Wednesday, March 3, 2010

नही मिली गैर हिन्दुओं से शुभकामनायें

होली बीत गई दूसरे धर्म के कितने लोगों ने नेट पर हिन्दुओं को होली कि शुभकामनायें दी हैं जो लोग नेट पर काम करते हैं उन्होंने देख लिया होगा कि दूसरे लोगो में हिन्दुओं कि प्रति कितना सद्भाव है जब कि दूसरे मतों के त्यौहार आते ही हिन्दू शुभकामनाओ के ढेर लगा देते है क्या यह उन का सद्भाव है या बेवकूफी यदि सद्भाव है तो दूसरे धर्म के लोगो को हिन्दुओंको शुभकामनाये नही देनी चाहिए क्या शुभकामनाये करने में भी कुछ लगता है परन्तु नही कि गई क्यों कि पाकिस्तान ने भी तो हमारी सीमाओं पर होली में गोली बरी कीहै क्या यही विमत के लोगो की असलियत है क्या हिन्दू बेवकूफ हैं हिन्दुओं को इस पर विचार नही करना पड़ेगा यदि नही करेगा तो ऐसे ही काबुल में जैसे चुन २कार मारा है क्या उस के साथ और ऐसा नही होगा पता नही यह कोम कब जागेगी जागेगी भी या नही आखिर दूसरे धर्म के लोग हिन्दुओं से व उन के रीती रिवाजों से इतनी नफरत क्यों करते है आखिर उन्हें यह बात कौन पढ़ा व समझा रहा है की हिन्दुओं को त्योहारों पर शुभकामनायें देने से या उन में सम्मलित होने से उन का धर्म समाप्त हो जायेगा क्या यही साम्प्रदायिक सौहार्द है बिलकुल नही है
डॉ.वेद व्यथित

5 comments:

Taarkeshwar Giri said...

र्मा जी , नमस्कार।
बहुत ही मजेदार मुद्दा उठाया है आपने , दर असल दिक्कत ये है की दुसरे धर्मो के धर्म गुरु मना करते हैं एसा करने से। इसका एक उदहारण मेरे पास है। मेरे एक पडोसी हैं श्रीमान जोन मसीह, उनके हर त्यौहार मैं हमारा परिवार शामिल होता है , उनके हर दुःख शुख मैं हम साथ होते हैं। मगर जब हमारे त्यौहार की बात आती है तो वो लोग हमारा प्रसाद लेने से मना कर देते हैं और जबाब मिलता है की पादरी साहेब ने मना किया है।
मगर हम हिन्दुस्तानी उन्हें अपना समझ कर के माफ़ कर देते हैं।

दिनेशराय द्विवेदी said...

शुभकामनाएँ देने वाले और होली में सहर्ष सम्मिलित होने वाले गैर हिन्दुओं की कमी नहीं है। पर ऐसे भी हैं जो इस सब से दूर रहना चाहते हैं।

Amitraghat said...

"मज़ेदार पोस्ट है......."
amitraghat.blogspot.com

संजय बेंगाणी said...

ब्लॉग जगत के महफूज भाई का फोन आया था. ऐसे ही शुएब का मेल मिलता ही है. हाँ अगर आप किसी पोस्ट की उम्मीद में थे तो..... :)

Unknown said...

आज हिन्दूओं की यही उदारता हिन्दूओं की बर्बादी का कारम बन रही है हमें भी मुसलिम और इसाई आक्रमणकारियों की तरह अपने रिती रिवाजों को छोड़ कर वाकी सबकुच को अस्वीकार करने की आदत डालनी पड़ेगी ।क्योंकि बैसे भी पशुप्रवृति का बदला हुआ स्वारूप ही इसाइयत और इसलाम में दिखता क्योंकि पशु को सिर्फ अपनी चिन्ता होती है दूसरों की नहीं।क्योंकि यह युद्धकाल चल रहा है इसलिए हिन्दूओं को भी कुछ समय के लिए इस पशुप्रवृति को अपनान होगा क्योंकि लोहे को लोहा काटता है