Sunday, March 28, 2010

आओ सरकार-सरकार खेलें

एक दिन घोषणायानि मुनादी हो गई कि सभी लोगों को सूचित किया जाता है कि सरकार सरकार खेलने की प्रतियोगिता आयोजित की जायेगी सभी लोग ध्यान से सुन लो क्यों कि जो भी इस में हिस्सा वे हे खेल के बाद फल और फलियों के सिन्नियों व रेवड़ियों को प्राप्त करने के हकदार होंगे जो रह जायेंगे वे बाद में पछतायेंगे वे कई तरह के फल फ्प्प्लों से वंचित हो जायेंगे या फिर खेल में शामिल न होने की बहुत बड़ी कीमत चुकायेंगे तब ही वे खेल में शामिल किये जायेंगे
मुनादी सुनते ही लोगों में खुसर पुसर शुरू हो गई भाग दौड़ हलचल उठा पटक सब शुरू हो गया लोगों ने खेल में शमिल होने की तैयारी शुरू कर दी जिस के पास जो साधन थे सब उन्हें ले कर तैयार हो गए किसी पर झंडे थे ,किसी पर डंडे थे किसी पर टैक्स से बचाए फंडेथे किसी के पास कुछभी नही था वे और कुछ और तो हर तरह से नंगे थे वसे उन में कुछ सब से ज्यादा निकम्मे थे कुछ चोर थे ,और कुछ उच्चके थे इतना ही नही वेमुनादी से सब से ज्यादा प्रभावित थे
चलो जो भी था कुल मिला कर खेल की तैयारी शुरू हो गई जिस पर जो था वो अपना अपना सब कुछ ले आया कोई झ्न्दकोई डंडा कोई टोपियाँ कोई कुरता कोई लंगोट कोई पायजामा ले कर ए गया क्यों कि खेल की असली शान तो यही थे इन्हें ही तो सब से ज्यादा खेलना था बिना बात दूसरों के लिए लाइन में लगना था धूप में सिकना था लड़ना था मरना था चीखना और चिलाना था गला फाड़ हूकना था गाना था क्यों कि इन बात खेल में मजा लेना था
खेल शुरू हो गया झंडे वाले सब पहले आ गये परन्तु डंडे वाले उन से भी आगे निकल ए लोगों ने चुपचाप उन के लिए रास्ता छोड़ दिया परन्तु उन प्रझ्न्दे नही थे बिना झंडे के उन का डंडा बेकार था और जिन पर झंडा था उन झंडा भी बिना डंडे के बेकार था डंडे वाले अपना डंडा क्यों देते और झंडे वाले अपना झंडाडंडे वालों को क्यों देते आखिर झंडे वाले ज्यादा हुशियार थे उन्होंने डण्डे वालों से कोई गुप्त समझौता कर लिया और अपने झंडों को उन के डंडों पर लगा दिया और फिर उन्हें झंडे लगे डंडे थमा दिए डंडों के सहारे झंडे लहराने लगे जो खाली हाथ थे वे उन के गीत गाने लगे
गीत सभी को गाने थे सबको अपने अपने स्वर अच्छे बताने थे इस लिए उन के स्वर ऊँचे से ऊँचे होने लगे फिर क्या था लोग झुंडों में बंटने लगे वे एक दूसरे झुण्ड को निचा दिखने लगे या अपने झुण्ड में दोसरों को मिलाने लगे कुछ अपनी द्प्ले ले कर अलग बजाने लगे खूब शोर शराबा होने लगा बच्चों की पढ़ी बेकार होने लगी बूढ़े और बीमार हो गये पर ज्न्दे कूब लहराए खूब डंडे चले लोगों ने खूब गीत गए
