Tuesday, April 12, 2011

धीरज आखिर टूट गया

और छुपाता दर्द हृदय में अब कितना
दर्द हृदय की सब सीमायें लांघ गया

कितने ज्वार उठे और कितने लौट गये
कितने मोती तट बंधों पर बिखर गये
गहराई सागर की फिर भी गहरी थी
बेशक कितने झंझा आ कर चले गये
पर धरती की पीर न सागर समझ सका
बिन समझे तूफ़ान मचा कर लौट गया

बहुत रोकता रहा गर्जना कर कर के
आखिर तो वो हृदय ही था टूट गया
कितना रोका कहाँ रूका वो रोके से
तट बंधों का धीरज आखिर टूट गया
और धरा भी कहाँ रोकती अंतर को
इतने ज्वार उठे कि अंतर भीग गया

रूपहला आकर्षण कितना मोहक था
उस के बाद अमा भी देखी भूल गया
फिर फिर भूख जगी किरणें जब जब आईं
किरणों का आकर्षण तम को भूल गया
पर पूर्णिमा बाद अमावश आती ही
पूर्णिमा को देख अमा को भूल गया ||

2 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सुन्दर प्रस्तुति ..सुख के बाद दुःख और फिर सुख आता ही है ..

प्रवीण पाण्डेय said...

जब सीमायें टूटती हैं तो नया हृदय निर्मित होता है।