जब समय के अश्व चलते हैं निरंतर
सूर्य नभ में कब रहा है थिर हमेशा
और पूर्णिमा रही है कब निरंतर

पर समय तो चाल अपनी चल रहा है
यही है प्रति बद्धता उस की निरंतर |

ज्वार के कितने बवंडर उठ खड़े थे
दूर मीलों तक नही जा कर रुके थे
लग रहा था छोड़ गहराई उठा है
जब किनारे दूर सागर के हुए थे

पर समन्दर शीघ्रता से लौट आया
यही है प्रति बद्धता उस की निरंतर |

गर्जना कर कर के वर्षा खूब की थी
जल मग्न करने को जागी भूख उस की
प्रलयकारी जल बहुत उस ने गिराया
वही रीते हाथ हो कर अब खड़ा है

स्वच्छ अपना रूप फिर उस ने दिखाया
यही है प्रति बद्धता नभ की निरंतर |

सुबह सूरज की किरण हर रोज आती
साँझ अपनी लालिमा हर दिन दिखाती
रात को तारे निरंतर जगमगाते
रोज प्रात: काल पक्षी चहचहाते

बिन रुके पृथ्वी धुरी पर घूमती है
यही है प्रतिबद्धता उस की निरंतर |

द्वंद जीवन में नये हर रोज आते
हृदय में वे शूल सा आकर चुभाते
मगर खुशियाँ भी कभी आती तो हैं
जो बहुत जल्दी से कितनी दूर जाती हैं

यही क्रम जीवन में होता है निरंतर
यही है प्रति बद्धता उस की निरंतर ||

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

समय तो फिर भी रुके चलता रहेगा।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

प्रकृति निरंतर अपनी प्रतिबद्धता से चलती रहती है ...

udaya veer singh said...

gambhir ,saras sarthak srijan , padhkar achha laga . sadhuvad .