आखिर खेल खत्म होने का समय भी आया और खेल समाप्ति की घोषणा हो गई जिन का झंडाऊँचा था वे विजयीघोषित हुए ऊँचे झंडे वालों ने भरपूर इनाम पाया उन्होंने डंडे वालों को भी इस में शमिल करवाया परन्तु गाने वाले उतावले थे उन्होंने खेल खत्म होने से पहले ही जो हाथ आया हतक खाया परन्तु बाद वाले ज्यादा फायदे में थे उन के हाथ बहुत ज्यादा आया ऐसा नही कि बाद में गाने वालों को कुछ भी नही मिला परन्तु जो मिला वह न के बराबर था असली माल तो झंडे वालों के हाथ आया उन्होंने तो पूरा खजाना पाया और उस खजाने में से कुछ अपने सहयोगी डंडे वालों पर लुटाया उन्हें बी उस में सहभागी बनाया बाक़ी को इनाम में शमिल करने का आश्वाशन दे कर बड़ी चतुराई से टरकाया .
ये लोग बहकाए में आ गये झंडे वाले झंडे ले कर लहरा कर अलग हो गये बाक़ी देखते रह गये अब पछताए हॉट क्या जब खेल खत्म हो गया खेल का इनाम इन से बहुत दूर था झंडे वाले हे बड़े हो गये उन्ही के डंडे वाले भलग गये रह गये गीत गाने वाले अब वे क्या करें झंडे वालों से कैसे मुलाकात करें क्यों कि उन के पास डंडे वाले भी हैं और खेल खत्म हो ही गया है इस लिए अब झंडे और डंडे वालों की ही माया है उन्ही पर छत्र की छाया है बके तो वैसे के वैसे ही धूप में सिकेंगे लाइन में लगेंगे यदि कुछ कहेंगे तो डंडों से पीटेंगे
इस लिए पहले बता रहा हूँ खेल दुबारा भी खेला जायेगा झंडा भी होगा डंडा भी होगा और तुम ही उन के लिए चीखोगे चिल्लाओगे गला फाड़ गाओगे पर यदि ऐसे ही खेले तो फिर पछताओगे और ज्यादा कुछ होगे तो फिर से डंडे खाओगे इस लिए अभी से सावधान हो जाओ पर ये सावधान कहाँ होते हैं जल्दी सो जाते हैं सोने के बाद अगला पिछला सब भूल जाते हैं और फिर बार बार पछताते हैं युधिष्ठिर के बताये उत्तर की तरह क्षणिक ज्ञान प्राप्त करते हैं और क्षण में ही भूल जाते हैं
अब क्या कहूँ कसूर किस का है खेल का या उन्खेलने वालों का ,झंडे वालों का या डंडे वालों का या उन के लिए गाने वालों का आखिर कौन है कसूरवार खेल खिलने वाले तो तमाशबीन हैं खेलने वालों में कुछ धूर्त है कुछ महा मूर्ख हैं कुछ भुल्लकड़ हैं भूलने में महान हैं ये सब धन्य हैं यही इन की पहचान हैं इसे ही तो सही अर्थों में कहते हिंदुस्तान हैं
डॉ. वेद व्यथित
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Tuesday, March 23, 2010

आज श्री राम नवमी के पावन अवसर पर भगवान श्री राम के प्रति श्रधा पूर्वक नमन

भगवान श्री सीता राम जी
किस ने देखा राम हृदय की घनीभूत पीड़ा को
कह भी जो न सके किसी से उस गहरी पीड़ा को
क्या ये सब सेवाके बदले मिला राम के मन को
आदर्शों पर चल कर ही तो पाया इस जीवन को

राम तुम्हारा हृदय लेह धातु से अधिक कठिन है
पिघल सका न किसी अग्नि से ऐसी मणि कठिन है
आई होगी बाढ़ हृदय में आँसू धरके होंगे
शायद आँख रुकी न होगी बेशक हृदय कठिन है

मन करता है राम तुम्हारे दुःख का अंश चुरा लूं
पहले ही क्या कम दुःख झेले कैसे तुम्हे पुकारूँ
फिर भी तुम करुणा निधन ही बने हुए हो अब भी
पर उस करुणा में कैसे में अपने कष्ट मिला दूं

किस से कहते राम व्यथा मन में जो उन के उभरी
जीवन लीला कैसे कैसे आदर्शों में उलझी
इस से ही तो राम राम हैं राम नही कोई दूजा
बाद उन्हों के धर्म आत्मा और नही कोई उतरी

दो सांसों के लिए जिन्दगी क्या क्या झेल गई थी
पर्वत से टकरा सीने पर सब कुछ झेल गई थी
पर जब आंसू गोरे धरा बोझिल हो उन से डोली
वरना सीता जैसी देवी क्या क्या झेल गई थी
डॉवेद व्यथित
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Sunday, March 21, 2010

माला महिमा

नोटों की माला का कैसा नया चलन अब आया है
भूखों की रोटी छिनी है कैसा खेल दिखाया है
पर मूर्ख वे लोग खुदी हैं जो ऐसे लुट जाते हैं
जात पांत के नाम पै कैसा २ नाच दिखाते हैं

माला तो है खूब उजागर कुछ लेते बिन माला के
सब को रहती पता यहाँ पर ऐसी गड़बड़ झाला के
पर किस की कब कौन कह रहा सब हमाम में नंगे हैं
भूखे मर जायेंगे नेता बिना लिए इस माला के

काश इसी माला में से ही होरी को कुछ मिल जाता
वो भी अपने फटे हल को थोडा सा तो सिल पता
पर ऐसे कैसे हो सकता कहाँ हुई गिनती उस की
रुपया तो केवल उस के इन आकाओं पर जाता है

डॉवेद व्यथित

Friday, March 19, 2010

सैनिकों के प्रति

इस से ज्यादा शर्म की और क्या बात होगी जो देश के सैनिकों को अपने मेडल वापिस करने पड़ रहे हैं
देश के उन हजारों सैनिको के प्रति सम्मान पूर्वक मेरे कुछ मुक्तक निवेदन है

सैनिकों के प्रति

सीमाओं पर रात रात भर जो जवान अड़ जाते हैं
अपना सब कुछ छोड़ देश के लिए बलि चढ़ जाते हैं
उन बलिदानों की कीमत क्या देश कभी दे सकता है
पर सत्ता में बैठे गूंगे बहरे क्या सुन पाते हैं ?

ऐसी मजबूरी क्यों आई मेडल भी वापिस ले लो
इन से पेट नही भरता है इन को तुम वापिस ले लो
पर दे दो इज्जत मेरी जो देश के लिए लुटाई है
और चाहिए नही मुझे कुछ बेशक जीवन भी ले लो

यदि जवानो के संग में भी ऐसे ही बतियोगे
राजनीति के ओ दुमछल्लो क्या गुल और खिलाओगे
यदि इसे अपमान मिलेगा फिर कैसे जीवन देगा
सैनिक के इस त्याग बिना तुम चैन से न सो पाओगे

जय जवान का नारा ही तब बेमानी हो जायेगा
जब जवान सत्ता के कारण अपना मान गंवाएगा
क्या रह जाएगी कीमत छाती पर लटके मेडल की
जब वो रोटी की भी खातिर दरदर ठोकर खायेगा

डॉ.वेद व्यथित
http://sahityasrjakved.blogspot.com
email -dr.vedvyathit@gmail.com

Wednesday, March 17, 2010

विक्रमी नव सम्वत पर भव्य आयोजन

जनसहयोग वैल्फयर असोशियेशन दो के ब्लोकफरीदाबाद के भव्य भवन में भारतीय विक्रमी नव सम्वत २०६७के शुभारम्भ पर एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया इस में विभिन संस्थाओं के प्रतिनिधियों की सहभागिता रही कार्यक्रम की अध्यक्षता की वयोवृद्ध शिक्षाविद व संस्था के चैयरमैन श्री के० एल० मक्कड़ जी ने कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे मूर्धन्य साहित्यकार व भारतीय साहित्य कार संघ के अध्यक्ष डॉ वेद व्यथित एवं कारगिल जंग के योधामेजर विजय कुमार तथा प्रिंसिपल व कवयित्री डॉ. नर्गिशखामोश इस में मुख्य अतिथि थे
कार्यक्रम में विक्रमी नव सम्वत पर प्रकाश डालते हुए डॉ. वेद व्यथित ने इस की वैज्ञानिकता व एतिहासिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए बताया की चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के शासन में न तो कोई कर्जदार था न ही कोई सताया जा सकता था यह राजा का दायित्व था की वह अपनी प्रजा के कुशल क्षेम का ध्यान अपने सुख छोड़ कर भी करे यह राजा की ही जिम्मेदारी थी की कोई उस के राज्य में भूखा न सोये कोई दुखी न हो कोई किसी के अधिकारों का हनन न करे ये सब उत्तरदायित्व राजा के थे जिन्हें उन्होंने बखूबी निभाया था
इस के अतिरिक्त ज्ञान के प्रसार व प्रचार के लिए भी सम्राट विक्रमादित्य ने विशेष व्यवस्था की थी जिस का प्रमाण आज भी हमे बहुत सी पुस्तकों में मिलता है उन के बारे अरब देश में स्वर्ण पत्र पर लिखी गई कविता देखने योग्य है जो इस प्रकार है :
इत्त्रशाफई स्नातूल विक्र्मतूल फहलामिन क्रिमून य्र्ताफिया वयोव्सरू ..................बिल अमर विक्र्मतून
इस का हिंदी भाव ये है :
वे लोग धन्य हैं जो राजा विक्रम के शासन में पैदा हुए वह दानी धार्मिक और प्रजा पालक था उस समय हमारे अरब परमात्मा को भूल कर सांसारिक आनन्द प्राप्त करने में लगे थे वे कपट को गुण समझते थे हमारे लोग मूर्खता में जकड़े हुए थे परन्तु अब उदार राजा विक्रम की कृपा से आनन्दमाय प्रभात का उदय हुआ वह हम विदेशियों को भी अपनी दया से वंचित नही रखता उस ने अपने प्रतिठित विद्वान् जो सूर्य के समान प्रकाशमान थे हमारे लिए ज्ञान देने को भेजे जिस से हमारी भूमि में दिव्य मार्ग आलोकित हुआ
ये सम्राट विक्रमादित्य की विशेषताए थीं जिन्हें हम भूलते जा रहे है
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए भाटिया सेवक समाज के अध्यक्ष सरदार मोहन सिंह भाटिया के कहा की आज भारतीय संस्कृति पर चारों ओर से खतरा मंडरा रहा है जिस पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है
खत्री बिरादरी के वयोवृद्ध संरक्षक श्री सुंदर दासखत्री ने इस अवसर पर नैतिक बातों को दोहराते हुए नव सम्वत पर उन का अनुसरण करने पर जोर दिया संस्था के चैरमैन श्री के एल मक्कड़ ने इन कार्यक्रमों के आयोजन के महत्व पर प्रकाश डाला तथा आगामी पीढ़ियों के लिए इसे हस्तांतरित करने पर जोर दिया
समारोह में गोसाईं भूषण बाली , भीम सैन बहल पार्षद राजेश भाटिया लाजपत राय चंदना प्राध्यापक पवन सिंहशिक्षाविद श्रीमती सरोज खत्री श्रीमती राधा नरूला तथा ममेंद्र शर्मा आदि समाज के गन मान्य जन बड़ी संख्या में उपस्थित हुए संस्था के अध्यक्ष सतीश खत्री ने आगुन्तकों का आभार व्यक्त किया व इस तरह के आयोजन निंतर करने का संकल्प लिया
कार्य कर्म का सफलतम संचालन किया संस्था के महा सचिव भारत भूषण अरोड़ा ने जिस की सब ने सराहना की
अंत में प्रसाद वितरण के उपरांत कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा की गई

Sunday, March 14, 2010

विक्रमी नव सम्वत २०६७ की बहुत २ शुभकामनायें

विक्रमी नव सम्वत २०६७ की बहुत २ शुभकामनायें
भारत के महान इतिहास के स्वर्णिम इतिहास कीव विश्व की महानतम घटना विद्वान् पराक्रमी व प्रजा पालक सम्राट विक्मादित्य द्वारा नव सम्वत प्रारम्भ करने की पवित्र यादमें व सम्वत २०६७ के शुभारम्भ पर सभी मित्रों को मेरी बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें
आप सभी के लिए यह शोभन नाम का सम्वत बहुत २ प्रसन्नता लाये आप का जीवन सदा खुशियों से भरा रहे हमारा राष्ट्र उन्नति करे देश वासी खुसी से जीवन बीतें आतंकवाद का सफाया हो यही मरी इस अवसर पर परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है
डॉ वेद व्यथित

Saturday, March 13, 2010

डच चित्रकार के चित्र ब्लॉग वाणी ने क्यों बंद कर रखे हैं ?

पूरे विश्व पर आतंक का कितना भयंकर खतरा है यह इस बात से पता चलता है की ब्लॉग वाणी भी डॉ के मरे डच चित्रकार की ब्रुश के बनाये चित्र नही दिखा पा रही है जब की म फ हुसेन को अब भी लोग रोये जा रहे है यह आज के उग में भी कैसा दोहरा पनहै भारत माता के नग्न चित्र तो कोई भी बनाये या दिखाए वह अभिव्यक्ति की स्वत्न्र्ता पर डच चित्र कार के चित्र शैतानी यह दोहरा पनक्यों आखिर यह कब तक चलता रहेगा कब तक सभी समाज आतंक के साये में जीता रहेगा और कब तक उस के समर्थक उसे पलते और पोसते रहेंगे
डॉ.वेद व्यथित

इस्लाम में औरत

अबतो इस्लाम की असलियत सब के सामने आ गई है महिलाओं के साथ वहाँ कितना भेद भाव है इस्लामी धर्म गुरुओं के अनुसार वे केवल बच्चे पैदा करें राजनीति करने का एक मात्र अधिकार तो बस मर्दों का है क्या यही आज की सोच है
इस के बावजूद अब कोई महिला अधिकारवादी या तथा कथित मानवता वादी जो हिन्दू धर्म की हर बात पर तूफान उठाये रहते हैं वे अब कोई मोर्च निकलना तो दूर इस बात पर तो नींद की गोली कहा कर सो गये होंगे या कहीं गहरे बिलों में छुप गये होंगे इसी तरह वाम पंथी भी अब अपना मुंह सिल चुकेंगे अब नतो कोई विरोध होगा और न ही नारे बजी होगी मिडिया भी उन के आगे मिमियायेगा क्या एक सभी समाज की यही पहचान है यही या ऐसी बातें ही तो समाज में खाई पैदा कर रही है और कट्टर पंथियों का शिकार भी समाज धर्म के नाम पर हो रहा है
आखिर नै पीढ़ी भी तो उसी स्वर में स्वर मिला रही है उस में भी कुछ कहने की हिम्मत नही है आखिर क्या होगा इस देश का और इन महिलाओं का
अब मुस्लिम महिलाओं की पैरो करी करने वालों को भी डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी भी नही मिल रहा होगाजो संसद को सिर पर उठाये हुए थे
आखिर हम और कब सोचेंगे हम और किस वक्त का इतजार कर रहे हैं अब तो जग जाओ
डॉ. वेद व्यथित

Tuesday, March 9, 2010

भीड़ का चेहरा

भीड़ का चेहरा

बदली नही है भीड़
वर्षों वर्ष चलते हुए भी
वही लोग हैं उस में
वही चल है उन की
और उन्ही नारों की तख्तियां
उठाये हुए हैं वे हाथों में

किसी ने भी नही की है
कोशिश इसे रोकने की
कुछ पूछने की
या आगे जो बहुत बड़ी खाई है
उसे बताने की
बिलकुल कोशिश नही की है

परन्तु वास्तव में तो
भीड़ सुनती भी कहाँ उस की
उस ने सोचा भी था
एक क्षण रुका भी था वह
उस ने हाथ भी उठाया था
भीड़ को रोकने के लिए
कुछ शब्द जहन में उभरे भी थे
परन्तु बीच में ही रुक गया था वह
शब्द बाहर नही आ पाए थे उस के
होठ सिले के सिले ही रह गये

परन्तु भीड़
उसे धकियाते हुए आगे बढने लगी
वह कितने धक्के और झेलता भीड़ के
नही वह नही सह सका
अपनी ओर उठती भीड़ की उँगलियों को
क्रूरता से घूरती निगाहों को
अट्टहास कर उपहास उड़ाती आवाजों को
वह नही सह सका
और शामिल हो गया भीड़ में
परन्तु फिर भी
अपने आप को अलग मान कर
चलता रहा वह
उस भीड़ में
डॉ. वेद व्यथित

Friday, March 5, 2010

हाकी की हार

हाकी में हम हार गये बात हरने की या जितने की नही है खेल में हार जीत तो होगी ही परन्तु इस हार में अन्य कारणों के साथ २ राज नीति एक कारण तो है ही जिस का कोई जबाब इस व्यवस्था में लगता है नही है क्यों की हम न तो जबाब मांगने के हक दारहैं और न ही जबाब देने के
इस के साथ २ जोएक और बड़ा कारण है वह है हाकी जैसे खेल में भी गोल करने पर खिलाडी को व्यक्तिगत पुरस्कार की घोषणा जिस ने हाकी के खेल का सत्यानाश किया है हाकी में व्यक्तिगत इनाम के स्थान पर गोल करने पर पूरी टीम को ही भरपूर इनाम दिया जाये क्यों की गोल तक गेंद को पहुचने में पूरी टीम की हिस्सेदारी होती है उसे कैसे नकारा जा सकता है परन्तु लोगो के दिमाग में यह क्यों नही आता पता नही वे कैसे ऐसी २ घोशनाएँ करते हैं
यदि हाकी का हम सब कुछ भला चाहते हैं तो इस तरह की घोषणाओं को बंद करना ही होगा
डॉ. वेद व्यथित

Wednesday, March 3, 2010

नही मिली गैर हिन्दुओं से शुभकामनायें

होली बीत गई दूसरे धर्म के कितने लोगों ने नेट पर हिन्दुओं को होली कि शुभकामनायें दी हैं जो लोग नेट पर काम करते हैं उन्होंने देख लिया होगा कि दूसरे लोगो में हिन्दुओं कि प्रति कितना सद्भाव है जब कि दूसरे मतों के त्यौहार आते ही हिन्दू शुभकामनाओ के ढेर लगा देते है क्या यह उन का सद्भाव है या बेवकूफी यदि सद्भाव है तो दूसरे धर्म के लोगो को हिन्दुओंको शुभकामनाये नही देनी चाहिए क्या शुभकामनाये करने में भी कुछ लगता है परन्तु नही कि गई क्यों कि पाकिस्तान ने भी तो हमारी सीमाओं पर होली में गोली बरी कीहै क्या यही विमत के लोगो की असलियत है क्या हिन्दू बेवकूफ हैं हिन्दुओं को इस पर विचार नही करना पड़ेगा यदि नही करेगा तो ऐसे ही काबुल में जैसे चुन २कार मारा है क्या उस के साथ और ऐसा नही होगा पता नही यह कोम कब जागेगी जागेगी भी या नही आखिर दूसरे धर्म के लोग हिन्दुओं से व उन के रीती रिवाजों से इतनी नफरत क्यों करते है आखिर उन्हें यह बात कौन पढ़ा व समझा रहा है की हिन्दुओं को त्योहारों पर शुभकामनायें देने से या उन में सम्मलित होने से उन का धर्म समाप्त हो जायेगा क्या यही साम्प्रदायिक सौहार्द है बिलकुल नही है
डॉ.वेद व्यथित